चेतना की शिखर यात्रा

July 2002

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हिमालय हमारा घर

गुफा के द्वार पर पिताश्री ने आवाज लगाई। भीतर से कोई जवाब नहीं आया। गुफा की दीवारों से टकराकर आवाज वापस लौट आई। मशाल जलाकर गुफा के भीतर तलाशने का निश्चय किया गया। करीब बारह मीटर लंबी आड़ी-टेड़ी गुफा के अंदर तक तलाश किया। श्रीराम का ठिकाना नहीं था। हारकर सब लोग वापस लौट आए। घर पर ताई जी ने रो-रोकर बुरा हाल बना लिया था। ढूँढ़-खोज चलती रही। अगला दिन शुरू हुआ। करीब सात बजे ताई जी के मायके सहपऊ (मथुरा) से एक संबंधी आए। उनका नाम रुकमणी प्रसाद था और गाँव के रिश्ते से वे ताई के चाचा लगते थे। वे रात को ही आए थे, लेकिन उस क्षेत्र की रीति के अनुसार बहिन-बेटी के घर नहीं रुका जाता है और न ही अन्न-जल ग्रहण किया जाता है, इसलिए वे गाँव के बाहर एक मंदिर में ही ठहर गए थे।

भतीजी के यहाँ पहुँचे तो कोहराम मचा देखा। कारण मालूम हुआ कि कुलदीपक कल से लापता है। रुकमणी प्रसाद जी को ध्यान आया। रास्ते में उन्हें दस-बारह साल का एक बच्चा दिखाई दिया था। पूछा भी था कि बच्चे कहाँ जा रहे हो, तो उसने सहज भाव से उत्तर दिया था हिमालय। उत्तर सुनकर रुकमणी जी हँस दिए थे। उनके मुँह से बरबस निकल आया था, नटखट कहीं का। उत्तर पर हँसी इसलिए आई थी कि हिमालय आस-पास तो है नहीं। पर्वत के नाम पर लोगों को सिर्फ गोवर्धन की जानकारी है, वह भी कम-से-कम चालीस मील दूर है। आँवलखेड़ा आकर पता चला कि वह बच्चा उसके गाँव की बेटी का ही चिरंजीव है।

रास्ते में श्रीराम के मिलने की सूचना पाकर पिताश्री और घर के कुछ अन्य पुरुष जैसे थे, उसी हालत में चल दिए। रुकमणी जी उनके साथ उस जगह ले पहुँचे, जहाँ श्रीराम रास्ते में मिले थे। उस जगह होने का कोई सवाल ही ही नहीं था। उसी रास्ते पर तीन-चार मील आगे गए। वहाँ एक झील के किनारे बने शिवालय में श्रीराम ध्यानस्थ बैठे दिखाई दिए। देखकर जैसे साँस में साँस आई। पिताश्री ने ध्यान पूरा होने तक प्रतीक्षा की और आसन से उठते ही पुत्र को कसकर भींच लिया। यह क्या तुम्हारे जाने की उम्र है? बिना बताए क्यों चले आए? माता-पिता का जी दुःखाकर भगवान को पाना क्या धर्म है? इस तरह के कितने ही प्रश्न पूछते हुए उन्होंने अपने बेटे के सिर पर गंगा-जमुना बहा दी।

ताई जी का सामना और कठिन था। पिता ने तो रो-धोकर अपने आपको समझा लिया। ताई जी रोते-विलाप करते विक्षिप्त-सी हो गई थीं। बेटे को देखकर जोरों से रुलाई फूट पड़ी। उनके विलाप में श्रीराम के जन्म-समय आने वाले साधु-संन्यासियों, स्वप्नों, भविष्यवाणियों और पूजा-पाठ आदि सभी कुछ लपेट में आ गए। हर किसी को उन्होंने जमकर कोसा, जो उनके हिसाब से श्रीराम में तप और साधना की प्रेरणा के लिए जिम्मेदार था। पुत्र ने माँ को समझाने की कोशिश की, कहा कि साधु-महात्माओं को मत कोसिए। अपने द्वारिकाधीश को मत कोसिए। आपका जी मेरे कारण दुखी हुआ है। आप मुझे कोसिए।

