स्वयं को मारकर मिलता है निर्वाण

July 2002

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जेतवन के आम्रकुञ्ज में भगवान तथागत ध्यानस्थ थे। ध्यानस्थ अवस्था में भगवान का मंजुल सौंदर्य और भी मुखर हो उठा था। सुहानी प्रभात बेला इसमें और भी अभिवृद्धि करने के लिए भगवान के समीप आ जुटी थी। महादानी भुवन भास्कर अपनी सहस्र किरणों से भगवान के ऊपर सुवर्ण लुटाते हुए आकाश के आँगन में बढ़ आए थे। समूची प्रकृति ध्यानलीन महाबुद्ध की महिमा का गान कर रही थी। आम्रवन में पक्षियों के कलरव की मधुर गूँज प्रकृति के स्वरों को संगीत में सजाने के प्रयास में लीन थी। सब ओर महाबुद्ध के मंगलमय रूप की प्रभा बिखरी थी। अकेला आम्रकुञ्ज ही नहीं समूचे जेतवन के पूरे परिक्षेत्र में ध्यानस्थ भगवान का दिव्य आलोक छाया हुआ था।

भगवान से कुछ दूर बैठे हुए भिक्षुगण शास्ता के ध्यानोन्मीलन की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें प्रतीक्षा थी कि कब प्रभु नेत्र खोलें और कब वे सब उन्हें प्रणाम निवेदित करें। महाकाश्यप, मौद्ग्लायन, रेवत आदि सिद्ध साधकों के साथ नव भिक्षुदल के सभी सदस्य भगवान की वाणी को सुनने की त्वरा में थे। इस सबके साथ आज एक नए सदस्य लवकुँठक भद्दीय स्थविर की भी उपस्थिति थी। आयु में अल्पवयस होने के बावजूद लवकुँठक की साधना अत्यन्त गहन थी। मितभाषी, सेवाभावी, ध्यान परायण लवकुँठक सभी की प्रीति का केन्द्र था। महाकाश्यप एवं रेवत आदि सिद्धजन उस पर अपना हृदय उड़ेलते थे। भिक्षुसंघ के नए सदस्य उस पर अपनापन लुटाते थे।

लवकुँठक पिछले कुछ दिनों से प्रव्रज्या के लिए गया हुआ था। अभी कल ही रात्रि को वापस लौटा था। इन बीच के कुछ दिनों में वह कहाँ रहा, उसने क्या किया, किसी को भी पता नहीं था। हाँ, वापस लौटने के बाद से वह कुछ अधिक शान्त हो गया था। साथी भिक्षुओं ने आने पर रात्रि में थोड़ा-बहुत कुरेदने की कोशिश की, परन्तु बाद में उसे थका हुआ जानकर छोड़ दिया। लवकुँठक भी अपनी स्थिति पर मौन ही रहा। किसी की भी जिज्ञासा के उत्तर में उसने कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं समझी। हालाँकि साथियों को उसका यह मौन बड़ा ही रहस्यमय लगा। पर किसी ने ज्यादा कुछ नहीं कहा। सभी को प्रातः की प्रतीक्षा थी। हर कोई सोच रहा था कि प्रणाम के समय शास्ता अवश्य ही रहस्योन्मीलन करेंगे।

सभी भिक्षुओं के इन फंसते-उलझते, बनते-बुनते विचार तन्तुओं के पार और परे भगवान आसीन थे। उन्होंने धीरे-धीरे अपने नेत्र उन्मीलित किए। उनके उन्मीलित नेत्रों से करुणा और कृपा की धार सब पर बरस पड़ी। सभी अपने शास्ता को प्रणाम करने लगे। महाकाश्यप, रेवत, मौदग्लायन प्रणाम करके प्रभु के पास ही बैठ गए। अन्य भिक्षुओं के साथ लवकुँठक ने भी प्रणाम किया। लवकुँठक के प्रणाम करते ही भगवान बोले- भिक्षुओं, देखते हो इस भाग्यशाली भिक्षु को? यह माता-पिता को मारकर दुःख रहित होकर आ रहा है।

भगवान की वाणी सुनकर महाकाश्यप मुस्कराए। जबकि अन्य भिक्षु चौंके। उन्हें एक बारगी तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे चौंक कर एक-दूसरे का मुख देखने लगे कि भगवान ने यह क्या कहा? ‘माता-पिता को मारकर दुःख रहित होकर आ रहा है, इस भाग्यशाली भिक्षु को देखो।’ उन्हें तो अपने कानों पर भरोसा ही नहीं हुआ। वे सोचने लगे, माता-पिता की हत्या से बड़ा तो कोई और पाप नहीं है। भगवान यह क्या कहते हैं? कहीं कुछ चूक है। या तो हम सुनने में चूक गए या फिर भगवान कहने में चूक गए हैं। माता-पिता के हत्यारे को भाग्यशाली कहना, भला यह बात हुई?

