भाव दशा में होना ही ध्यान है

July 2002

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ध्यान में निमग्न होना हर साधक की चाहत है। हालाँकि इसमें विघ्न-बाधाएँ बहुत हैं। अनेकों व्युत्थान-व्यतिरेक इस चाहत को पूरा होने नहीं देते। मन बार-बार डोलता-डगमगाता है। अपने डोलने-डगमगाने के अनगिन कारण गिनाता है। जितना उसे स्थिर करने का प्रयास किया जाता है, उतना ही वह पत्ते की तरह काँप-काँप उठता है। कल्पनाओं, कामनाओं के झोंके उसे इधर-उधर उड़ाते रहते हैं। तर्क और विचारों के जाल में यह फँसा-उलझा रहता है। छूटने की हर कोशिश इसे और भी ज्यादा उलझा देती है। परिणाम, ध्यान साधना की परेशानी बन कर सामने आता है। इस परेशानी से उलझे साधक बार-बार यह सवाल करते हैं- मेरा ध्यान नहीं लगता? क्यों नहीं लगता? किस तरह लगेगा? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है कि साधकों को ध्यान साधना की सच्चाई को जानना होगा। उसके सत्य और तत्त्व की अनुभूति करनी होगी। इस अनुभूति की प्रगाढ़ता में ही उन्हें अपने प्रश्नों के हल मिलेंगे।

प्रायः सोचा जाता है कि ध्यान कोई क्रिया है, उसे करना पड़ता है। पर दरअसल ध्यान क्रिया नहीं अवस्था है। अपने स्वरूप में होने की स्थिति है। पूरी तरह से क्रियाहीन एक भावदशा है। किसी भी क्रिया में हम अपने से बाहर के जगत् से सम्बन्धित होते हैं। अक्रिया में स्वयं से सम्बन्धित होते हैं। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, तब हमें उसका बोध होता है जो कि हम हैं। अन्यथा, ढेरों क्रियाओं में फँसे उलझे हम स्वयं से अपरिचित रह जाते हैं। कभी यह याद भी नहीं आ पाता है कि हम भी कोई हैं। हमारी रोज-मर्रा की व्यस्तताएँ बहुत सघन हैं। शरीर दो क्षण विश्राम कर भी ले, लेकिन मन तो विश्राम करता ही नहीं है। जागते हुए सोचते हैं, सोते हुए स्वप्न देखते हैं। अपनी ही क्रियाओं की भीड़ में हम खो गए हैं। यही हमारे जीवन का आश्चर्यपूर्ण सत्य है। यही अपनी वस्तुस्थिति है। हम खो गए हैं- किन्हीं बाहरी लोगों की भीड़ में नहीं, बल्कि अपने ही विचारों, अपने ही स्वप्नों, अपनी ही व्यस्तताओं और अपनी ही क्रियाओं में। हम अपने आप में ही कहीं गुम हो गए हैं।

ध्यान-अपनी ही बनायी हुई इस भीड़ से बाहर होने का मार्ग है। खुद की काल्पनिक भटकन से उबरने का रास्ता है। अब यह रास्ता कोई क्रिया की व्यस्तता तो हो नहीं सकता। यह तो अव्यस्त या व्यस्तताहीन मनःस्थिति का नाम है। हालाँकि यह कहने में बड़ा अजीब सा लगता है कि ध्यान कोई कार्य या क्रिया नहीं है, बल्कि अक्रिया है। दरअसल इन्सान की भाषाएँ बड़ी कमजोर हैं। ये सभी तरह-तरह की क्रियाओं व कार्यों को प्रकट करने के लिए बनी हैं। इसी कारण ये आत्मा के सत्य को प्रकट करने में असमर्थ हो जाती हैं। ठीक भी है, जो वाणी के लिए बनायी गयी है, उनसे भला मौन को किस तरह अभिव्यक्ति मिल सकती है।