माँ को हुए कष्ट के लिए अपने उत्तरदायी ठहराने के बाद ताई जी का रुदन कुछ थमा। कुछ क्षण वे चुप रहीं। फिर रुँधे हुए कंठ से बोलीं, तुमने मुझे कष्ट दिया है न? अगर मानते, हो तो मुझे एक वचन दो। बालक श्रीराम आगे की बात सुनने के लिए टकटकी लगाकर देखने लगे। ताई जी ने कहा, “मुझे छोड़कर साधु-संन्यासी बनने की बात कभी नहीं सोचोगे। तुम हिमालय की आत्मा हो, तो हो। मेरे जीवित रहने तक सिर्फ श्रीराम हो। मेरे सामने हिमालय में बस जाने की बात कभी मत सोचना। मेरे बाद चाहे जहाँ रहना।” ताई जी जैसे एक-एक वाक्य सोच-समझकर कह रही थीं। श्रीराम ने भी एक-एक शब्द को गौर से सुना और कहा, “हाँ ताई, मैं हमेशा आपके साथ रहूँगा। ब्रजक्षेत्र को छोड़कर भी नहीं जाऊँगा, क्योंकि आपको ठाकुर जी का घर बहुत भाता है न।”

लाड़ले का यह आश्वासन या वचन सुनकर ताई जी तुरंत शाँत हो गई। उनकी शाँति में यह दृढ़ विश्वास भी था कि बेटे ने जो कह दिया है, उसका अक्षरशः पालन करेगा, क्योंकि वह वचन का पक्का है। वह दिन हवेली में उत्सव की तरह मनाया गया। माँ परम आश्वस्त थीं कि उनका दुलारा अब कभी उनसे नहीं बिछुड़ेगा। काम-काज के लिए अथवा किसी और प्रयोजन से प्रवास पर जाना पड़े, वह बात अलग है। वह विछोह की श्रेणी में नहीं आता। ताई जी की आस्था और अपेक्षा पुत्र को अपनी गृहस्थी की, अस्तित्व की छाया में ही रखने की थी। श्रीराम ने उस आस्था के निर्वाह का वचन दे दिया।

हिमालय को अपना घर बताते हुए निकल जाने और वापस लौट आने के बाद शिक्षा-दीक्षा फिर पहले की तरह चलने लगी। अब पिताश्री ने भी ध्यान देना शूर किया। चार-छह महीने में उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी हो जानी थी। सावधानी के तौर पर यह जरूरी समझा गया कि बालक को आगे पढ़ने के लिए गाँव से बाहर नहीं भेजा जाए। पिताश्री भागवत के विद्वान थे ही। उन्होंने ‘लघु सिद्धाँत कौमुदी’ पढ़ाई, फिर ‘मध्य’ और ‘सिद्धाँत कौमुदी’ पढ़ाई। प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के बाद और समय मिलने लगा। भागवत, रामायण और महाभारत के बाद, आर्षग्रंथों में भी अच्छी गति होने लगी। पिताश्री को आभास होने लगा था कि उनकी इहलीला पूरी होने वाली है। गुरुजी की पाठशाला छूटने के बाद उन्होंने पुत्र से कह दिया था कि दो साल तक सब कुछ भुलाकर विद्या ग्रहण करो। उनके मन में संभवतः विरासत के रूप में भागवत दे जाने की बात रही होगी। शायद सोचा होगा कि पुत्र भी उनकी ही तरह भागवत का उपदेश करे। इस शास्त्र से आरंभ कराने के पीछे दूसरा कोई आशय रहा हो, तो अनुमान ही लगाया जा सकता हैँ।

विद्या का वितरण

पं. रूपराम की पाठशाला में पढ़ लेने और लिखना बाँचना अच्छी तरह आ जाने के बाद श्रीराम के मन में उसे बाँटने की वृत्ति का उदय हुआ। मालवीय जी से उपवीत लेने के बाद जैसे उन्होंने दूसरे बच्चों को भी जप-ध्यान सिखाना शुरू किया था, उसी तरह लिखना-पढ़ना भी दूसरों को बाँटने की इच्छा उमगने लगी। पिता से शास्त्र और संस्कृत सीखने के बाद थोड़ा-बहुत समय बचता। श्रीराम उस समय में चौपाल पर चले जाते। वहाँ कोई-न-कोई बैठा रहता था। चार-पाँच लोग भी जमा हो जाते, तो उनका समय इधर-उधर की बातों में बीतता। श्रीराम उन्हें कुछ पढ़कर सुनाने के लिए कहते। जिन्हें अक्षर ज्ञान था और थोड़ा बहुत पढ़ना आता था, वे तो सुना देते। जिन्हें पढ़ना नहीं आता वे चुप रह जाते। श्रीराम उनसे कहते, आप पढ़ते क्यों नहीं? नहीं आता है तो सीख लेना चाहिए। आमतौर पर उत्तर होता था कि अब पढ़ने से क्या लाभ? उमर बीत गई है, थोड़ी-बहुत बची है, वह भी कट जाएगी।

निराशा करने वाला यह उत्तर सुनकर शुरू में तो कोई काट नहीं की, लेकिन जब सभी यह जवाब देने लगे, तो एक दिन श्रीराम ने पढ़ाई की चर्चा छेड़े बिना कहा, जिस गुफा में मैं ध्यान करने जाता था, वहाँ खजाना गड़ा हुआ है। खजाने का नाम सुनकर चौपाल पर बैठे लोगों की आँखें चौड़ी हो गई। उन्होंने कहा, बालक की आध्यात्मिक रुचि और साधना स्थिति के बारे में सभी जानते थे, इसलिए किसी ने अविश्वास नहीं किया। न ही उसे हँसी में उड़ाया। पूछा, उस खजाने को निकालने के लिए क्या करना होगा? श्रीराम ने कहा, लेकिन आप उस खजाने का क्या करेंगे? आपकी तो उमर निकल गई है, थोड़ी बहुत बची है, वह भी कट जाएगी।

उन बुजुर्गों को समझ में नहीं आया कि श्रीराम उनको किस बहाने का उत्तर दे रहे हैं। उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, खजाने का उपयोग तो किसी भी उम्र में किया जा सकता है। श्रीराम ने कहा, उस धन को पाने के लिए आपको विद्याधन कमाना होगा। आप पढ़ना सीखोगे, तभी उस धन को पाने वाला विधि-विधान समझोगे। यह समझाने के बाद कुछ बुजुर्ग पढ़ने के लिए तैयार हुए। कहते हैं कुछ लोगों ने उसके बाद गुफा में ढूंढ़-खोज की और वहाँ एक चट्टान के नीचे छिपाए हुए स्वर्ण आभूषण निकले। ये आभूषण धाँधू नामक डकैत की लूट भी हो सकते हैं या महज संयोग। बहरहाल अध्यापन के दौरान श्रीराम ने उन बुजुर्गों को कुछ भजन और रामायण की चौपाइयां जरूर सिखा दी थीं।

छपको की सेवा

आँवलखेड़ा अपनी तमाम अच्छाइयों के साथ जी रहा था। बुराइयाँ भी थीं। उनमें सबसे बड़ी बुराई जातिगत ऊँच-नीच या छुआछूत की थी। यह स्थिति बड़ी विचित्र और अबूझ थी कि लोग पिछड़ी जाति के लोगों से नफरत नहीं करते थे। उनके सुख-दुख का ध्यान भी रखते, लेकिन उनसे दूर-दूर रहते थे। ब्याह-शादियों में उन्हें बुलाया जाता था, लेकिन उन्हें अपने समूह में शामिल नहीं किया जाता था। उन्हें अलग पाँत में भोजन कराया, बिठाया जाता, उसी तरह अगवानी की जाती और विदा भी दी जाती। घृणा नहीं होते हुए भी दुरदुराने की यह आदत किसी विकृति का ही परिणाम थी।

कभी किसी को रोग-बीमारी हो जाए, तब भी जीना दूभर हो जात। सन् 1923 की घटना है। आँवलखेड़ा के एक कोने में, जिसे गाँव से बाहर कहना ही ठीक होगा। चार-पाँच झोंपड़ीनुमा घर बने हुए थे। इन घरों में जमादार और डोम जाति के परिवार रहते थे। इस तरफ कोई झाँकता नहीं था। मझली जाति के लोग भी नहीं, जिन्हें स्वर्ण भी उन्हीं की तरह हेय मानते थे। दलित बस्ती की एक स्त्री छपको पंडित जी की हवेली की सफाई करने आया करती थी। बड़ी उम्र के लोग उसे नाम से बुलाते थे और छोटे बच्चे चाची या अम्मा कहते थे। छपको नियमित रूप से दरबार लोगों के घरों में जाती थी। सवर्णों को तब ये लोग दरबार लोगों के घरों में जाती थी। सवर्णों को तब ये लोग दरबार ही कहते थे। हारी-बीमारी में भी वह नहीं चूकती थी। एकाध दिन की नागा हो जाए, तो दरबार लोग हाय-तौबा मचा देते थे। दस बातें सुनाते और ज्यादा हो तो काम छुड़वाने की धमकी देते थे। धमकी और सजा के डर से सरदी, खाँसी और हाड़ बुखार के समय भी छपको की जाति बिरादरी के लोग कभी नागा नहीं करते। किसी की तबियत ज्यादा खराब होती, तो उसकी जगह दूसरा कोई आता।