महाकाश्यप, रेवत, मौद्ग्लायन को छोड़कर अन्य सभी के सन्देह और विभ्रम गाढ़े हो गए। ये तीनों सिद्धजन शास्ता की बातें सुनकर मुस्करा रहे थे। स्वयं लवकुँठक मौन था। उसके लिए तो भगवान का हर शब्द उनका कृपाशीष था। अन्य भिक्षुओं से तो रहा ही नहीं गया। उन्होंने तो भगवान से पूछ ही लिया- आप यह क्या कह रहे हैं प्रभु? ऐसी बात न तो आँखों देखी और न ही कानों सुनी।

भगवान तब विंहसे और कहने लगे- अरे बात इतनी ही नहीं है। इस अपूर्व भिक्षु ने और भी हत्याएँ की हैं। और बड़ी सफलता से की है, बड़ी कुशलता से की है। मैं तो कहता हूँ हत्या करने में इसका कोई सानी नहीं है। भिक्षुओं तुम भी इससे कुछ सीख लो। तुम भी इस जैसे बनो तो तुम भी दुखःसागर के पार हो जाओगे। भिक्षुओं ने कहा- आप क्या कहते हैं, भगवान? लेकिन तथागत तो जैसे आज रहस्य को और भी गहरा, घना और गाढ़ा करने में तुले थे। उन्होंने सभी को चकित करते हुए ये गाथाएँ कही-

मातरं पितरं हंत्वा राजानो द्वे च खत्तिये। रट्ठ सानुचरं हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो॥ मातरं पितरं हंत्वा राजानो द्वे च सोत्थिये। वेय्यग्घपञ्चमं हंत्वा अनीघो याति ब्राह्मणो॥

भगवान द्वारा कही गयी इन धम्म गाथाओं ने सभी को और उलझा दिया। सारे भिक्षुओं की बुद्धि चकित और स्तब्ध थी। सब के सब हैरत से हैरान थे। भिक्षुओं को इस तरह उलझन में फंसे देखकर महाबुद्ध की करुणा उमड़ आयी। उन्होंने महाकाश्यप से इन धम्म गाथाओं के गूढ़ अर्थ को प्रकट करने का संकेत किया। शास्ता का संकेत पाकर सबसे पहले महाकाश्यप ने उनके चरणों में सिर नवाया। फिर उपस्थित सभी जनों को बुद्धवाणी के मर्म को प्रकट करने लगे।

उन्होंने कहा- भिक्षुओं! माता-तृष्णा है, पिता अहंकार है। इन्हीं के कारण जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसता है। इन्हें मारने वाले का जन्म-मरण के दुःख से छूटना निश्चित है। सभी भिक्षु इस गुह्य अर्थ को सुनकर अवाक् थे। महाकाश्यप निर्विघ्न भाव से अपने शास्ता की वाणी को अर्थ दे रहे थे- दो क्षत्रिय राजा आस्तिकता और नास्तिकता के मत वाद हैं। सारे शास्त्रीय सिद्धान्त इनके अनुचर हैं। ये किसी न किसी तरह से जीव को अपने शासन में रखते हैं। जो इन्हें मारता है, वह स्वतंत्र होता है। आसक्तियों सहित अपने भीतर का संसार ही राष्ट्र है, जो इसे मारता है वह सभी सीमा बन्धनों से छुटकारा पाता है।

उपस्थित भिक्षु जन अभी कुछ और कह पाते कि उन्हें सम्बोधित करते हुए महाकाश्यप ने कहा- भिक्षुओं! व्याघ्र पंचम, अपनी ही पाँच इन्द्रियाँ हैं। इन पंच इन्द्रियों की वासनाओं को, इनकी तन्मात्राओं की आसक्ति को जो मारता है, वह व्याघ्रपंचम को मारने वाला है। जिसने इन सभी को एक साथ मारने की सफलता प्राप्त की, समझो उसकी महामृत्यु हो गयी। उसने अपनी भी हत्या कर ली। उसे निर्वाण प्राप्त हो गया। भन्ते लवकुँठक भद्दीय स्थविर को यही महामृत्यु प्राप्त हुई है। पहले उन्होंने अपनी ध्यान साधना से उपजे बोधि के दिव्यास्त्र से एक-एक करके सबको मारा। और अन्त में उन्होंने स्वयं को भी मारने में सफलता प्राप्त की। अब वह निर्वाण को उपलब्ध हो चुके हैं।

भिक्षुसंघ शास्ता के रहस्यमय वचनों की इस अपूर्व व्याख्या को सुनकर सम्बोधि चेतना की छुअन को अनुभव करने लगा था। महाकाश्यप सभी के लिए सदा से श्रद्धास्पद थे। सब को यह विश्वास था कि भगवान की अन्तर्चेतना में महाकाश्यप की अन्तर्चेतना समर्पित, विसर्जित एवं विलीन हो चुकी है। महाकाश्यप अद्भुत एवं अपूर्व शिष्य हैं। शास्ता तो परम गुरु हैं ही। आज सभी को शिष्य एवं गुरु के इस अनोखे अन्तर्मिलन का प्रमाण मिल गया। सबके सब महाबुद्ध के वचनों पर ध्यानस्थ होने का प्रयास कर रहे थे। भगवान की धम्मगाथाएँ सब के लिए राह प्रकाशित कर रही थी। यह वही राह थी जिस पर अभी-अभी लवकुँठक भद्दीय स्थविर चल कर आए थे। महाकाश्यप जिस पर काफी पहले चल चुके थे। धम्म सन्देश देने वाला आज का प्रभात सभी के लिए मंगल पर्व बन गया। सभी के मन-प्राण, अन्तर्भावनाओं में इन धम्म गाथाओं के निदिध्यासन का सूर्य प्रकाशित होने लगा। जीवन में हर्ष की हिलोरें उठने लगी।


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