एक ही समय अनेक स्थानों पर एक ही शरीर

July 2002

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उपनिषदों की बहुश्रुत श्रुति ‘पूर्णमदः पूर्णमिदम्’ में चेतना का स्वरूप बोध है। ऋषि कहते हैं, चेतना वह हो या यह, ईश्वरीय हो अथवा मानवीय सभी अपने रूपों में पूर्ण है। सभी तरह से पूर्ण ईश्वरीय चेतना की अंश जीव चेतना अपूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’- पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही बचता है। ऋषि की इस आध्यात्मिक अनुभूति की झलक वैज्ञानिक अपने प्रयोगों में भी पाने लगे हैं। शोध अनुसन्धान की साधना में उन्हें यह अनुभव होने लगा है कि प्रकृति हो या पदार्थ सभी में परम पूर्ण की पूर्णता समायी है। खण्ड में भी अखण्ड ही झिलमिल झलकता है।

वैज्ञानिकों को इस सत्य का साक्षात्कार होलोग्राफिक मॉडल विकसित करते समय हुआ। दरअसल यह बहुत उच्च स्तरीय फोटोग्राफिक तकनीक है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार होलोग्राम त्रिआयामी-त्रिपार्श्व छाया चित्र है, जो लेज़र किरणों से बनता है। यह छाया चित्र सामान्य छाया चित्रों से बहुत अलग और अद्भुत है। अब जैसे एक सेव का होलोग्राफ लिया जाय, तो इसमें सेव का त्रिआयामी चित्र उभरेगा। इस त्रियाआमी चित्र वाली फिल्म के दो टुकड़े कर लिए जाय तो हर टुकड़े में पूरे सेव का साफ चित्र दिखाई पड़ेगा। इस चित्र वाली फिल्म को भले ही चार, आठ, सोलह, बत्तीस आदि टुकड़ों में बाँटा जाय तो भी इसके प्रत्येक टुकड़े में सेव का वही सम्पूर्ण चित्र दिखाई देगा। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि होलोग्राफी पारदर्शिता से युक्त हर एक टुकड़े में सेव का समग्र बिश्ब होता है।

यह बात कुछ ऐसी है, जैसे आसमान के चाँद का बिम्ब नदी के जल के विस्तार में अपनी सम्पूर्णता से प्रकट होता है। लेकिन यदि नदी के थोड़े से पानी को यदि कई छोटे-छोटे घड़ों में भर लें, तो उन घड़ों में भी चन्द्रमा का सम्पूर्ण बिम्ब उभरेगा। पानी के इस बंटवारे से चन्द्रमा की छबि नहीं बटेगी। होलोग्राफी का सिद्धान्त भी कुछ ऐसा ही है। विज्ञानवेत्ता फ्लाइड का कहना है कि साधारण चित्रों में सूचनाओं के समूह काफी बिखरे होते हैं। इसलिए उसके किसी एक टुकड़े से समग्रता उभरती नहीं है। जबकि होलोग्राफिक रीति से लिए गए चित्र में सब कुछ एकमएक होता है। इसीलिए उसके सूक्ष्मता के अंश में भी सम्पूर्णता के दर्शन होते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे ‘फील्ड प्रॉपर्टी’ कहते हैं। यह गुणवत्ता भौतिक विज्ञानियों ने पदार्थ में भी खोज निकाली है। क्वाँटम सिद्धान्त के प्रवर्तक अब अणु में विभु के दर्शन को कल्पना नहीं सम्पूर्ण वैज्ञानिक सत्य मानते हैं। विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि यह होलोग्राफिक सिद्धान्त हमारे अपने जीवन एवं विचारों की संरचना में भी लागू होता है।

