नैतिकता के यक्ष प्रश्न एवं उनके वैज्ञानिक समाधान

July 2002

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नैतिकता के यक्ष प्रश्न जीवन में सब तरफ हैं। जीवन का केन्द्र मनुष्य का व्यक्तित्व हो या फिर उसके विस्तार के रूप में समाज, इन कंटीले काँटों के घाव हर कहीं है। इन सवालों के सही और सटीक हल न खोजे जाने के कारण ही परिवार, समूह, समुदाय आदि समाज के सभी दायरों में विघटन एवं अलगाव हुआ है। भारत सहित दुनिया के प्रायः सभी देशों में एक सी स्थिति है। मानवीय जीवन की प्रायः हर संस्था टूट-दरक गयी है। हर देश की सामाजिक संरचना चरमरा गयी है। पुरानी नैतिक स्थापनाओं को नयी पीढ़ी किसी भी तरह स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। पुरानी पीढ़ी अपने जमाने की नैतिक मर्यादाओं को स्थापित करना चाहती है, लेकिन नयी पीढ़ी इन्हें सिरे से अनुपयोगी बता रही है।

नयी पीढ़ी ने नैतिकता के औचित्य पर नए सवाल उठाए हैं। वह पुरानी पीढ़ी के पुराने पड़ चुके जवाबों से सन्तुष्ट-सहमत नहीं है। बुजुर्गों की यह बात उन्हें रास नहीं आती है कि हमारे बुजुर्गों ने कहा और हमने मान लिया। अब हम तुम्हें समझा रहे हैं तुम मान लो। श्रद्धा और आस्था की यह नैतिक परम्परा युवा पीढ़ी को अर्थहीन लग रही है। उन्हें तर्क और प्रयोगों का अर्थपूर्ण विज्ञान चाहिए। जिसमें उनके द्वारा उठाए गए यक्ष प्रश्नों के वैज्ञानिक हल हों। इस सम्बन्ध में सबसे पहला और केन्द्रीय सवाल है कि भोग के अर्जन और उसके उपभोग की क्षमता के रहते हुए स्वच्छन्द भोग क्यों नहीं? स्वच्छन्द भोग में जब इन्द्रिय सुख सर्वविदित है, तब फिर उसका त्याग किस महत्वपूर्ण सुख के लिए किया जाय?

नैतिकता के इन व्यक्तिगत सवालों के अलावा कई सामाजिक सवाल भी हैं। हालाँकि ये सवाल भी प्रकारान्तर से व्यक्तिगत जिन्दगी से जुड़े हुए हैं। ऐसे-सवालों में सर्वमान्य सवाल है कि जब संयुक्त परिवार व्यक्तिगत सुख में बड़ी ही स्पष्ट रीति से बाधक है, तब फिर उसका बोझ क्यों उठाया जाय? बुजुर्गों की सेवा करने की क्या जरूरत है? इन और ऐसे ही अनेकों यक्ष प्रश्नों का सारभूत तत्व इतना ही है कि नैतिक मर्यादाएँ, नैतिक वर्जनाएँ, नैतिक मूल्य प्रायः सुख-भोग में बाधा ही पहुँचाते हैं, तब ऐसे में उन्हें क्यों ढोया जाय? ये सभी सवाल आज के भारत के हैं, जहाँ के युवा आज धन कमाने के लिए किसी भी नैतिक आचरण की परवाह करने के लिए तैयार नहीं हैं। जहाँ के अफसर व नेता और अधिक धन व और ऊँचे पद के लिए किसी भी महाभ्रष्टता को बड़ी ही आसानी से अंगीकार कर लेते हैं।