ध्यान- शब्द के उच्चारण से लगता है कि यह भी कोई क्रिया होगी। पर ऐसा है नहीं। यह तो एक भावदशा है। इस भावदशा में होना ध्यान है। इसमें क्रिया का कोई धुआँ नहीं होता, बस आत्म सत्ता की अग्निशिखा प्रकाशित रहती है। केवल मैं रह जाता है। यह विचार भी नहीं अंकुरित हो पाता कि मैं हूँ। ‘होना’ मात्र रह जाता है। यह निर्विचार शून्यता ही ध्यान है। यही वह बिन्दु है जहाँ से संसार की नहीं, सत्य का दर्शन होता है। इस शून्य में ही वह दीवार ढह जाती है, जिसकी वजह से अब तक अपने को नहीं जाना जा सका। इस भावदशा में विचारों के सभी पर्दे उठ जाते हैं, प्रज्ञा अपनी सम्पूर्णता में प्रकट होती है। इस अवस्था में विचारा नहीं, जाना जाता है। कल्पनाएँ और तर्क नहीं किए जाते, देखा जाता है। यह दर्शन और साक्षात्कार की भावभूमि है। यद्यपि सच्चाई तो यह है कि इस अवस्था को प्रकट करने में शब्दकोश के सारे शब्द असमर्थ हैं। क्योंकि यहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का कोई भेद नहीं है। यहाँ दृश्य और द्रष्ट का कोई भेद नहीं है। यहाँ न तो ज्ञेय है और न ज्ञाता। यहाँ तो बस ज्ञान है। यह अवस्था किसी शब्द से नहीं, बस मौन मुस्कान से प्रकट होती है।

ध्यान का सत्य हमारी किसी क्रिया में नहीं, बल्कि हमारे स्वभाव में है। क्रिया तो वह है जिसे हमारा मन हो तो करें, हमारा मन हो तो न करें। स्वभाव कोई क्रिया नहीं है। इसका हमारे करने या न करने से कोई सम्बन्ध नहीं है। स्वभाव की उपस्थिति हममें समायी है। वह हम स्वयं ही हैं। हमारा स्वरूप ही हमारा स्वभाव है। वह हमारा निर्माण नहीं, हमारा आधार है। वही हम हैं। स्वभाव यानि कि शुद्ध सत्ता। इसका अनुभव ही ध्यान है। यह अविच्छिन्न स्वभाव क्रियाओं के विच्छिन्न प्रवाह से ढंक जाता है, दब जाता है। सागर को जैसे लहरें ढाँप लेती हैं। सूरज को जैसे बदलियाँ घेर लेती हैं। ऐसे ही हम अपनी शारीरिक, मानसिक क्रियाओं से ढंके हुए हैं। सतह पर क्रियाओं के आवरण ने, गहराइयों में उपस्थित सत्य को छिपा लिया है।

छोटी-छोटी लहरें सागर की असीम गहराई को ओझल कर देती हैं। कैसा आश्चर्यजनक और विचित्र सत्य है कि क्षुद्रताओं से विराट् ढंक जाता है। आँख में यदि छोटा सा तिनका पड़ जाय, तो सामने खड़ा विशालकाय पर्वत भी नजर नहीं आता। हालाँकि यह मिटता नहीं है। इसकी उपस्थिति यथावत रहती है। सागर भी लहरों के कारण मिटता नहीं है। लहरों का प्राण भी तो वही है। लहरों में उसी की तो उपस्थिति है। जो जानते हैं, वे उसे लहरों में भी जानते हैं। जो नहीं जानते हैं, उन्हें लहरों के शान्त होने का इन्तजार करना पड़ता है। लहरों के शान्त होने पर सागर का असीम विस्तार व गहराई झलकने लगती है। ध्यान, इस स्वभाव में ही जीना है। लहरों को छोड़कर सागर में चलना है। अपनी उस गहराई को जानना है, जहाँ सत्ता है, सागर है, लेकिन कोई तरंग नहीं है। जहाँ आत्मा का प्रकाश तो है, पर वासना का अंधेरा नहीं है। वह निस्तरंग, निष्कम्प प्रज्ञा का जगत् हममें प्रतिक्षण उपस्थित है। बस हमीं उसकी ओर उन्मुख नहीं हैं।