छपाके को किसी ने बीमार पड़ते नहीं देखा था। उसके मुँह से किसी रे निसरदर की शिकायत भी नहीं सुनी थी। एक दिन छपको हवेली नहीं पहुँची। शाम तक इंतजार किया, वह नहीं आई। अगले दिन भी यही हाल था। वह सफाई के लिए नहीं पहुँची। पास-पड़ोस में पूछा, तो वहाँ भी नहीं गई थी। चार-पाँच दिन बीत गए छपको के परिवार में कोई और नहीं था कि अपनी जगह दूसरे को भेज देती। लोगों ने सोचा कि दूसरा इंतजाम किया जाए। किसी को यह नहीं सूझा कि वह बीमार भी हो सकती है। घर में छपको की जगह किसी और को बुलाने की बात चलने लगी, तो श्रीराम के काम में भी पड़ी। उन्हें लगा कि हो-न-हो, छपको अम्मा की तबियत खराब हो गई हो। उन्हें कोई दवा-दारु देने वाला नहीं है। इसलिए वे नहीं आ पा रही हों। ताई जी से उन्होंने कहा भी कि छपको अम्मा को दवाई देनी चाहिए। ताई जी ने गाँव-घर के रिवाज के अनुसार कह दिया, यहाँ आएगी तब दे देंगे। श्रीराम ने कहा कि वह ठीक होगी, तभी आएगी न। बिना दवा के ठीक कैसे होगी?

श्रीराम चुपचाप उस टोले की ओर चल दिए, जहाँ छुपाके अम्मा रहती थी। कूड़े-कचरे और गंदगी के ढेर पार करते और बदबूदार सड़ी नालियाँ लाँघते-फाँदते हुए छपको की झोपड़ी के सामने पहुँच गए। चार-पाँच घरों में सही ठिकाना मालूम करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दरवाजे पर पहुँचकर पुकारा। अंदर से कोई आवाज नहीं आई, तो दरवाजे के नाम पर लगी हुई घास-फूस की आड़ हटाकर झाँका। छपको अम्मा बेसुध-सी चटाई पर पड़ी थी। पाँवों की आहट सुनकर उसने आँखें खोलीं। श्रीराम को देखकर हड़बड़ा उठी। बैठने की कोशिश करने लगी, लेकिन बैठ नहीं पाई।

उठने की कोशिश में वापस गिरते हुए छपको ने कहा, यहाँ क्यों आए हो? घर पर पता चलेगा, तो मार पड़ेगी। श्रीराम ने कुछ नहीं सुना। हाथ लगाकर देखा, शरीर बुरी तरह तप रहा था। बुखार है, हथेली और जीभ वगैरह देखते हैं। हथेली में घाव था। उससे बदबू आ रही थी और पीब बह रहा था। शायद घाव सड़ने लगा था और इसी की वजह से बुखार भी आ रहा था।

चिंता मत करो, मैं दवा लेकर आता हूँ। श्रीराम ने कहा और छपको अम्मा कुछ कहे, उसे सुने से पहले ही झोपड़ी के बाहर। दवाखाना वहाँ से काफी दूर था। झोपड़ी से बाहर निकलकर पहले तो पड़ोसी से पानी लिया और अम्मा को पिलाया। फिर दौड़कर वापस चले गए और मरहम-पट्टी का सामान लेकर कुछ ही मिनटों में वापस हो गए। साफ धुले हुए कपड़े की पट्टी बनाई, जाने कहाँ से लाल दवा और मरहम का जुगाड़ कर लिया। मरहम-पट्टी की और काढ़ा बनाकर पिलाया, ताकि बुखार कुछ कम हो जाए। छपको अम्मा की आँखें डबडबा आई। दवा से ज्यादा सेवा और सहानुभूति ने काम किया। उन्हें नींद आने लगी। फिर आने की बात कहकर श्रीराम वापस चले गए।

