‘युगद्रष्टा का जीवन दर्शन’ (वाङ्मय खंड-1,8,11) में उद्धृत है, “नारी की पीड़ा, व्यथा-वेदना को समझ सकना, गहराई से अनुभव कर लेना उसी के लिए संभव है, जिसने नारी का हृदय पाया हो।” उन्हीं के शब्दों में कहें तो पुरुष की तरह हमारी आकृति बनाई है, कोई चमड़ी उधेड़कर, फाड़कर देख सके तो भीतर माता का हृदय मिलेगा, जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरंतर गलते रहकर गंगा-यमुना बहाता रहता है। यह कथन इस संदर्भ में है कि हमारी गुरुसत्ता ने जीवनभर आधी जनशक्ति के उद्धार के लिए आवाज उठाई। उसे निरंतर जाग्रत् बनाए रखा एवं सही अर्थों में एक सशक्त नारी जागरण आँदोलन खड़ा कर परमवंदनीया माता जी के हाथ में सौंप दिया। उनने लिखा कि उसे भोग्या, रमणी, कामिनी की स्थिति से निकलकर पुरुष के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना एवं हर क्षेत्र में स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए। लेखनी के हर कोण से वे मातृशक्ति की अर्घ्य करते दिखाई देते हैं। चाहे वह उनका निरंतर अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण के लिए किया गया लेखन हो अथवा ‘महिला जाग्रति अभियान’ पत्रिका के लिए लिखे गए उनके मार्गदर्शन हों, सभी तरफ यही करुणा दिखाई देती है। उनके लिखे पत्रों में विशेष रूप से एक मार्गदर्शक शैली भी दृष्टिगोचर होती है, जो पत्र लेखन कला का एक विलक्षण नमूना है।
बदायूँ की कंती शर्मा को 4-12-1951 को एक पत्र में वे लिखते हैं
पुत्री कुँती, आशीर्वाद
तुम्हारा पत्र मिला। पढ़कर बड़ा दुःख हुआ। तुम्हारी जैसी लक्ष्मी महिला को पाकर जिन्हें अपना भाग्य सराहना चाहिए था, वे लोग इस प्रकार तिरस्कार करते हैं, यह उनके भाग्य की हीनता ही है। तुम इसे प्रारब्ध भोग मानकर अपने चित्त को समझा लो।
तुम विद्या पढ़ने में पूरा ध्यान दो। नारी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह होती है कि वह परावलंबी होती है। यदि वह स्वावलंबी हो जाए, तो तरह-तरह के तिरस्कार न सहने पड़ें। तुम विद्या पढ़कर स्वावलंबन प्राप्त करो, तभी तुम्हारी रोज की अशाँति का मार्ग मिलेगा।
पत्र स्वयं में बड़ा स्पष्ट है। वे कुँती बहन की इस दुर्दशा के लिए उन पुरुषों, घर के सदस्यों को भाग्यहीन बताते हैं, जिनके घर वह पिता का घर छोड़कर गई है। किसी भी बहू के लिए पिता से भी अधिक ममत्व भरा स्पर्श है एवं मार्गदर्शन है कि उसे क्या करना चाहिए? संभवतः उनकी दो पुत्रियाँ इसका कारण रही हों, जो ससुराल वाले न चाहते हों। वंश चलाने के लिए पत्र की चाह जो बड़ी प्रबल बनी रहती है। अब यह नारी के हाथ की बात तो है नहीं, पर इसी कारण न जाने कितनी नारियाँ त्रास-घुटन से जूझती रहती हैं, सतत पति व सास की प्रताड़ना सहती रहती हैं। बच्चा न हो, तो उसे अपमान झेलना होता है, भले ही दोष पति में ही हो एवं बच्चा हो व लड़की हो, तो भी उसे निरंतर उन्हीं बच्चियों के समक्ष सारी अपमानजनक टिप्पणियाँ सुनकर जीवन काटना पड़ता है।