हम अपनी रोज-मर्रा की क्रियाओं में, शारीरिक एवं मानसिक व्यस्तताओं में इस कदर उलझे हैं कि उस ओर देखने की फुर्सत ही नहीं निकाल पाते। हम बाहर की तरफ देख रहे हैं, वस्तुओं को देख रहे हैं, संसार को देख रहे हैं। इस सब में भी एक सच्चाई तो यह है कि हम देख रहे हैं। बस दिशा थोड़ी उलटी है। यह बात ठीक है कि जो दिखाई पड़ रहा है, वह संसार है। लेकिन जो देख रहा है, वह तो संसार नहीं है। वह तो स्वयं हम ही हैं। इस समूची प्रक्रिया में एक बात बड़ी सूक्ष्म है। इसे समझ लिया जाय तो सच्चाई सामने आ जाएगी। दृष्टि-दृश्य से बंधी हुई हो, तो विचार है। और यदि दृष्टि दृश्य से मुक्त हो, तो ध्यान है।

यह बात गहराई से समझने की है। देखना तो दोनों में है, एक में वह विषयगत है, दूसरे में आत्मगत है। हम विचार में हों या फिर ध्यान में, क्रिया में उलझे हों, या अक्रिया में शान्त हों, दर्शन दोनों में ही बना रहता है। जागते हुए हम संसार देखते हैं। सोते हुए सपने देखते हैं। समाधि में स्वयं को देखते हैं। लेकिन यह देखना हर दशा में बना रहता है। यह देखना हमसे हर स्थिति में जुड़ा हुआ है। यह हमारा अपना स्वभाव है। जो किसी भी स्थिति में हमसे अलग नहीं हो सकता। यहाँ तक कि मूर्छा या सुषुप्ति में भी नहीं। बेहोशी आ जाय, तो बेहोशी टूटने पर हम कहते हैं कि मैं कहाँ था, मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। इसे अज्ञानता नहीं कहा जाना चाहिए। यह भी एक तरह का ज्ञान है। यदि देखना या दर्शन बिल्कुल भी खत्म हो गया होता तो ‘मुझे कुछ भी पता नहीं है’- यह बोध भी सम्भव नहीं था। उस स्थिति में वह समय ही मेरे लिए ‘नहीं’ हो जाता, जो बेहोशी में बीता है। वह मेरे जीवन का हिस्सा नहीं होता। और यादों की पुस्तक में उसका कोई लेखन नहीं होता।

हम जानते हैं कि हम किसी ऐसी स्थिति में थे कि कुछ भी नहीं जान रहे थे। यह ज्ञान ही है, दर्शन इसमें भी रहा है। हाँ यादों की लेखनी ने इस बीच कोई आन्तरिक या बाहरी घटना का लेखन नहीं किया। परन्तु दर्शन ने इस अन्तराल को, इस गेप को देखा जरूर है। बाहरी या आन्तरिक घटनाओं के बीच छूटा यही रिक्त स्थान बाद में यादें भी खोज लेती हैं। ऐसे ही सुषुप्ति में भी, जब कोई सपना नहीं आता है, तब भी दर्शन बना रहता है। सुबह-सबेरे उठकर हम कहते हैं कि रात नींद बड़ी गहरी आयी। यह स्थिति भी देखी गयी है। तो सच्चाई यह है कि स्थितियाँ बदलती हैं। भाव दशाएँ परिवर्तित होती हैं। चेतना के विषय बदलते हैं, पर दर्शन में किसी भी तरह का कोई बदलाव नहीं आता है। हमारे अनुभव में सब का सब बदल जाता है। सारे प्रवाह के बीच एक यह दर्शन ही नित्य उपस्थित है। यही अकेला सारे परिवर्तन, सारे प्रवाह का साक्षी है, गवाही है। इस नित्य की अनुभूति ही, स्व का अनुभव है। यही अकेला स्वभाव है, बाकी सब तो दूसरों पर निर्भर है। यही बाकी सब संसार है।

इस साक्षी को किसी क्रिया से नहीं पाया जा सकता। क्योंकि यह तो उन क्रियाओं का भी साक्षी है। यह तो बस ध्यान की अक्रिया में झलकता है। यह तो तब प्रकट होता है, जब न तो कोई कर्म है, न कोई दृश्य है। जब केवल साक्षी मात्र ही शेष रह गया है। जब हम देख तो रहे हैं, पर दिखाई कुछ नहीं दे रहा है। जब हम जान तो रहे हैं, पर जान कुछ भी नहीं रहे हैं। इस विषय शून्य चैतन्य में वह जाना जाता है, जो कि सबको जानने वाला है। दृश्य जब नहीं है, तब द्रष्ट के आवरण गिरते हैं। और जब ज्ञेय कुछ भी नहीं है, तब ज्ञान जाग्रत् होता है। तरंगें जब नहीं होती हैं, तब सागर के दर्शन होते हैं। बदलियाँ जब नहीं होती हैं तो नीलाकाश के दर्शन होते हैं। यह सागर हर एक के भीतर है। यह आकाश प्रत्येक के भीतर है। ध्यान इसी को पाने, इस तक पहुँचने की राह है।

यहाँ समझने की बात यह है कि प्रत्येक राह दो दिशाओं में, दो विपरीत दिशाओं में सत्ता रखती है। जो मार्ग आपको घर से शान्तिकुञ्ज तक लाया है, वही आपको वापस घर भी पहुँचाने में समर्थ है। मार्ग तो वही होगा, पर दिशा विपरीत होगी। संसार और आत्मा का मार्ग तो एक ही है। जो संसार में लाता है, वही आत्मा की ओर भी ले जाएगा। केवल दिशा विपरीत होगी। अभी तक जो सामने था, वही अब पीछे होगा। और जो पीछे की ओर था उस पर आँखें जमानी होगी। रास्ता वही है, बस मुड़ने भर की देर है। संसार की वासना से उलटी दिशा में ध्यान की साधना है। हम अभी किसके सम्मुख हैं? इसका विचार करें। हम किसे देख रहे हैं? इसे अनुभव हैं। फेफड़ों के व्रण, मोटापा, पेट दरद, अतिसार, पेचिश, प्रदर, पित्तदोष, आँतरिक सूजन, मधुमेह, जुकाम, कब्ज आदि रोग उपवास से जल्दी ठीक हो जाते हैं। सही कहा जाए तो सारे रोगों की जड़ अत्यधिक एवं स्वाद के लिए किया गया अनियमित भोजन ही है। उपवास इसकी जड़ पर आघात करता है अर्थात् भोजन का निषेध करता है। जब रोग का कारण ही नहीं होगा, तो रोग कहाँ से पनपेगा।

चिकित्सकों के अनुसार यह रोग निवारण की सफलतम उपचार पद्धति है। इस संदर्भ में डॉ. वारनर मैकफेडन ने कई प्रकार के रोगों में उपवास का परीक्षण किया। उन्हें सर्वाधिक एवं त्वरित सफलता निमोनिया में मिली। उपवास के माध्यम से निमोनिया के रोगी शीघ्र ठीक हो गए। डॉ. एडवर्ड डूकर ने अंशकालिक उपवास के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट किया है कि इससे न केवल रोगों लाभ होता है वरन् यह नेत्र ज्योति, श्रवण शक्ति , घ्राणेंद्रियों की सुप्त क्षमताओं को भी उभारता है। इनके प्रायोगिक निष्कर्ष चमत्कारिक कहे जा सकते है। इस संदर्भ में डॉ. एडवर्ड कहते हैं कि रोगियों को उपवास की शुरुआत मैंने प्रातः के स्वल्पाहार को छुड़वाकर करवाई। इससे पुराने दमा तथा बवासीर जैसी बीमारी में काफी लाभ मिला। संभवतः इसलिए प्रसिद्ध आँग्ल उपन्यासकार आप्टन सिंक्लेयर ने भी उपवास चिकित्सा पर अपनी गहन आस्था व्यक्त की है। उनके अनुसार उपवास पूर्ण एवं स्थायी स्वास्थ्य का जन्मदाता है। आगे उन्होंने स्पष्ट किया है, अपने उपवास संबंधी ज्ञान को मैं संसार की सभी मूल्यवान वस्तुओं से भी अधिक कीमती समझता हूँ।