नैतिकता के ये यक्ष प्रश्न उस रूप के हैं, जहाँ की बालाएँ भोगवाद की बाढ़ में बेतरतीब बह रही हैं। ये सवाल है जापान के, जहाँ स्कूल व कॉलेज जाने वाली छात्राओं का प्रिय शौक ‘इजोकोसाई’ (एक तरह का देह व्यापार) है। इसे वे अपनी हॉबी मानती हैं। नैतिकता के सवालों के इन कंटीले काँटों की फसल अमेरिका में भी खूब जोर-शोर से लहलहाती हुई झूम रही है। जहाँ पिछले दिनों लॉस ऐन्जिल्स शहर में एक किशोर ने अपने चचेरे भाई के साथ मिलकर केवल शौक के लिए अपनी चाची की हत्या कर दी। वहाँ बेतहाशा बढ़ते उन्मुक्त भोग ने बच्चों का बचपन एवं युवाओं का यौवन छीन लिया है। क्योंकि वहाँ बच्चे यौवन के सुख भोगना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति से ग्रसित बचपन जब किशोर अवस्था की दहलीज पर कदम रखता है, तब तक उनकी जीवनी शक्ति उनसे विदा ले चुकी होती है।

इनमें से किसी को वेद वचन या सन्तवाणी पढ़कर समझाया नहीं जा सकता। क्योंकि वे इसे सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। सुकरात का, काण्ट का तत्वदर्शन इनके लिए अर्थहीन है क्योंकि इसमें वे अपने सवालों के सामयिक समाधान नहीं पाते हैं। इनके सवालों के हल के लिए हमें नैतिकता के नए विज्ञान को जन्म देना होगा। जो नैतिकता के अर्थ स्वरूप व उद्देश्य के साथ उसकी समसामयिक आवश्यकता को बड़े ही तर्क पूर्ण एवं प्रयोग सम्मत रीति से सिद्ध कर सके। इस नए विज्ञान की आधारभूत परिकल्पना यह है कि नैतिकता अपने वास्तविक अर्थों में जीवन पथ है, जिसका अन्तिम बिन्दु जीवन का चरम विकास है। जीवन के इस चरम विकास में सभी तरह की शान्ति है, परम आनन्द है और ज्ञान का प्रकाश है। नैतिकता के जीवन पथ से विचलित होने वाले जीवन के इस विकसित स्वरूप की अनुभूति कभी भी नहीं कर सकते।

नैतिकता के सभी यक्ष प्रश्नों के समाधान इस वैज्ञानिक परिकल्पना पर आधारित प्रयोगों में है। इस परिकल्पना के प्रयोगात्मक निष्कर्ष ही आज की युवा पीढ़ी को सार्थक समाधान दे सकते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इन प्रयोगों की शुरुआत भी कर दी है। इन्हीं में से एक एरिक फ्रॉम हैं। इन्होंने अपने निष्कर्षों को कुछ बिन्दुओं में स्पष्ट करने की कोशिश की है- 1. नैतिकता का औचित्य जीवन के सही स्वरूप बोध से स्वतः सिद्ध हो जाता है। जीवन बोध यदि विकृत है तो फिर नैतिकता की अवहेलना, उपेक्षा मनुष्य का स्वाभाविक कर्म बन जाएगी। 2. सुख भोग के लिए त्यागी जाने वाली नैतिकता का अन्त भयानक व विनाशक दुःखों में होता है। 3. नैतिक मर्यादाओं की अवहेलना करने वाले प्रायः मनोरोगी हो जाते हैं। यदि ऐसा अभी तक नहीं हुआ है, तो आगे ऐसा होना सुनिश्चित है।