30-8-54 को श्री सीताराम गुप्ता की पत्नी जिन्हें मुन्नी नाम से संबोधित किया गया है, एक पत्र में वह लिखते हैं
नाम का अंत, बुढ़ापे का सहारा, गृहस्थी की मालिकी इन बातों की आशा लोग संतानों से रखते हैं, पर आज के जमाने में जो संतानें होती हैं, उनसे कोई भी प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। माता-पिता को दुःख देना ही उनका काम होता है। तुम अपने आस-पास निगाह पसारकर देख सकती हो। निस्संतान होना, दुखिया होना नहीं है। आज के समय के एक अनेक झंझटों से निवृत्ति का बड़ा उत्तम सौभाग्य है।
निस्संतान इस महिला को कितनी बड़ी दिलासा दी गई है, साथ ही एक नई सोच भी दी गई है। समाज सुधारक स्तर पर जो अपनी युवावस्था से सक्रिय रहे हों। समाज सुधारक स्तर पर जो अपनी युवावस्था से ही सक्रिय रहे हों, उस जमाने के हिसाब से जिनके माध्यम से बड़े क्राँतिकारी कार्य हुए हों, उनने आशीर्वाद की भूल-भुलैया में इस बहन को न रखकर एक तरह से नया निर्णयात्मक दृष्टिकोण विकसित करने को कहा है। कन्या-पुत्र में भेद करना जहाँ एक अवाँछनीय कुरीति है, वहाँ बच्चा न होने पर तिरस्कृत करना भी समाज में एक कुरीति बन गई है। सुपात्रों से संतति के वरदान मिले, ऐसे ढेरों उदाहरण हमने देखे हैं, पर उन्हीं गुरुसत्ता के द्वारा नारी शक्ति को पत्र द्वारा, प्रत्यक्ष द्वारा मार्गदर्शन होते भी देखा है, जिसमें निस्संतान रहकर उनके द्वारा अधिक समाज सेवापरक कार्य संपन्न किया गया।
दैनंति जीवन के कष्टों से लेकर अन्य सभी संतापों में पूज्यवर सतत पितृवत् सलाह देकर अपनी शिष्या को हिम्मत दिया करते थे। ऐसा ही एक मार्गदर्शन इस पत्र में दृष्टिगोचर होता है-
प्रिय पुत्री काँती 30-1-57
आशीर्वाद
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे भाई और भतीजे का स्वर्गवास होने के समाचार से दुःख हुआ। ईश्वर की इच्छा प्रबल है। उसके आगे मनुष्य का वश नहीं चलता। यह सोचकर ही अब धैर्य, विवेक और संतोष से ही काम लेना चाहिए। तुम बुद्धिमान हो। उन लोगों के परिवार को धैर्य बाँधने और शोक को घटाने के लिए समझाने का प्रयत्न करना।
आज नहीं तो कल, हमारा-तुम्हारा भी यही होना है। सो मनुष्य शरीर को अलभ्य मानकर इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते रहने का प्रयत्न करना चाहिए।
इस पत्र की भाषा किसी भी पत्राचार करने वाले का मार्गदर्शन करती है। इसमें जो जीवन-दर्शन का शिक्षण दिया गया है, वह कितना उच्चस्तरीय है एवं किसी को भी इन शब्दों से उदात्त बल मिल सकता है। हमारे परमपूज्य गुरुदेव न केवल ऐसी परिस्थितियों में शब्दों से ‘हीलिंग‘ करते थे, परोक्ष रूप में अपनी शक्ति भी भेजते थे। विशेषतः अपनी बेटियों की ऐसी मनःस्थिति में, जबकि उन्हें विछोह की मानसिकता में गुजरना पड़ रहा हो। वे साधना संबंधी मार्गदर्शन भी पुरुष-महिला शिष्याओं को समान रूप में भेजते थे। उन मार्गदर्शन के साथ जो शब्दों को गुँथन रहा करता था, वह इतना विलक्षण होता था कि पढ़कर ऐसा लगता था मानो आसमान छू लें।