उपवास की प्रक्रिया से केवल शारीरिक स्वास्थ्य सुधरता है, ऐसी बात नहीं है। मनोविकारों के शमन के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। प्रायः सभी मनोविकार बड़े हठीले होते हैं। इनकी जड़ें मन की अतल गहराइयों में होती है। दवा जैसी वस्तुएँ इतनी कारगर नहीं हो पातीं, क्योंकि इनकी गहराई तक पहुँच नहीं है, जबकि कुछ विशिष्ट प्रकार के उपवास ऐसे होते है, जो इनकी जड़ों को सुखा देते हैं, और उत्पात मचाने वाले विषय−विकारों से आसानी से छुटकारा दिला देते हैं।

हल्के−फुल्के मनोविकार जैसे तनाव, उदारी, चिड़चिड़ापन आदि तो उपवास के द्वारा आसानी से दूर हो जाते हैं। इसके अलावा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि प्रबल मनोविकार भी विशिष्ट प्रकार के उपवास के माध्यम से क्रमशः क्षीण होते हैं। यदि उपवास आस्था एवं नियमपूर्वक निरंतर किया जाए, तो सभी विषय−वासनाओं से निश्चय ही मुक्ति पाई जा सकती है।

योग साधना के गंभीर रहस्यवेत्ता एवं मर्मज्ञों ने उपवास की इस विशेषता एवं महत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। उनके अनुसार यह अन्नमय कोश के परिष्कार के लिए सर्वोत्तम साधन है। शरीर में अत्यंत सूक्ष्म एवं पतली−पतली डोरियाँ आपस में लिपटी हुई होती हैं। शरीरशास्त्री इन्हें नाड़ी गुच्छक कहते हैं। योग विज्ञान में इन्हें उपत्यिकाओं के रूप में माना जाता है। यही अन्नमय कोश की बंधन ग्रंथिकाएँ हैं। ये बड़ी जटिल एवं उलझी हुई होती हैं। मौत का क्रूर हथौड़ा ही इन्हें खोल पाता है अन्यथा ये जीवन भर बँधी−उलझी हुई होती हैं और जीवन को उलझाती−नचाती रहती है, क्योंकि ये गुच्छक शरीर के गुण−दोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जिसके शरीर में अमाया वर्ग के गुच्छक पाए जाते हैं, वह व्यक्ति अत्यंत कठोर स्वभाव का होता है। वह हठधर्मी होता है, जिस चीज को करने के लिए ठान लेता है, उन्हें छोड़ता नहीं। इनकी प्रकृति दृढ़ एवं मजबूत होती है। कोई भी कुपथ्य इन्हें रुग्ण नहीं कर सकता, परंतु जब ये गुच्छक विकार ग्रस्त होते हैं तो इन पर किसी भी प्रकार का उपचार कामयाब नहीं होता। दीपिका जाति के गुच्छक के कारण चर्मरोग, फोड़ा, फुँसी, पीला पेशाब तथा उसमें जलन आदि रोग होते हैं। काम−वासना की प्रबलता पूषा उपत्यिकाओं का परिणाम है। मान्यता है कि कामदेव ने कुसुम बाणों से शिवजी की इन्हीं ग्रंथियों को उत्तेजित कर डाला था।

योग विज्ञानी 96 प्रकार की उपत्यिकाओं के बारे में जान सके हैं। अत्याधुनिक विज्ञान आज तक इस संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सका है। योगी ही इसके अविज्ञात रहस्य को अपनी साधना से भेद पाते हैं। इनके अनुसार यही शारीरिक एवं मानसिक रोगों के मूल कारण हैं। उपवास के माध्यम से इनका परिष्कार, परिमार्जन एवं सुसंतुलन बनाया जा सकता है। हालाँकि यह विद्या गहन, गंभीर एवं गुप्त है। विरले ही सही, पर अभी भी ऐसे योगी एवं तपस्वी ऋषि हैं, जिनको इस गूढ़ विज्ञान का साँगोपाँग ज्ञान है।

