अहंता की गाँठ खुले तो आत्मबोध हो

July 2002

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व्यक्तित्व की व्याधियाँ इन दिनों बेतहाशा बढ़ी हैं। अनजाने ही आदमी इनके चक्रव्यूह में उलझ कर रह गया है। कुण्ठा, निराशा, हताशा, अवसाद, चिन्ता, तनाव आदि के अनेकों कुचक्र उसे घेरे हुए हैं। इनमें से किसी एक से जैसे-तैसे यदि वह निकल पाया तो अनायास ही दूसरे में फँस जाता है। कारण अनेकों होते हैं, पर परिणाम मनस्ताप के रूप में सामने आता है। मानसिक और भावनात्मक पीड़ा की छटपटाहट उसे घेर लेती है। व्यक्तित्व की अनेकों व्याधियाँ उसे व्याकुल कर देती हैं। इनसे छुटकारा पाने के कोशिशें कम नहीं हुई। मनोविज्ञान का समूचा सरंजाम इसी के लिए जन्मा और जुटाया गया है। इसके सभी सिद्धान्तों के प्रचलन का एक मात्र मकसद यही रहा है। फिर भी आज के दौर में प्रचलित कोशिशें बहुत ही अपर्याप्त साबित हुई है।

फ्रायड के सिद्धान्त, मनोविश्लेषण की तकनीकें, आज के युग में कारगर साबित नहीं हो रही हैं। इस विषय में लगातार शोध-अनुसंधान करने वाले विशेषज्ञों का मत है कि फ्रायड के ईड, इगो एवं सुपरइगो के तत्व व्यक्तित्व की सार्थक एवं समग्र व्याख्या करने में अक्षम हैं। ऐसे ही एक अनुसंधान विज्ञानी नोना कॉक्सहेड का कहना है कि किसी भी तत्व की विकृति को समझने व उसका निदान खोजने के पहले उसकी सही प्रकृति एवं क्रियाविधि को जानना जरूरी है। समूची प्रकृति को सही ढंग से समझे बगैर उसकी विकृति के स्वरूप एवं कारणों की खोज नहीं की जा सकती। और विकृति के मूल कारण को खोजे बिना भला उसका निदान किस तरह सम्भव है। इसलिए यदि मनुष्य के व्यक्तित्व को व्याधिमुक्त करना है, तो उसकी प्रकृति की सही ढंग से पहचान करनी होगी।

मनोविज्ञानी ह्यूस्टन स्मिथ इस पहचान का पहला तत्व बताते हुए कहते हैं कि मानव व्यक्तित्व विराट् है। उसके इस विराट् स्वरूप को क्षुद्रता व संकीर्णता में कैद करने की कोशिश ही व्याधियों का कारण है। स्मिथ का कहना है जीवन में क्षुद्रताएँ व संकीर्णताएँ जितनी ज्यादा बढ़ती हैं, व्यक्तित्व उतना ही ज्यादा व्याधिग्रस्त होता है। स्मिथ के अनुसार इस क्रम में दूसरा तत्व है दिए जाने की प्रवृत्ति। उनका मानना है मानव में अनन्त शक्तियाँ व असीमित सम्भावनाएँ हैं। वह अपनी इन शक्तियों व सम्भावनाओं से धरती व जीवन के सौंदर्य में लगातार अभिवृद्धि करने के लिए जन्मा है। लेकिन उसकी ये शक्तियाँ व सम्भावनाएँ तभी जाग्रत् व विकसित होगी जब वह इन्हें बाँटे व बिखेरे, इन्हें लोक हित में लगाए। ऐसा न करके जब वह माँगने की, चाहने की, कामनाओं के वशीभूत होने की क्षुद्रता अपना लेता है, तो वह व्याधिग्रस्त हो जाता है। ह्यूस्टन स्मिथ के अनुसार मानव व्यक्तित्व को व्याधिमुक्त करने के लिए उसके सही व यथार्थ स्वरूप की पहचान करनी होगी।

सुविख्यात मनीषी फ्रान्सेस वान के अनुसार ‘ट्रान्सपर्सनल साइकोलॉजी’ इसी उद्देश्य के लिए किया गया एक वैज्ञानिक प्रयास है। कई विशेषज्ञ इसे बिहैवियरज्म एवं ह्यमेनिस्टिक साइकोलॉजी का अतिविकसित रूप मानते हैं। लेकिन फ्रान्सेस वान ने इसके यथार्थ को बहुत ही सुन्दर रीति से समझाया है। उनका कहना है- ट्राँसपर्सनल का शाब्दिक अर्थ है वैयक्तिकता से परे। वान का कहना है कि व्यक्तित्व को अहंता से आबद्ध किए जाने का सामान्य प्रचलन है। ट्राँसपर्सनल साइकोलॉजी की रीति इस सामान्य प्रचलन से काफ अलग है। इसका विश्वास अहंता की गाँठ को खोलकर मानवीय व्यक्तित्व को सभी संकीर्णताओं और सीमाओं से मुक्त करने में है।

मानव चेतना के मर्मज्ञ मनीषी वान अपने निष्कर्षों में गोस्वामी तुलसीदास जी से काफी कुछ साम्य रखते हैं। गोस्वामी जी इस अहंता की ग्रन्थि के बारे में कहते हैं- ‘जदपि मृषा छूटति कठिनई’ अर्थात् यह गाँठ है तो एकदम झूठी, फिर भी यह छूटती बड़ी मुश्किल से है। वान भी यही कहते हैं। उनका कहना है कि अहंता का वास्तविक अस्तित्व नहीं है, फिर भी इसका बोध मनुष्य को घेरे हुए है। यह मिथ्या बोध ही अहंता की ग्रंथि है। यही व्यक्तित्व की समस्त व्याधियों का मूल है। मानवीय सम्पूर्णता की सभी सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति भारी अवरोध है। इस अवरोध को हटा देने पर मनुष्य सहज ही अपने विराट् स्वरूप की अनुभूति कर सकता है। अपने में समायी समस्त सम्भावनाओं एवं शक्तियों को जान सकता है और उनका सार्थक उपयोग कर सकता है।

