देखने वाला थोड़ा चौंका। उसने सोचा, यह तो सम्भव नहीं है। भला कहीं ऐसा भी हो सकता है। जरूर यह मेरी आँखों का धोखा है। देखने वाला तेज गति से भागी जा रही अपनी कार पर बैठा हुआ था। एकदम चमचम करती हुई विदेशी मॉडल की बड़ी गाड़ी थी। वह कार वैभव के उत्कर्ष का प्रतीक लग रही थी। उसमें बैठने वाला व्यक्ति भी वैभव का प्रेमी लगता है। बनारस की सड़कों पर जब वह अपनी इस विदेशी कार में बैठकर पूरी शान से निकलता तो सड़क पर चलने वालों की नजरें बरबस उसकी इस शानो शौकत पर ठहर जातीं। पर आज तो कुछ उलटा ही हुआ। उसकी स्वयं की नजरें ही कहीं ठहर गयी थीं।
उसने अपने ड्राइवर से कहा, गाड़ी को थोड़ा पीछे ले लो। और सड़क के किनारे पर रिक्शे पर बैठे हुए जो बाबू जी जा रहे हैं, उनके पास गाड़ी रोक दो। ड्राइवर इस अचानक आदेश पर थोड़ा अचकचाया तो सही, पर आज्ञा के मुताबिक गाड़ी पीछे ले ली। थोड़ी ही देर बाद चमचम करती हुई वह विदेशी कार उस साधारण से पुराने रिक्शे के पास जाकर खड़ी हो गयी। कार में बैठे हुए सज्जन अपनी उस चमचमाती गाड़ी से बाहर निकले और रिक्शे पर बैठे हुए एक प्रौढ़ आयु के व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए बोले- आचार्य जी आप! उसके इस सम्बोधन में सम्मान मिश्रित आश्चर्य था।
जिन्हें उसने आचार्य जी कहा था, वह थोड़ा मुस्कराए। साथ ही प्रश्न के उत्तर में सहज ही प्रतिप्रश्न किया- हाँ भाई मैं क्यों नहीं? पर जहाँ तक मुझे मालूम है, आप इन दिनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। विश्वविद्यालय की ओर से आपको एक नयी कार मिली हुई है। ऐसे में आप एक पुराने से रिक्शे में बैठकर जा रहे हैं। भला यह कहीं आपको शोभा देता है? लोग क्या सोचेंगे? अरे भई, इतने सारे सवाल एक साथ। रिक्शे में बैठे हुए सज्जन हंसते हुए बोले, चलिए मैं आपके प्रश्नों का समाधान कर देता हूँ। पहली बात यह कि मैं महामना मालवीय जैसे ब्रह्मर्षि द्वारा स्थापित किए गए विश्वविद्यालय का कुलपति हूँ। मुझ पर उनके ऋषि चिन्तन के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी है। सादगी व संयम के ऋषि आदर्श को निभाना मेरा दायित्व है। इसलिए मुझे यही शोभा देता है। रही बात लोगों के सोचने की, सो उनमें से जो विचारशील होंगे, सो ठीक ही सोचेंगे। और विचारहीनों की कभी परवाह नहीं की जानी चाहिए।
पर.....। पूछने वाला कोई नया सवाल पूछ पाता, इससे पहले आचार्य जी कहने लगे, परेशान मत होइए मैं सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर दूँगा। आप जिस नयी कार की बात कह रहे हैं। यह ठीक है कि मुझे मिली है। पर मैंने उसका अतिथियों को लाने-ले जाने के लिए उपयोग करने का निश्चय किया है। लोग मुझे यानि कि आचार्य नरेन्द्र देव को एक समाजवादी चिन्तक के रूप में भी जानते हैं। समाजवादी वह है जिसकी जीवन दशा में सामाजिक दशा की झलक मिलती है। ऐसे में भला मैं ठाठ-बाठ किस तरह से बना सकता हूँ।
आचार्य नरेन्द्र देव जी कार वाले सज्जन को अपने जीवन के सत्य से अवगत करा रहे थे। उन्होंने कहा- किसी भी आचार्य का वैभव तप और विद्या है। फिर मैं तो कुलपति यानि की आचार्य कुल का मुखिया हूँ, उस पर इस आचार्य कुल यानि कि विश्वविद्यालय की स्थापना महामना जैसे महान् ऋषि ने की है। इतना ही नहीं मैं अपने को समाजवादी भी कहता और मानता हूँ। इस कारण मुझ पर एक साथ अनेक आदर्शों को निभाने की जिम्मेदारी है। इसलिए मेरे लिए कार नहीं रिक्शा ही ठीक है।
सुनने वाला नतमस्तक हो गया। हालाँकि वह आचार्य जी के साहित्य व विचारों से पहले से ही परिचित था। पर आज उनके विचारों की इस जीवन्तता को अनुभव करके उसे ऐसा लगा कि किसी महर्षि से मिलन हुआ है। उसने बड़े ही श्रद्धा भाव से उनके चरण छुए और अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा।