आखिर! बच्चे कहना क्यों नहीं मानते

July 2002

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बच्चे कहना नहीं मानते, यह शिकायत आम माता-पिता की है। कभी-कभी उन्हें इस शिकायत के चलते खीझ होने लगती है। कभी वे इसके लिए दुःखी-परेशान हो उठते हैं। इसकी वजह से यदा-कदा उनको हताशा-निराशा घेर लेती है। समझ में नहीं आता क्या करें, कैसे समझाएँ इन बच्चों को। जब देखो तब शैतानी, उठा पटक, तोड़-फोड़। थोड़ी देर भी चुपचाप एक जगह बैठे नहीं रहेंगे। यह नहीं कि अपना पाठ तैयार करें। इनकी जो हालत घर में है, वही हालत स्कूल के हैं। वहाँ भी टीचर परेशान रहते हैं। घर शिकायत भेजते हैं कि आपका बच्चा पढ़ाते समय एकाग्रता से पाठ नहीं सुनता, उल्टे दूसरों की तन्मयता को तोड़ता है। कक्षा में साथियों से खूब लड़ाई लड़ता है, रोज-रोज की इन शिकायतों से माता-पिता की परेशानी और दुगुनी हो जाती है।

समाधान की तलाश में अक्सर ये आपस में लड़ लेते हैं। उनकी इस लड़ाई से बच्चों की गतिविधियाँ और भी तेज हो जाती हैं। माता-पिता की अधीरता उन्हें पहले से भी अधिक शैतानी करने के लिए प्रेरित करती है। यह कथन कोई कल्पना नहीं, एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। जिसे विश्व भर के बाल मनोवैज्ञानिकों ने अपने कई प्रयोगों से प्रमाणित किया है। मनोवैज्ञानिक जार्ज ए. मिलर का कहना है कि आज की भागती-दौड़ती हमारी सामाजिक दिनचर्या ने बच्चों को हमसे दूर कर दिया है। और पर्याप्त भावनात्मक पोषण एवं सही देख-रेख के अभाव में बच्चे कुछ ज्यादा ही सुनी-अनसुनी करने लगे हैं। उनकी गतिविधियों में कुछ ज्यादा ही शैतानी शामिल हो गयी है।

यहाँ तक कि कभी-कभी यह शैतानी सीमा रेखा पार कर जाती है। और एक बीमारी की शक्ल ले लेती है। जिसे मानव मन के विशेषज्ञों ने ‘एटेंशन डेफेसिट डिसआर्डर’ या ‘एड’ का नाम दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि पहले यह बीमारी केवल विदेशों के बच्चों में पायी जाती थी। भारत में इसका प्रतिशत प्रायः नहीं के बराबर था। लेकिन संयुक्त परिवारों के टूटने से, माता-पिता दोनों के नौकरी करने के कारण अब भारत में भी इस बीमारी का प्रतिशत काफी बढ़ गया है। ‘विद्यासागर इन्स्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज’ के द्वारा किए गए एक शोध सर्वेक्षण के अनुसार देश के 74 लाख बच्चे इस बीमारी की विकृति से ग्रस्त हैं। चूंकि अपने अज्ञान के कारण माँ-बाप इस पर ध्यान नहीं दे पाते, इसलिए उनमें से 22 लाख बच्चे बड़े होकर असामाजिक हो जाते हैं।

विद्यासागर इन्स्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (विमहाँस) के विशेषज्ञों द्वारा किए गए व्यापक शोध सर्वेक्षण से ये तथ्य सामने आए हैं। इस संस्था के मनोचिकित्सकों का कहना है कि ऐसे बच्चों को केवल शरारती बच्चे कहकर पीछा नहीं छुड़ा लेना चाहिए। बल्कि सात से ग्यारह साल की उम्र में शिक्षक की मदद से ऐसे बच्चों की गतिविधियों का ध्यान रखना चाहिए। और स्थिति यदि ज्यादा बेकाबू हो तो मनोचिकित्सक से उपयुक्त परामर्श करना चाहिए। विमहाँस के मनोचिकित्सकों के अनुसार यह एटेंशन डेफेसिट डिसआर्डर या एड कई तरह का हो सकता है। शुरुआत में कम असर वाला, बाद में धीरे-धीरे बढ़कर ‘हाइपर एक्टिव’ या अतिसक्रियता एटेंशन डिसआर्डर या एडी एच डी का रूप ले सकता है।

विमहाँस के मनोचिकित्सक डॉ. नागपाल का कहना है कि प्रमुख तौर पर इसके तीन लक्षण हैं। पहला- एकाग्रहीनता, दूसरा- अतिसक्रियता एवं तीसरा- कभी भी काम को करने के लिए मजबूर हो जाना। इन तीन मुख्य लक्षणों के अलावा इस बीमारी से ग्रसित बच्चों में चित्त का बिखराव, अस्थिर व आक्रामक व्यवहार, अपने को हीन समझना, लोगों का ध्यान आकृष्ट करने वाले काम करना, ख्याली पुलाव पकाना, मिल-जुल कर न रहने की प्रवृत्ति, अति कमजोर याददाश्त, धैर्य की कमी, दूसरों को सताने वाला व्यवहार एवं चोरी करने जैसी प्रवृत्ति आम बातें हैं। समाज में स्वीकार्य व्यवहार करना इन बच्चों के बूते के बाहर हो जाता है। पढ़ाई करना ये छोड़ देते हैं। अक्सर ये अपनी स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते। जब-तब इन पर डिप्रेशन का दौरा पड़ता रहता है। उस समय इन पर काबू करना मुश्किल हो जाता है।