अगले दिन के उपचार का क्या प्रबंध करना है? इस उधेड़बुन में रमते हुए श्रीराम हवेली में आ गए। देखा बाहर द्वार पर ही चाचा खड़े हुए हैं। कलश से जल निकाला और दोनों हाथों में भरकर तीन बार श्रीराम पर छिड़का। फिर दरवाजे के बाहर ही नहाने के लिए कहा। कपड़े वहीं लाकर पहले से रखे हुए थे। नहाने के बाद वे कपड़े पहने और पुराने पहने हुए कपड़े वहीं छोड़ दिए। शुद्धिकरण की यह कार्रवाई पूरी होने के बाद श्रीराम अंदर आए। उन्होंने कोई सवाल नहीं किया। यही कहा कि गंगाजल के साथ कुछ और जोड़ी कपड़ों का इंतजाम कर लेना। आगे कई दिन तक छपको अम्मा के यहाँ जाना है। पश्चाताप और क्षमा माँगने या सफाई देने की जगह पर ये वचन सुनकर घर के लोग हैरत में पड़ गए। श्रीराम ने अगली बात यह कही कि जब तक अम्मा का घाव ठीक नहीं हो जाता, रोज जाऊँगा। उत्तर में उलाहना या व्यंग्य नहीं था। निश्चय की झलक दिखाई दे रही थी। इस जवाब पर खासी डाँट पड़ी। उस दिन उपवास रखने के लिए कहा गया।

डाँट, दंड और दबाव से अप्रभावित श्रीराम अगले दिन भूखे ही छपको की सेवा करने गए। मरहम-पट्टी कर दवा लेकर वापस लौटे, तो हवेली के बाहर ही ठिठक गए। ताई जी ने देखा। उनका मन रो रहा था, लेकिन प्रचलन के विपरीत जाने का साहस भी नहीं कर पा रही थीं।

अछूत सेवा के अनोखे प्रायश्चित का निर्वाह करते हुए ताई जी ने श्रीराम के लिए निर्धारित मिट्टी के बरतन में रोटियाँ और दाल-सब्जी रख दी। भोजन देखकर श्रीराम ने दो रोटी और दाल-सब्जी ली और टोले की तरफ बढ़ गए। वहाँ छपको को जगाकर रोटी खिलाई। अपने हाथ से भोजन कराते हुए श्रीराम और छपको दोनों ही आनंद-विभोर थे। छपको को खाना-खिलाकर-सुलाकर श्रीराम वापस लौटे। घर पर जिस कोठरी में उनके लिए प्रबंध था, उसी में बैठकर भोजन किया। दिनभर घर से बाहर नहीं निकले। बाहर निकलने पर कोई लाभ नहीं था। गाँव भर में खबर फैल गई थी कि श्रीराम टोले में जाते हैं, छपको की मरहम-पट्टी करते हैं। उन्हें अस्पृश्यता दोष लग गया है, इसलिए किसी को उनका संसर्ग नहीं करना चाहिए। गाँव वालों ने अपने बच्चों को श्रीराम के साथ खेलने से सख्त मना कर दिया था।

सात-आठ दिन की मरहम-पट्टी और उपचार के बाद छपको का घाव सूख गया। बुखार भी नहीं रहा। वह अपने हाथ से खाना बनाने लगी, तब श्रीराम ने टोले में जाना बंद किया। इस बीच अलवर में भागवत कथा संपन्न कर पिताश्री घर लौट आए थे। देहरी पर पाँव रखते ही उन्होंने श्रीराम को बाहरी कोठरी में जमीन पर चटाई बिछाते सोते हुए देखा। तुरंत पूछा कि क्या हुआ? यहाँ, क्यों? छोटे भाई देवलाल ने पूरा घटनाक्रम सुना दिया। उन्हें आशा थी कि शौचाचार का इतनी कड़ाई से पालन हुआ देख बड़े भइया प्रसन्न होंगे। आज तक आँवलखेड़ा और आस-पास के गाँव में किसी ने भी टोले में जाकर अपना धर्म नहीं बिगाड़ा था। ऐसी स्थितियाँ ही नहीं बनीं थीं कि कोई निर्णय लेना पड़े। अपने यहाँ स्थिति बनी और छोटे भाई ने अपने भतीजे के लिए दृढ़ व्यवस्था दे दी। धर्माधिकारी का दायित्व अच्छी तरह निभा लेने के लिए सराहना भी होगी।