इन अर्थों में ट्राँसपर्सनल साइकोलॉजी के सिद्धान्त, प्रयोग, तकनीकें एवं निष्कर्ष केवल मनुष्य के व्यक्तित्व को व्याधिमुक्त करने तक सीमित नहीं है। यह तो उनका पहला कदम भर है। अपने अगले कदम में यह मानवीय व्यक्तित्व की विराटता में समायी अनन्त सम्भावनाओं एवं असीमित शक्तियों को उजागर करने की प्रणाली है। इसके सिद्धान्त इस सत्य का ज्ञान कराते हैं कि मानवीय सम्बन्धों के सूत्र, आपस में एक दूसरे से यहाँ तक कि प्राकृतिक परिवेश एवं वातावरण से जुड़े हुए हैं। यहाँ तक कि अस्तित्व की गहराइयों में ये सभी आपस में एकात्म है, सघन रूप से एक हैं। इसलिए जब कभी मनुष्य को व्याधिमुक्त करने की बात होती है, तो वैश्विक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय परिदृश्य को भी व्याधिमुक्त करने के प्रयास भी स्पष्ट होते हैं।

कई विचारशील जन ट्राँसपर्सनल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों में धार्मिक एवं दार्शनिक तत्वों का आरोपण करते हैं। इनमें पारस्परिक साम्य व सामञ्जस्य बिठाने की कोशिश करते हैं। फ्रान्सेस वान को यह स्थिति स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि धार्मिक व दार्शनिक तत्व चिन्तन के प्रचलित स्वरूप में प्रायोगिक वैज्ञानिकता का कोई स्थान नहीं है। जबकि ट्राँसपर्सनल मनोविज्ञान का सारा ढाँचा वैज्ञानिक प्रयोगों पर टिका है। वान के अनुसार यह भारी फर्क है। एक तरफ सिर्फ श्रद्धा व आस्था है, तो दूसरी ओर तर्क एवं प्रयोग। वान को इन दोनों के मिलन का कोई बिन्दु नजर नहीं आता। फ्रान्सेस वान अपने स्थान पर सही हैं, क्योंकि उनका परिचय केवल बाइबिल के पृष्ठो तक रहा है। वैदिक ज्ञान, उपनिषद् एवं योग के प्रयोगों से वह अपरिचित हैं।

यदि ऋषियों की अनुसन्धान साधना से वह परिचित होते, तो वे अपने प्रयोगों को और भी अधिक सराहनीय एवं समग्र बना सकते हैं। लेकिन फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ट्राँसपर्सनल साइकोलॉजी पश्चिम की विज्ञान साधना एवं ऋषियों के आध्यात्मिक प्रयोगों के बीच एक सुदृढ़ सेतु हो सकती है। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में इसके प्रायोगिक स्वरूप को विकसित करने की कोशिश इन दिनों की जा रही है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय के आचार्यगण भी इसमें महत्वपूर्ण सहयोग कर रहे हैं। मानवीय व्यक्तित्व को व्याधिमुक्त करने के लिए ट्राँसपर्सनल साइकोलॉजी एवं अध्यात्म विज्ञान की तकनीकों की समन्वित प्रयोग विधियाँ विकसित की गयी हैं।

वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के अध्ययन क्षेत्र में यह एक नयी तकनीक है। इसमें व्यक्तित्व की व्याधि के मूल कारण को खोजने के साथ उसको हटाने व मिटाने के लिए अध्यात्म साधना की कोई उपयुक्त विधि निर्देशित की जाती है। इस प्रयोग विधि से होने वाले परिणामों की जाँच परख ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वैज्ञानिक उपकरणों के साथ स्टैंडर्ड मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के द्वारा की जाती है। इससे मिलने वाले आँकड़ों की साम्यकीय गणना से वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के प्रायोगिक निष्कर्ष उजागर होते हैं। इस तकनीक में जीवन शैली पर विशेष ध्यान दिया गया है। क्योंकि व्यक्तित्व को व्याधिग्रस्त करने का यथार्थ कारण इसी का कोई न कोई बिन्दु है। इस कारण को मिटाने के लिए इसमें अपेक्षित बदलाव जरूरी है।

व्यक्तित्व को व्याधिमुक्त करने वाले ये प्रयोग अभी प्रारम्भिक दशा में है। फिर भी कुछ प्रयोगों के जो निष्कर्ष सामने आए हैं, वे अति उत्साहवर्धक है। जिज्ञासु इन्हें अखण्ड ज्योति के पृष्ठो पर पढ़ेंगे। इन निष्कर्षों से जहाँ अध्यात्मविद्या की समर्थता प्रकट होती है। वहीं यह सत्य भी प्रकट होता है कि देश व विश्व के जन-जन को इनसे लाभान्वित करने के लिए इनमें आधुनिक विज्ञान की तकनीकों का समावेश जरूरी है। निष्कर्षों के वैज्ञानिक आँकलन की दृष्टि से भी यह अनिवार्य है। अभी तक के निष्कर्ष यही प्रमाणित करते हैं कि अहंता की सूक्ष्मताओं से परिचित होकर हमें इससे छुटकारा पाने का साहस जुटाना ही होगा। ट्राँसपर्सनल साइकोलॉजी भी इसी ऋषि चिन्तन की ओर संकेत करती है।


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