विज्ञान मनीषी स्टेनले आर. डीन ने इस होलोग्राफिक सिद्धान्त का साम्य भारत देश के ऋषियों की आध्यात्मिक दृष्टि से स्थापित किया है। उनके अनुसार इनमें काफी कुछ समानता व साम्य है। वह कहते हैं कि आध्यात्मिक साधनाओं के फलस्वरूप मिली जीवन दृष्टि होलोग्राफ प्रयोगों के निष्कर्षों की भाँति है। क्योंकि इस दृष्टि से जीवन व पदार्थ के कण-कण में चेतना की सम्पूर्णता, अविभाज्यता व अखण्डता बड़ी साफ-साफ दिखती है। इस दृष्टि से यह सच्चाई बड़े ही साफ तौर पर उजागर होती है कि बंटवारा पदार्थ का हो सकता है, चेतना का कदापि नहीं। गीता के महोपदेशक भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों में- जो नष्ट हुआ, जिसका रूप बदला वह तो पदार्थ है। चेतना तो ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ देह कलेवर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। यहाँ तक कि देह में वास करती हुई दैहिक सीमाओं से पार व परे है।

पश्चिमी दुनिया के बड़े ही प्रख्यात दार्शनिक ज्ञान में एक नए युग के प्रवर्तक लुडविग विटगेंस्टाइन को भी एक समय इसी ज्ञान का अनुभव हुआ था। ज्ञान की इस अनुभूति से वह आनन्द विभोर हो गए। उन्होंने अपने मित्रों परिचितों से कहा कि ‘मैं-पन’ की सभी बातें बेकार हैं। जो तुम हो, वही मैं हूँ। और जो मैं हूँ वही तुम हो। रोज-रोज मर रहे, बदल रहे इस झूठे शरीर को भेद का आधार मानना बेकार है। सभी पूर्ण है और सभी में वही अविभाज्य चेतना है। अपनी इस भावानुभूति के बाद युग प्रवर्तक दार्शनिक विटगेंस्टाइन ने दर्शनशास्त्र में एक नए तर्क की स्थापना की। उन्होंने कहा कि ‘मैं’ शब्द को दार्शनिक ज्ञान से हटा देना चाहिए। क्योंकि इससे झूठा और कोई शब्द ही नहीं है। यदि किसी मैं की अनुभूति हो सकती है तो सिर्फ एक समष्टि मैं की। कई मैं तो हो ही नहीं सकते। चेतना की भौतिक परिमाप करना सम्भव नहीं है। यह सर्वव्यापी और अनन्त है। मजे की बात है कि ऐसा होते हुए भी सभी में एक साथ, मनुष्यों में ही नहीं सृष्टि के प्रत्येक जीव में, प्रकृति व पदार्थ के प्रत्येक कण में यह अपने सम्पूर्ण रूप में अनुभव होती है।

विज्ञानवेत्ताओं को चेतना की यह दार्शनिक पहेली इन दिनों बड़ी रुचिकर लग रही है। वे इसे हल करने के लिए कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। इनमें से कइयों ने तो अपने प्रयोगों व शोध-अनुसन्धान की प्रक्रियाओं का आधार भारत देश के उपनिषद् ज्ञान को बनाया है। ऐसे ही एक वैज्ञानिक जे.ए. एशबी हैं। उन्होंने चेतना के कई रहस्यों को उजागर करने वाली एक किताब लिखी है, ‘होलोग्राफिक मॉडल ऑफ काँशियसनेस’। इस पुस्तक में प्रो. एशबी का कहना है कि पहेलियों जैसी लगने वाली उपनिषदों की श्रुतियाँ, दरअसल भारत के प्राचीन ऋषियों के गहन प्रयोगात्मक निष्कर्ष हैं। उन्होंने चेतना के बारे में हजारों साल पहले जो तथ्य उजागर किए थे, अब वे होलोग्राफिक सिद्धान्तों के वैज्ञानिक उजाले में प्रमाणित होने लगे हैं।