प्रायश्चित या पुरस्कार

हुआ उलटा ही। पंडित जी ने कहा, देवलाल तुमने यह क्या किया? भागवत परिवार में किसी को सेवा−शुश्रूषा के लिए प्रायश्चित करना पड़े, यह धर्म विरुद्ध है। उन्होंने श्रीराम की पीठ थपथपाई और कहा, पुत्र तुमने भागवत धर्म के मर्म को पा लिया है। इस बीच आस-पास के लोग भी हवेली में आ गए थे। वे पंडित जी को प्रणाम करने आए थे, लेकिन देवलाल को उलाहना मिलते देख ठहर गए थे। पंडित जी कह रहे थे, तुमने सुना है न संत एकनाथ ने गंगोत्री से लाया गंगाजल रामेश्वरम् में भगवान शिव पर न चढ़ाकर एक गधे को पिला दिया था और भगवान ने उसे अभिषेक के रूप में ग्रहण कर लिया था। जीवन परमात्मा की देन है। उसकी रक्षा से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

कुछ देर चुप रहकर वे फिर बोले, लेकिन तुम्हारा भी दोष नहीं है। समाज की मान्यताएँ ही गड़बड़ हैं। बहुत दिन तक यह सब नहीं चलने वाला। बदलेगा। धीरे-धीरे सब बदलेगा। फिर पुत्र की ओर देखकर उन्होंने कहा, तुम्हारा भी एक पुरश्चरण हो गया समझो। प्रसन्न रहो।

पिताश्री की व्यवस्था ने श्रीराम का उत्साह बढ़ा दिया। कोठरी से निकलकर वे सीधे टोले की ओर गए और वहाँ छपको अम्मा को पुकारा। सुबह ही तो यह ब्राह्मण कुमार ‘अब नहीं आऊँगा’ कहकर गया था। अब क्यों आ गया है? छपको को गाँव वालों का डर भी सता रहा था। अभी तक झोंपड़ी में पड़ी उपचार करा रही थी। श्रीराम के आने पर गाँव में क्या प्रतिक्रिया है, इसका भान नहीं था। गाँव में जाना शुरू करेगी, तब पता नहीं क्या होगा। चिंता में डूबी जा रही थी कि श्रीराम की पुकार ने फिर झिंझोड़ दिया। पहला विचार यही उठा कि गाँव वालों के किसी फैसले की सूचना लेकर आए होंगे। शायद आगाह करने के लिए। वह किसी विचार पर स्थिर होती, इससे पहले ही ब्राह्मण कुमार ‘अम्मा-अम्मा’ कहते भीतर उपस्थित थे। वाणी में उल्लास गूँज रहा था और चेहरे पर गर्व जैसे कोई बड़ी सफलता प्राप्त कर ली हो।

ब्राह्मण देवता आप यहाँ न आया करो। अब मैं ठीक हूँ। आपको यहाँ आते देख लोग मुझे गाँव में घुसने नहीं देंगे। छपको ने श्रीराम के उल्लास और गर्व को नहीं पहचान सकने या पहचानकर भी ध्यान न दे पाने के कारण कहा। ब्राह्मण कुमार शायद उसकी स्थिति को समझ गए थे। उन्होंने कहा, “आप चिंता न करें अम्मा। चाचा ने जो प्रायश्चित बताया था, पिता जी ने उसे मना कर दिया है। मुझे आशीर्वाद दिया है कि आपकी सेवा कर मैंने अच्छा काम किया।”

छपको को अपने कानों पर सहसा विश्वास नहीं हुआ श्रीराम ने जोर देकर कहा, “सच कह रहा हूँ।” सुनकर अम्मा के चेहरे पर संतोष, निश्चिंतता और खुशी की मिली-जुली चमक फैल गई। अपने भावों को व्यक्त करते हुए उसने दोनों हाथ ऊपर उठा दिए, जैसे आशीर्वाद दे रही हों। श्रीराम ने कहा, अब किसी तरह का संकोच मत करना, अच्छा। इतना कहकर वे हवेली की ओर चल दिए। (क्रमशः)


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