जिन्हें अनुभव है वे जानते हैं कि उपवास विशुद्धतः एवं वैज्ञानिक प्रक्रिया है। विशिष्ट समय में किए गए उपवास का परिणाम भी विशेष होता है। यह वैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य का प्रकृति से घनिष्ठ संबंध है। प्रकृति इसे प्रभावित करती है। इसी कारण शरीर में विद्यमान छह अग्नियाँ ऋतु परिवर्तन के अनुरूप घटती, बढ़ती एवं बदलती रहती हैं। उपवास से इनका नियमन एवं नियंत्रण होता है। इन ऋतुओं में विधि−विधान से किया गया उपवास बड़ा ही लाभदायक होता है। करवाचौथ का उपवास दाँपत्य प्रेम बढ़ाने वाला होता है। इस दिन नक्षत्र एवं चन्द्रमा के सम्यक् प्रभाव से वैवाहिक जीवन सुखी एवं उल्लासपूर्ण बन जाता है।

दिन विशेष का भी अपना महत्व होता है, इसलिए उस दिन उपवास रखने पर उसके प्रभाव एवं परिणाम का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सोमवार में चंद्रमा का विशेष प्रभाव होता है। अतः इस दिन के उपवास से उज्ज्वल भविष्य, कीर्ति, मान−प्रतिष्ठा आदि मिलती है। इस प्रकार मंगलवार दृढ़ता, कठोरता तथा बुधवार सौम्य, शिष्ट एवं कफ प्रधान होता है। गुरुवार का उपवास हृदय के परिष्कार−परिमार्जन के लिए सर्वोत्तम है। इससे श्रेष्ठ एवं पावन भावनाओं का विकास होता है। इसके अतिरिक्त विद्या, बुद्धि एवं धन लाभ भी होता है। शुक्रवार वात प्रधान है और शनि स्थिरता, सुखोपभोग एवं परिपुष्टि का अधिकारी है। इन दिनों का गुण उपवास करने वालों को अनायास मिल जाता है।

रविवार में सातों दिनों का समन्वित प्रभाव पड़ता है। इस दिन सातों ग्रहों की सम्मिलित शक्ति धरती पर उतरती है और यों भी सूर्य धरती और मनुष्य को अपने प्राणों से सींचता है। गायत्री महामंत्र का देवता भी यही है। अतः रविवार व्रत का बड़ा ही महत्त्व है। इस व्रत का सर्वप्रथम प्रभाव मन पर पड़ता है और मन ही जीवन का केन्द्र बिंदु है। लगातार नियमपूर्वक बारह रविवार के व्रत से मन पर आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा जा सकता है। यह एक दिव्य अनुभव है, जो इसे करके ही अनुभूत किया जा सकता है। इसके साथ द्वादश आदित्यों का गूढ़ मर्म भी छिपा हुआ है।

रविवार व्रत के कुछ सामान्य एवं सहज नियम हैं, जिन्हें आसानी के साथ निभाया जा सकता है। भोजन में नमक वर्जित है। दूध, फल आदि चीजों को दोपहर बारह बजे के पश्चात् एवं सूर्योदय के पूर्व तक लिया जा सकता है। चावल की खीर भी ग्रहण की जा सकती है। इस दिन श्वेत या पीले वस्त्रों के प्रयोग का विधान है। प्रातः उठकर पाँच से ग्यारह माला गायत्री मंत्र का जप करते हुए सूर्य की पवित्रता एवं प्रखरता का ध्यान अवश्य करना चाहिए। आस्था एवं श्रद्धापूर्वक किए गए ध्यान से जीवन में सूर्य के समान प्रखरता एवं तेज उत्पन्न होता है। उपवास के वैज्ञानिक लाभ भी मिलने लगते हैं।


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