कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। वातावरण में शीतल, सुरभित, समीर संव्याप्त था। हृदय की सुकोमल भावनाएँ यदा-कदा उसके स्पर्श से संवेदित हो जाती थी। विचार तरंगें अनायास ही सामने लहरा रहे असीम विस्तार लिए महासागर की लहरों से होड़ करने में निमग्न थी। यदा-कदा उनमें पल दो पल के लिए नीरवता, निस्तब्धता, निस्पन्दता छा जाती। लेकिन अगले ही क्षण वे एक तेज उत्ताल उछाल गर्जन भरा हुँकार करने लगती। निरभ्र आकाश में चन्द्रदेव अपने पूर्ण सौंदर्य एवं सज-धज के साथ तारक वृन्दों से घिरे हुए विहार कर रहे थे। वे मानस की तरंगों एवं सागर की लहरों का सारा खेल बड़े ही मधुर अन्दाज से देख रहे थे। दोनों की ही स्थिति के प्रेरक वही थे। इस सुविदित तथ्य को भला कौन नहीं जानता कि पूर्णिमा का चन्द्रमा मनुष्य के मानस को और प्रकृति के सागर को उद्वेलित करता है।
इस सत्य से सुपरिचित वह सागर के तीर पर बैठा था। एक अन्तर अभीप्सा उसे यहाँ तक खींच लायी थी। कुछ आकर्षण था इस पुण्य क्षेत्र का उसके मन में। कई कारणों ने उसके मन को उत्प्रेरित, आकर्षित किया था। इन कारणों में एक कारण था, शास्त्रों, सद्ग्रन्थों, पुराणों व इतिवृत्त का गम्भीर अध्ययन। स्थान-स्थान पर उसने महर्षि अगस्त्य एवं उनकी इस दिव्य तपोभूमि की चर्चा पढ़ी थी। महातेजस्वी महर्षि से जुड़ी अनेकों कथाएँ, अनगिन किंवदंतियाँ प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में मुखरित एवं प्रचारित हैं। ऐसे महर्षि की तपःस्थली इस वेदपुरी को देखने की चाहत ने उसे यहाँ आने के लिए प्रेरित किया था।
एक अन्य कारण भी था, जिसका चुम्बकत्व उसके मानसिक स्पन्दनों में व्याप्त हुआ था। दिव्य जीवन के मंत्रद्रष्टा ऋषि अरविन्द इस कारण का केन्द्र थे। भारत देश के स्वातन्त्र्य काल में उन्होंने पाण्डिचेरी नाम से परिचित प्रख्यात इस वेदपुरी नाम के स्थान में दिव्य जीवन के अतिमानसिक महामंत्र की साधना की थी। कुछ ग्रन्थों में इस पुण्य क्षेत्र के बारे में कई किंवदंतियों का उल्लेख है। इन्हीं किंवदंतियों में एक बड़ी मधुर कथा है। ऋषि अगस्त्य की तप साधना के बहुत काल बाद वेदपुरी परमात्मा के मन्दिरों का नगर बन गया। बाद में किसी प्राकृतिक कारण वश इस नगर का अधिकाँश भाग महासागर में डूब गया। कथा के आगे के अंश की कल्पना अतिविचित्र है। कथाकार का कहना है कि उस सागर में डूबे उन मंदिरों की घंटियाँ आज भी बजती रहती हैं। केवल सन्नाटी रातों में उन्हें सुना जा सकता है। कथाकार कहता है, शायद पानी के धक्के उन्हें बजा देते होंगे। या फिर यहाँ-वहाँ भागती मछलियों से टकराकर वे बजती होंगी। जो भी हो किंवदंती यही कहती है, घंटियां आज भी बजती हैं। और आज भी उनके मधुर संगीत को सागर के तट पर सन्नाटी रात में बैठकर सुना जा सकता है।
उसके युवा मन में भी एक कौतूहल था। वह भी उस संगीत को सुनना चाहता था। पुस्तकों में छपी इस दन्त कथा को पढ़कर आज वह भी सागर के किनारे बैठा हुआ था। शाम से रात हो आयी थी। किन्तु यहाँ तो सागर का तुमुलनाद गूँज रहा था- लहरों के थपेड़े चट्टानों से टकराकर उस एकान्त में अनन्त गुना प्रतिध्वनित हो रहे थे। न तो वहाँ कोई संगीत था, न किन्हीं मन्दिरों में बजती कोई घण्टियाँ थी। उसे सागर तट पर बहुतेरा कान लगाकर सुनने की कोशिश की, लेकिन वहाँ तो तट पर टूटती लहरों की ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी न था।
फिर भी कुछ हठवश, कुछ उत्सुकतावश वह रुका रहा। रुकने का एक अन्य कारण कार्तिक मास की पूर्णिमा की शुभ्र ज्योत्सना की सम्मोहक छटा भी थी। पूर्णिमा के चाँद को जिसने सागर की लहरों पर ढेर की ढेर चाँदनी उड़ेलते देखा है, वही इसकी सुकल्पना कर सकता है। बड़ी ही मधुर छटा होती है यह। चन्द्रमा अपनी मंजुल कर किरणों से ढेर की ढेर चाँदनी लुटाता है और महासागर अपनी लहरों के अनगिन हाथ पसार कर उसे संजोता है। चन्द्रमा की चन्द्रिका वृष्टि को लहरोँ के हाथ उठा-उठा कर लपकने की यह क्रीड़ा बड़ी दर्शनीय और अवर्णनीय है। इसे निहारते हुए कब कितनी रात बीत गयी, पता ही न चला।