इस रोग के कारणों के बारे में विशेषज्ञ अभी ठीक से एक मत नहीं हो पाए हैं। वैसे इस बारे में हाल में हुए शोध अनुसन्धान से दो बातें पता चली है। पहली बात यह कि शुरुआती कारणों में भ्रूण अवस्था या बचपन में संक्रमण के कारण दिमाग को होने वाले मामूली नुकसान से ऐसा हो जाता है। इससे सम्बन्धित एक तथ्य यह भी है कि रोगियों के मस्तिष्क में रसायनों के अनियमित प्रवाह से ऐसा हो जाता है। लेकिन दूसरी बात जो इस सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है- वह है बच्चों को अनदेखा करने की प्रवृत्ति। एटेंशन डेफेसिट डिसआर्डर का शाब्दिक अर्थ ही यही है- देख-रेख की कमी से होने वाली व्याधि।

माता-पिता या अभिभावक आजकल बच्चों पर उतना ध्यान नहीं दे पाते, जितना कि आवश्यक रूप से दिया जाना चाहिए। प्रो. जीन ह्यस्टन ने इस बारे में एक बहुत ही सुन्दर शोध ग्रन्थ लिखा है- ‘चाइल्ड केयर : इट्स साइकोलाजिक मीनिंग।’ इस पुस्तक में उन्होंने बच्चों की गतिविधियों पर किए गए विभिन्न शोध कार्यों से सम्बन्धित प्रयोगों व उनके निष्कर्षों को प्रकाशित किया है। उनका कहना है कि एक स्थिति में माता-पिता अपने काम-काज में इतना मशगूल हो जाते हैं कि अपने बच्चों को धन व नौकरों के हवाले कर देते हैं। उनके पास बच्चों के लिए आवश्यक समय ही नहीं रहता है। दूसरी स्थिति में माता-पिता बच्चों पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देते हैं। उनकी हर जायज-नाजायज माँग पूरा करते हैं। उनको इतना ज्यादा अपनी निगरानी में रखते हैं कि बच्चों का स्वतन्त्र विकास बाधित हो जाता है।

प्रो. ह्यस्टन का कहना है कि बच्चों का पालन-पोषण करने में एक माली की कुशलता चाहिए। उन्हें इतना भी अनदेखा न करें कि आवश्यक खाद-पानी भी न मिल सके। और इतनी भी देख-रेख की अति न कर दें कि उन्हें स्वाभाविक रूप से मिलने वाला हवा और प्रकाश भी अवरुद्ध हो जाए। बच्चे आपकी बात माने एवं शरारत व शैतानी कम करें, इसके लिए माता-पिता को कुछ बिन्दुओं का आत्मसात करना जरूरी है- 1. आप बच्चों के लिए रोल मॉडल बनें। कम से कम बच्चों के सामने स्वयं ऐसे काम कभी न करें, जिनके लिए आप उन्हें रोकते हैं। 2. बच्चों की हर जायज-नाजायज माँग पूरी करने के बजाय धीरे-धीरे उन्हें सही गलत का बोध कराएँ। 3. जीवन के व्यावहारिक विषयों जैसे दूसरों से व्यवहार, उठने-बैठने, चलने-दौड़ने के सही तौर-तरीके, शिष्टाचार के सामान्य ज्ञान के बारे में उन्हें धीरे-धीरे पर थोड़ा-थोड़ा रोज बताएँ-सिखाएँ। 4. बात-बात पर उन्हें झिड़के नहीं। अनजान लोगों के सामने उन्हें किसी भी कीमत पर अपमानित न करें। 5. अच्छा काम करने पर उन्हें प्रोत्साहित व प्रशंसित करें।

चंडीगढ़ स्थित मेडिकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च में मनोचिकित्सा विभाग की एक विशेषज्ञ का कहना है कि बच्चे आपकी बात मानें, इसके लिए जरूरी है कि आप अपने प्रति बच्चों में विश्वास जगाएँ। उन्हें उनके प्रति अपने प्रेम से आश्वस्त करें। यहीं की एक विशेषज्ञ डॉ. सविता मल्होत्रा का कहना है कि शैतानी और शरारत की अति को कोई गम्भीर रोग मानकर घबरा जाना तो ठीक नहीं है, पर इसके प्रति लापरवाही भी उचित नहीं है। बच्चों की शैतानी व शरारत में खपने वाली ऊर्जा को यदि सृजनात्मक गतिविधियों में बदला जा सके तो उसकी प्रतिभा में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हो सकती है। बस इसके लिए जरूरत इतनी भर है कि बच्चों के प्रति उनकी सही देख-रेख के प्रति हमेशा जागरुक रहें। और उनकी जीवनी शक्ति को सृजनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करते रहें। लगातार धैर्यपूर्वक प्यार और सद्व्यवहार से ऐसा करने पर आपके बच्चे शरारत छोड़कर हमारी हर शिकायत को दूर कर सृजन प्रयोजनों में लगने लगेंगे।


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