प्रो. एशबी ने अपने शोध-अनुसन्धान के प्रयोगों व इनके निष्कर्षों के क्रम में चेतना की अभिव्यक्ति की कई भावी सम्भावनाएँ जतायी हैं। कई विज्ञानवेत्ता इन्हें असम्भव सम्भावनाएँ मानते हैं। लेकिन जार्ज एशले एशबी का कहना है कि किन्हीं भी सम्भावनाओं को असम्भव कहना वैज्ञानिक सिद्धान्तों की मौलिक प्रकृति के विरुद्ध है। सच्ची वैज्ञानिकता जीवन व प्रकृति की सभी सम्भावनाओं को विकसित करके, उन्हें सार्थक अभिव्यक्ति देने व मूर्त रूप करने का प्रयास-पुरुषार्थ है। एशबी के अनुसार कोई भी मनुष्य अपनी अन्तर्चेतना को पुष्ट-परिपक्व व सक्षम बनाकर स्वयं को एक साथ अनेकों स्थानों पर अभिव्यक्त कर सकता है। अनेक स्थानों पर एक साथ उपस्थित होने पर भी उसकी चेतना की सम्पूर्णता में कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा।

अपने इस तर्क को पुष्ट करने के लिए प्रो. एशबी ने तिब्बत जाकर कई आध्यात्मिक साधकों से मिलने वाली मैडम अलेक्जेण्डरा नील की पुस्तक में उल्लेखित कई प्रमाणों का हवाला दिया है। मैडम नील ने तिब्बत के कई दुर्गम स्थानों की साहसिक यात्राएँ कीं। वहाँ की गहन-गुफाओं में रहने वाले कई आश्चर्यजनक साधकों से वह स्वयं मिलीं। यहाँ तक कि वहाँ कुछ काल तक रहकर स्वयं भी साधनाएँ कीं। इसके बाद सभी तरह के संस्मरणों को लिपिबद्ध किया। ये संस्मरण उनकी कई कृतियों में प्रकाशित हुए। ऐसी ही एक कृति का नाम है- ‘माई जर्नी टु तिब्बत’। यह पुस्तक चेतना की आश्चर्यजनक सम्भावनाओं का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।

इस पुस्तक में तिब्बत के तवाँग मठ में साधना करने वाले शियात्सान राम्पा नाम के एक लामा का उल्लेख है। यह लामा आश्चर्यजनक आध्यात्मिक शक्तियों व विभूतियों का स्वामी था। मैडम नील का कहना है कि शियात्सान राम्पा नाम का यह लामा साधु अपने मठ में समाधिस्थ रहते हुए भी कई स्थानों पर एक साथ प्रकट हो सकता था। मैडम नील ने विभिन्न तरीकों के इसके प्रमाण भी जुटाए। जहाँ-जहाँ पर वह प्रकट हुआ, वहाँ एक साथ, एक ही समय किन्तु अनेक स्थानों पर उसके स्पर्श व आशीष की अनुभूति पायी। मैडम नील के अनुसार ऐसा वह अपने सूक्ष्म शरीर को विभाजित करके करता था। उसका यह विभाजित सूक्ष्म शरीर अपने संकल्प बल से कहीं भी स्थूल शरीर का निर्माण करके प्रकट हो जाता था। लेकिन सभी जगह उसकी चेतना सर्वथा अविभाज्य रहती।

सुविख्यात वैज्ञानिक जार्ज एशले-एशबी, अलैक्जेण्डरा नील के इस संस्मरण से सहमत हैं। उनका कहना है कि आध्यात्मिक प्रयोगों से यह सम्भव है। एशबी के अनुसार वैज्ञानिक सिद्धान्तों से सूक्ष्म शरीर के विभाजन की रीति तो अभी तक पता नहीं चल सकी है। पर होलोग्राफिक सिद्धान्त से किसी भी रूप में चेतना की सम्पूर्णता की स्थिति स्पष्ट है। जार्ज एशले कहते हैं कि चेतना की अभिव्यक्ति कितने ही स्थानों पर कितनी ही तरह से क्यों न हो, पर वह रहती सदा ही अखण्डित और अविभाज्य है। उनका मानना है जो सम्पूर्णता के इस रहस्य को जानते हैं, वही चेतना के सत्य को समझते हैं। सभी आध्यात्मिक साधनाएँ सिद्धान्त, प्रयोग व उनके निष्कर्षों में गहरी वैज्ञानिकता है। जो भविष्य में दिनों-दिन स्पष्ट होती जाएगी।


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