28-6-55 को लिखा एक पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
प्रिय पुत्री शकुँतला, आशीर्वाद
तुम्हारा पत्र मिला। अपने कुशल पत्र बराबर भेजती रहा करो। तुम हमें अपनी दया बेटी के समान प्रिय हो।
तुम्हारी आत्मा अत्यंत ही पवित्र है। तुम्हारे तप और पुण्य-प्रताप से एक-एक करके जीवन की सब कठिनाईयाँ हल होती चली जा रही हैं। अभी कुछ और बाधाएँ शेष हैं। तुम गायत्री माता का अचित् मजबूती से पकड़े रहोगी, तो वे आपनियाँ और सरल हो जाएँगी।
पत्र की भाषा से छलकती भाव संवेदना उन्हें पहले अपनी बेटी के समकक्ष बिठाती है, फिर उन्हें तप में संलग्न होने की प्रेरणा देती है। पत्र-लेखन की कला का विश्वकोश भी बनाया जाए, तो इतने सुँदर शब्दों का चयन उसमें नहीं मिलेगा।
मिशन से जुड़े परिजन माया वर्मा बहन से परिचित हैं। अब वे इस संसार में नहीं हैं, पर अपनी कृतियों से अमर हो गई हैं। उन्हें समय-समय पर लिखे पत्रों में से एक यहाँ उद्धृत है-
चि. माया, स्नेह 6-10-61
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हें सिरदर्द की व्यथा लग गई है, जिससे बड़ी चिंता है। तुम्हारी इस हँसने-खेलने की आयु में इस तरह की व्यथा का उठ खड़ा होना हमें बहुत कष्टकारक हो रहा है। इसके समाधान का शक्ति भर प्रयत्न करेंगे।
लोक मंगल के लिए समय का जितना अंश लग सके, उसी में सार्थकता है। तुम लेखन तथा अन्य कार्यों में जितना अधिक संभव हो, समय लगाती रहना। इससे तुम्हें बहुत आत्मशाँति मिलेगी। आशा है। परिस्थितियाँ अनुकूल होती चलेंगी।
तुम शाँत, निश्चित और स्थिर मनोभूमि को लेकर अपने गंतव्य पथ पर बढ़ती रहना। तुम्हें सुखी और समुन्नत बनाने के लिए हम शक्ति भर सहयोग देते रहेंगे। हमारा स्नेह-वात्सल्य और आत्मभाव तुम्हें सदा एवं नित्य मिलता रहेगा।
माया दीदी ने जीवन भर अपने आराध्य की गीता गाई, उनका मार्गदर्शन पाकर अपने कष्ट भुलाती रहीं एवं ढेरों भक्ति व क्राँति के गीत लिखकर दिए तथा मार्गदर्शन को सार्थक बना गई।
अंत में एक और पत्र का एक अंश उद्धृत करने का मन है, जो किसी अज्ञात साधक को उनकी पुत्री के संबंध में लिखा गया था। हमें नहीं ज्ञात वह बच्ची कहाँ है, पर द्रष्टा स्तर की सत्ता ने कुछ देखा एवं उसके पिता को 18-5-55 को कुछ यों लिखा-
यह कन्या मनु की पुत्री इड़ा है। यह आजीवन कुमारी रहेगी। इसके विवाह की चिंता तुम्हें नहीं करनी पड़ेगी। यह तप करके संसार का भारी कल्याण करेगी।
बिना किसी टिप्पणी के हम यही लिखकर लेखनी को विराम देते हैं कि नारी शक्ति को इक्कीसवीं सदी में उच्चतम स्थान पर पहुँचाने को संकल्पित गुरुसत्ता ने निरंतर उनके समग्र उत्कर्ष का प्रयास किया, आँदोलनों को गतिशील करके, मातृ शक्ति को नेतृत्व देकर एवं अपनी संवेदनासिक्त पाती से शब्दों का स्पर्श देकर। ऐसा सर्वांगपूर्ण स्वरूप बिरला ही देखने को मिलता है।