गुरुपूर्णिमा विशेष−5 - आदि जिज्ञासा, शिष्य का प्रथम प्रश्न

July 2002

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गुरुपूर्णिमा के पुण्य पर्व पर प्रत्येक शिष्य सद्गुरु कृपा के लिए प्रार्थनालीन है। वह उस साधना विधि को पाना-अपनाना चाहता है, जिससे उसे अपने सद्गुरु की चेतना का संस्पर्श मिले। गुरुतत्त्व का बोध हो। जीवन के सभी लौकिक दायित्वों का पालन-निर्वहन करते हुए उसे गुरुदेव की कृपानुभूतियों का लाभ मिल पाए। शिष्यों-गुरुभक्तों की इन सभी चाहतों को पूरा करने के लिए प्राचीन ऋषियों ने गुरुगीता के पाठ, अर्थ चिन्तन, मनन व निदिध्यासन को समर्थ साधना विधि के रूप में बताया था। इस गुरुगीता का उपदेश कैलाश शिखर पर भगवान सदाशिव ने माता पार्वती को दिया था। बाद में यह गुरुगीता नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में सूत जी ने ऋषिगणों को सुनायी। भगवान व्यास ने स्कन्द पुराण के उत्तरखण्ड में इस प्रसंग का बड़ी भावपूर्ण रीति से वर्णन किया है।

शिष्य-साधक हजारों वर्षों से इससे लाभान्वित होते रहे हैं। गुरुतत्त्व का बोध कराने के साथ यह एक गोपनीय साधना विधि भी है। अनुभवी साधकों का कहना है कि गुरुवार का व्रत रखते हुए विनियोग और ध्यान के साथ सम्यक् विधि से इसका पाठ किया जाय, तो शिष्य को अवश्य ही अपने गुरुदेव का दिव्य सन्देश मिलता है। स्वप्न में, ध्यान में या फिर साक्षात् उसे सद्गुरु कृपा की अनुभूति होती है। शिष्य के अनुराग व प्रगाढ़ भक्ति से प्रसन्न होकर गुरुदेव उसकी आध्यात्मिक व लौकिक इच्छाओं को पूरा करते हैं। यह कथन केवल काल्पनिक विचार नहीं, बल्कि अनेकों साधकों की साधनानुभूति है। हम सब भी इसके पाठ, अर्थ चिन्तन, मनन व निदिध्यासन से गुरुतत्त्व का बोध पा सकें, परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से लाभान्वित हो सके, इसलिए इस ज्ञान को धारावाहिक रीति से क्रमिक ढंग से प्रकट किया जा रहा है। अब से प्रत्येक महीने की अखण्ड ज्योति में मंत्र क्षमता वाले गुरुगीता के श्लोकों की भावपूर्ण व्याख्या की जाएगी।

लेकिन सबसे पहले साधकों को इसकी पाठ विधि बतायी जा रही है। ताकि जो साधक इसके नियमित पाठ से लाभान्वित होना चाहें, हो सकें। गुरुगीता के पाठ को शास्त्रकारों ने मंत्रजप के समतुल्य माना है। उनका मत है कि इसके पाठ को महीने के किसी भी गुरुवार को प्रारम्भ किया जा सकता है। अच्छा हो कि साधक उस दिन एक समय अस्वाद भोजन करें। यह उपवास मनोभावों को शुद्ध व भक्तिपूर्ण बनाने में समर्थ सहायक की भूमिका निभाता है। इसके बाद पवित्रीकरण आदि षट्कर्म करने के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे गए गुरुदेव के चित्र का पंचोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् दाँए हाथ में जल लेकर विनियोग का मंत्र पढ़ें-

ॐ अस्य श्री गुरुगीता स्तोत्रमंत्रस्य भगवान सदाशिव ऋषिः। नानाविधानि छंदासि। श्री सद्गुरुदेव परमात्मा देवता। हं बीजं। सः शक्तिः। क्रों कीलकं। श्री सद्गुरुदेव कृपाप्राप्यर्थे जपे विनियोगः॥

विनियोग मंत्र पढ़ने के बाद हाथ के जल को पास रखे किसी पात्र में डाल दें। दरअसल यह विनियोग साधक को मंत्र की पवित्रता, महत्ता का स्मरण कराता है। मंत्र के ऋषि, देवता, बीज, शक्ति व कीलक की याद कराता है। साथ ही साधक के मन को एकाग्र करते हुए पाठ किए जाने वाले स्तोत्र मंत्र की शक्तियों को जाग्रत् करता है। ऊपर बताए गए विनियोग मंत्र का अर्थ है- ॐ (परब्रह्म का स्मरण) इस गुरुगीता स्तोत्र मंत्र के भगवान् सदाशिव द्रष्ट ऋषि हैं। इसमें कई तरह के छन्द हैं। इस मंत्र के देवता या ईष्ट परमात्म स्वरूप सद्गुरुदेव हैं। इस महामंत्र का बीज ‘हं’ है, शक्ति ‘सः’ है, जो जगज्जननी माता भगवती की प्रतीक है। ‘क्रों’ बीज से इसे कीलित किया गया है। इस मंत्र का पाठ या जप सद्गुरुदेव की कृपा पाने के लिए किया जा रहा है।

इस विनियोग के बाद गुरुदेव का ध्यान किया जाना चाहिए।

ध्यान मंत्र निम्न है-

योग पूर्णं वेदमूर्तिं तपोनिष्ठ तेजस्विनम्। गौरवर्णं प्रेममूर्तिं माता भगवती सह शोभितम्॥