फिर इस प्राकृतिक क्रीड़ा में उलझे हुए मन का व्यर्थ समय गंवाने का पछतावा हुआ। पश्चाताप के इन्हीं क्षणों में उस यात्री को अपने गुरुदेव स्मरण हो आए। उनके स्मरण से मन की चिन्तन धारा उन्हीं के श्रीचरणों की ओर मुड़ चली। मन की लहरों, उसके स्पन्दनों का संवेग थमने लगा। कुछ ऐसा ही जादू था इस भक्तिपूर्ण स्मरण में। आन्दोलित, उद्वेलित, संवेगित मन- निस्पन्द, नीरव, अचंचल होने लगा। अन्तर की हलचलें शान्त होते ही बाहर की हलचलों का श्रवण भी मन्द पड़ गया। तभी अचानक कुछ ऐसा हुआ कि लगने लगा कि डूबे हुए मन्दिरों की घंटियां बज रही हैं। और उनका मधुर संगीत प्राणों को आन्दोलित करने लगा।
न जाने कैसी बात थी यह, पर थी और सच थी। उस संगीत को सुनकर अन्तर्चेतना में अपूर्व जागरण हुआ। सारी थकान और खुमारी पता नहीं कहाँ गायब हो गयी। निद्रा तो जैसे कहीं थी ही नहीं। लगा कि भीतर अब तक बहुत कुछ सोया हुआ था, लेकिन अब जाग रहा है। निरन्तर बज रही घंटियों की सुमधुर ध्वनि देह को नहीं चेतना को जगा रही हैं। अर्द्ध निशा के आस-पास यह बड़ी अटपटी प्रभाती बेला थी। इसे कोई कितना भी अविश्वसनीय कहे, काल्पनिक बताये, पर यह तो अनुभव किया हुआ सच है। प्राणों को संवेदित करने वाले इस संगीत से रोम-रोम निनादित हो उठा।
आसमान का चाँद कहीं अन्दर उतर गया। प्राणों में, अस्तित्व के कण-कण में आलोक भर गया। बड़ी प्यारी अवस्था हो गयी, न निद्रा, न अन्धकार। अचानक यह न जाने कैसी आनन्द वृष्टि हो गयी। लगा कि पूरा अस्तित्व आनन्द से घिरा है। सब ओर आनन्दमयता छायी हुई है। ठीक भी है। जहाँ परमात्मा के मन्दिर का संगीत है, वहाँ दुःख कहाँ? भाव समाधि जैसे इस अनुभव में रात्रि व्यतीत हो गयी। समूचे यात्रा काल में इसकी मधुर गूँज बनी रही। यह सब गूँगे के गुड़ जैसा था। इसके अपरिमित स्वाद के विषय में, वाणी बताने में असमर्थ थी, और मन सोचने, समझने में असहाय था।
बाद में गुरु चरणों की कृपा से पता चला वे तो अनाहद् के स्वर थे। प्रबोध देते हुए गुरुदेव ने कहा- प्राचीन वेदपुरी में परमात्मा के मन्दिरों के सागर में डूबने की कथा पता नहीं कितनी सच है, कौन जाने। अगर यह कभी किसी काल का सत्य रहा भी हो, तो भी अब उसके डूबे हुए मन्दिरों की घण्टियों को सुनने-सुनाने की बात निरी दिवा स्वप्न है, एक काल्पनिक चेष्टा है। ऐसी उलझनों में उलझने से कोई फायदा नहीं है। रात भर जगकर घंटियों की आवाज को सुनने की मूर्खता में बैठे रहना बेकार है, अर्थहीन है। ऐसे प्रयास निरर्थक है।
हाँ, यदि तुम उस सागर के किनारे चलना चाहते हो, जहाँ तुम्हें तुममें से प्रत्येक को परमात्मा के डूबे हुए मन्दिर का संगीत सुनायी पड़ेगा। तो चलो। स्वयं के भीतर चलो। स्वयं की हृदय ही वह सागर है और उसकी गहराइयों में परमात्मा के डूबे हुए मन्दिरों का नगर है। लेकिन उसके मन्दिरों का संगीत सुनने में केवल वे ही समर्थ होते हैं, जो सब भाँति शान्त और शून्य हो पाते हैं। विचार और भावना का कोलाहल जहाँ है, वहाँ उसका संगीत कैसे सुनाई पड़ेगा? यह समस्त कोलाहल इधर-उधर भटकने से शान्त हो जाने की बजाय थोड़ा ज्यादा ही बढ़ जाता है। कभी-कभी व्यर्थ के एकान्त की तलाश में भटकने से इसके शान्त होने की भ्रान्ति जरूर होती है। पर यथार्थ में स्वयं को कुछ खास मानने का अहंकार ही बढ़ता है।
हृदय सागर में डूबे हुए परमात्मा के मन्दिरों के अतिप्राकृतिक संगीत ध्वनि सुनने के लिए गुरु स्मरण, गुरु निष्ठ चाहिए। क्योंकि यही गुरुकृपा के अवतरित होने का आधार है। सत्य-अनुभव के इस कथानक में नाम, रूप और स्थान के मिथ्या नामों की तलाश मत कीजिए। क्योंकि व्यक्ति कोई भी हो और स्थान कहीं भी हो, वह सब क्षण भंगुर है। शाश्वत तो भाव सत्य है। जो आपका अपना और निजी है। इसकी अनुभूति आप जब चाहें, जहाँ चाहें अपने हृदय-सागर के किनारे जीवन मास आत्म चन्द्र की पूर्णिमा की ज्योत्सना की छाँव में बैठाकर कर सकते हैं।