एरिक फ्रॉम के ये तीनों निष्कर्ष उसके एक विशिष्ट प्रयोग पर आधारित हैं। अपने इस प्रयोग के लिए उसने विभिन्न किन्तु निश्चित आयु वर्ग के स्त्री व पुरुषों को लिया। इस प्रयोग के लिए पहले सभी को उनके आयु वर्ग के अनुसार अलग-अलग समूहों में बाँटा गया। इनमें से पहले समूह को यह समझाया गया, मनुष्य जीवन का सही स्वरूप व सार्थक रीति-नीति क्या है। इन्हें बताया गया मनुष्य सिर्फ देह और मन तक सीमित नहीं है। उसका केन्द्रीय तत्व आत्मा है। यही यथार्थ में ज्ञान, शक्ति व आनन्द का स्रोत है। परन्तु इसकी अनुभूति के लिए कुछ नीति-नियमों का पालन अनिवार्य है। जिस समूह को यह बात भली भाँति समझायी गयी वे बड़े ही उत्साह से नैतिक आदर्शों के पालन के लिए तैयार हो गए। इस प्रयोग समूह के विपरीत नियंत्रण समूह को नैतिक आदर्श तो बताए गए, परन्तु उन्हें जीवन का सच्चा स्वरूप नहीं समझाया गया। लगभग एक वर्ष तक चले इस प्रयोग के परिणाम यह रहे, कि जीवन का सही स्वरूप समझने वाले प्रयोगात्मक समूह के लोगों ने पूरी नियम निष्ठ के साथ नैतिक आदर्शों का पालन किया। इसके विपरीत कन्ट्रोल ग्रुप या नियंत्रण समूह के लोगों ने नीति-नियमों के पालन में उपेक्षा बरती।

प्रयोग समूह के जिन लोगों ने नैतिक आदर्शों का पालन बड़ी ही सच्चाई व निष्ठ के साथ की, उनकी मनोदशा में काफी गुणात्मक सुधार हुआ। उनके व्यक्तित्व की विभिन्न क्षमताओं में काफी बढ़ोत्तरी हुई। साथ ही कुण्ठा, अवसाद, अपराधबोध आदि विभिन्न मनोव्याधियों में भारी गिरावट हुआ। महिलाओं में यह प्रतिशत 99 व पुरुषों में 90 रहा। एरिक फ्रॉम ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि सम्भवतः महिलाएं आन्तरिक रूप से अधिक संवेदनशील होने के कारण पुरुषों की तुलना में ज्यादा ग्रहणशील होती हैं। इस प्रयोग में विभिन्न मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से यह वैज्ञानिक निष्कर्ष सुस्पष्ट हो गया कि नैतिक आदर्श व्यक्तित्व की विभिन्न क्षमताओं के विकास व प्रायः सभी तरह के मनोरोगों के निवारण में सहायक है।

कन्ट्रोल ग्रुप या नियंत्रण समूह के जिन लोगों ने नैतिक मर्यादाओं की उपेक्षा या अवहेलना की थी उनके व्यक्तित्व की विभिन्न क्षमताएँ घटीं और कुण्ठा, अवसाद व अपराधबोध आदि मनोरोगों में भारी बढ़ोत्तरी हुई। कई तो ऐसे उदाहरण सामने आए कि इस नियंत्रण समूह में जो लोग प्रायः स्वस्थ-सामान्य रह रहे थे, उनमें नैतिकता की भरपूर अवहेलना के कारण विभिन्न मनोरोग अंकुरित होने लगे। इससे यह वैज्ञानिक तथ्य प्रकट हुआ कि नैतिक मर्यादाओं की अवहेलना करने वाले लोगों में प्रायः मनोरोगी होने की सम्भावना रहती है।

एरिक फ्रॉम ने अपने इन प्रयोगों व निष्कर्षों को जब ‘मॉरल वैल्यूज एण्ड मेन्टल डिसऑडर्स’ के नाम से शोध पत्र के रूप में प्रकाशित किया, तो युवाओं में भारी हलचल मची। भारी संख्या में विश्व भर के युवा नैतिक आदर्शों को अपनाने के लिए उन्मुख हुए। उनमें से कुछ एक ने कहा कि उन्होंने नैतिकता के सम्बन्ध में जो प्रश्न उठाए थे, अब उनका समाधान होने लगा है। युवा वर्ग के विश्व-व्यापी सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष सामने आया कि नैतिकता के यक्ष प्रश्नों के समाधान के लिए तत्वदर्शन के सिद्धान्त नहीं वैज्ञानिक प्रयोग आवश्यक हैं। इन्हीं के निष्कर्षों से सभी सार्थक समाधान मिलेंगे।


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