कारुण्यामृत सागरं शिष्यभक्तादि सेवितम्। ध्यायेद् सद्गुरुं तं श्रीरामम् आचार्यवरम्॥

इस ध्यान मंत्र का भाव है, गौरवर्णीय, प्रेम की साकार मूर्ति गुरुदेव वन्दनीया माताजी (माता भगवती देवी) के साथ सुशोभित हैं। गुरुदेव योग की सभी साधनाओं में पूर्ण, वेद की साकार मूर्ति, तपोनिष्ठ व तेजस्वी हैं। शिष्य और भक्तों से सेवित गुरुदेव करुणा के अमृत सागर हैं। उन आचार्य श्रेष्ठ श्रीराम का, अपने गुरुदेव का साधक ध्यान करें।

ध्यान की प्रगाढ़ता में परम पूज्य गुरुदेव को अपना आत्मनिवेदन करने के बाद साधक को गुरुगीता का पाठ करना चाहिए। जिससे साधकगण उनके गहन चिन्तन से गुरुतत्त्व का बोध प्राप्त कर सकें। इसके पठन, अर्थ चिन्तन को अपनी नित्य प्रति की जाने वाली साधना का अविभाज्य अंग मानें।

गुरुगीता का प्रारम्भ ऋषियों की जिज्ञासा से होता है-

ऋषयः ऊचुः

गुह्यत् गुह्यतरा विद्या गुरुगीता विशेषतः। ब्रूहि नः सूत कृपया शृणुमस्त्वत्प्रसादतः॥

नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में एक विशेष सत्र के समय ऋषिगण महर्षि सूत से कहते हैं- हे सूत जी! गुरुगीता को गुह्य से भी गुह्यतर विशेष विद्या कहा गया है। आप हम सभी को उसका उपदेश दें। आपकी कृपा से हम सब भी उसे सुनने का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं।

महर्षि सूत ने कहा- सूत उवाच

कैलाश शिखरे रम्ये भक्ति सन्धान नायकम्। प्रणम्य पार्वती भत्या शंकरं पर्यपृच्छत॥1॥

ऋषिगणों, यह बड़ी प्यारी कथा है। इस गुरुगीता के महाज्ञान का उद्गम तब हुआ, जब कैलाश पर्वत के अत्यन्त रमणीय वातावरण में भक्तितत्त्व के अनुसन्धान में अग्रणी माता पार्वती ने भक्तिपूर्वक भगवान सदाशिव से प्रश्न पूछा।

श्री देव्युवाच-

ॐ नमो देवदेवेश परात्पर जगद्गुरो । सदाशिव महादेव गुरुदीक्षा प्रदेहि में ॥2॥

केन मार्गेण भोः स्वामिन् देही ब्रह्ममयोभवेत्। त्वं कृपाँ करु में स्वामिन नमामि चरणौ तव॥3॥

देवी बोलीं- हे देवाधिदेव! हे परात्पर जगद्गुरु! हे सदाशिव! हे महादेव! आप मुझे गुरुदीक्षा दें। हे स्वामी! आप मुझे बताएँ कि किस मार्ग से जीव ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करता है। हे स्वामी! आप मुझ पर कृपा करें। मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ।

यही है आदि जिज्ञासा। यही है प्रथम प्रश्न। यही वह बीज है, जिससे गुरुतत्त्व के बोध का बोधितरु अंकुरित हुआ। भगवान शिव की कृपा से पुष्पित-पल्लवित होकर महावृक्ष बना। इस मधुर प्रसंग में आदिशक्ति, जगत्माता ने स्वयं शिष्य भाव से यह प्रश्न पूछा है। चित् शक्ति स्वयं आदि शिष्य बनी हैं। जगत् के स्वामी भगवान् महाकाल आदि गुरु हैं। इस प्रसंग का सुखद साम्य परम वन्दनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव की कथा गाथा से भी है। इस परम विशाल, महाव्यापक गायत्री परिवार की जननी वन्दनीया माताजी आदि शिष्य भी थीं। उन्होंने हम सबके समक्ष शिष्यत्व का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। वे हम सबके लिए माता पार्वती की भाँति हैं। जिनकी जिज्ञासा और तप से ज्ञान की युग सृष्टि हुई।

माता पार्वती ने अपनी भक्तिपूर्ण जिज्ञासा से भूत-वर्तमान और भविष्य के सभी शिष्यों व साधकों के समक्ष ‘विनयम् ददाति पात्रताम्’ का आदर्श सामने रखा। जो अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण को गुरुचरणों में समर्पित करके गुरुदीक्षा प्राप्ति की प्रार्थना करता है। वही तत्वज्ञान का अधिकारी होता है। किसी भी तरह से अहंता का लेशमात्र भी रहने से ज्ञान व तप की साधना फलित नहीं होती है। जो जगत्माता आदि जननी की भाँति स्वयं को अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर देते हैं। गुरु कृपा उन्हीं का वरण करती है। करुणा सागर कृपालु गुरुदेव उन्हीं को अपनी कृपा का वरदान देते हैं। इस गुरु पूर्णिमा पर हम सब अपने शिष्यत्व में कुछ ऐसा ही निखार लाएँ। शिष्यत्व की इस साधना को सतत करते रहें। विश्वगुरु भगवान महेश्वर ने विश्वमाता से क्या कहा, यह अगले अंक में।


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