दाँपत्य सुख से ऊबी हुई आधुनिकता

January 2001

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कामकाजी दंपत्तियों का किया गया एक अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि कैरियर बनाने के लोभ में बच्चों से छुटकारा पा चुके दंपत्ति आपस में भी ज्यादा रुचि नहीं लेते। 30 से 45 वर्ष की आयु वाले कामकाजी दंपत्तियों में चालीस प्रतिशत लोगों का संबंध सिर्फ एक छत के नीचे रहने जैसा है।

आधुनिक सभ्यता अथवा कहें कि उपभोक्ता संस्कृति ने व्यक्ति और समाज को अपने ढंग से प्रभावित किया हो, उन्हें बरगलाया-फुसलाया हो, लेकिन परिवार संस्था को तो नष्ट-भ्रष्ट ही कर दिया है। किसी समय संयुक्त परिवार में माता-पिता या सास-ससुर और देवर-जेठ आदि दंपत्ति को सँभाले रहते थे। पति-पत्नी में अहं या ऐषणाओं की टकराहट होती, तो परिवार के दूसरे लोग उसे टूटने की ओर जाने से पहले ही दखल दे लेते थे। पारिवारिक जीवन में क्लेश-कलह आगे नहीं बढ़ पाता था। अब संयुक्त परिवार टूटते जा रहे हैं। दखल देने वाला कोई रहा नहीं। विवाद हद से ज्यादा बढ़ता है, तो पास-पड़ोस के लोग, मित्र या दूर बसे नाते-रिश्तेदार (चाचा, ताऊ, सास-ससुर आदि) समझाने-बुझाने चले आते हैं। प्रभावशाली दखल वे भी नहीं दे पाते, क्योंकि वैसे संबंध ही नहीं रहे।

संयुक्त परिवार टूटने के बाद जो ढाँचा बना, उसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे रह गए। अब इस इकाई को ही परिवार कहते हैं। मध्यम वर्ग में चलन यह है कि पति-पत्नी दोनों काम-धंधे पर निकल जाते हैं। घर में बच्चे अकेले रह गए। ज्यादा छोटे हुए, तो उन्हें केयर सेंटर, बालबाड़ी या प्री नर्सरी स्कूलों में छोड़ दिया। बच्चों को वह पोषण-संरक्षण नहीं मिलता, जो दादा-दादी या माँ के सान्निध्य में मिलता था। उन बच्चों की समस्या अपनी जगह है। समाजशास्त्री एक नया संकट इन दिनों अनुभव कर रहे हैं। संकट यह है कि अहं और एषणा के इर्द-गिर्द घूमने वाली मानसिकता दाँपत्य जीवन में भी दरार, टूटन और विघटन पैदा कर रही है। कामकाजी दंपत्तियों का किया गया एक अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि कैरियर बनाने के लोभ में बच्चों से छुटकारा पा चुके दंपत्ति आपस में भी ज्यादा रुचि नहीं लेते। 30 से 45 वर्ष की आयु वाले कामकाजी दंपत्तियों में चालीस प्रतिशत लोगों का संबंध सिर्फ एक छत के नीचे रहने जैसा है।

जीवन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करती रहने वाली स्वयंसेवी संस्था ‘अनुभूति’ ने एक हजार दंपत्तियों से संपर्क किया। उन्हें एक प्रश्नावली दी और बातचीत भी की। प्रश्नावली में बीस सवाल थे। सभी सवाल पहली नजर में बहु मामूली थे। जैसे दफ्तर से पहले कौन लौटता है? पति-पत्नी में पहले से जो भी पहले घर पहुँच जाता है, वह दूसरे के आने पर किस तरह स्वागत करता है? घर आ जाने से रात सोने तक का समय कैसे बीतता है? घरेलू कामों के अलावा दोनों एक-दूसरे के निजी जीवन में कितनी दिलचस्पी लेते हैं, जैसे दफ्तर के अनुभव एक-दूसरे से बाँटते हैं या नहीं? एक-दूसरे के साथ होने के लिए कितने अधीर रहते हैं? जब भी कोई बीमार पड़ता है, तो दूसरा साथी क्या करता है? घर से बाहर कोई पुरुष या महिला मित्र है अथवा नहीं? पति-पत्नी अपने मित्रों के बारे में एक-दूसरे को बताते-समझाते हैं? एकाँत क्षणों को कैसे व्यतीत करते हैं? छुट्टी का दिन कैसे व्यतीत करते हैं?

अंतिम और महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह था कि पति-पत्नी की एक-दूसरे के बारे में क्या राय है? इस प्रश्न का उत्तर लिखकर देना जरूरी नहीं था। मौखिक भी दिया जा सकता था। जिस तरह के उत्तर आए, उनसे आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ज्यादातर लोगों ने अपने मन की बात लिखने की बजाय कहकर बताना ही ठीक समझा। पता नहीं, सर्वेक्षण करने वाले पति या पत्नी से चुगली ही कर बैठें। जिस आयु-वर्ग के लोगों से संपर्क किया गया, वे न तो नव विवाहित थे और न ही वृद्ध या अधेड़ उम्र के। तीस से पैंतालीस वर्ष की आयु वाले जोड़ों को परिपक्व और समझदार कहा जा सकता है। कम-से-कम उनमें नवविवाहितों की तरह आवेग या बेटे-बेटियों का जीवन सँवारने में लग जाने की चिंता नहीं होती। वे औसत स्तर का स्वस्थ दाँपत्य जी रहे हो सकते हैं।

आश्चर्य की बात यह कि जिस आयु-वर्ग में औसत स्वस्थ संबंधों की अपेक्षा की जाती है, वही सबसे ज्यादा ऊबा और एक-दूसरे से कतराने वाला साबित हुआ। जीवन-साथी के प्रति अपनी धारणा बताते हुए सत्तर प्रतिशत लोगों के स्वर शिकायत से भरे हुए थे। पंद्रह प्रतिशत लोगों ने साफ कहा कि वे पति अथवा पत्नी से तंग आ चुके हैं। छुटकारा पाने का कोई सौम्य रास्ता मिल जाए, तो उसे खुशी से अपनाएँगे। छुटकारा पाना ही है, तो सौम्य रास्ता ही क्यों? एक झटके में भी संबंध तोड़े जा सकते हैं। यह पूछने पर उत्तरदाता का कहना था कि आगे की जिंदगी में वे कोई उथल-पुथल नहीं लाना चाहते। सुख-शाँति के विकल्प बचे रहें और जिंदगी नए ढंग से शुरू कर पाए, इसकी आशा अभी बाकी है। यानी छुटकारा पाने के बाद पुनः एक जीवन साथी का चुनाव किया जा सकता है।

पैंतीस-चालीस वर्ष की उम्र में नए जीवन-साथी की तलाश का कारण यौनसुख की कामना नहीं हो सकती। इस संबंध में एक और अध्ययन है। उसकी चर्चा से पहले नए साथी की तलाश के कारण जान लें। पति अथवा पत्नी से छुटकारा पाने की साध पाले हुए लोगों को इससे अपने कैरियर में सहायता मिलती दिखाई दे रही थी। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मुँबई दफ्तर में मैनेजर एस. दिवाकर (नाम कल्पित) को अपनी पत्नी से सिर्फ इसलिए ऊब होने लगी कि वह एक प्रतिष्ठित दैनिक में साहित्य संपादक है। दिवाकर की राय में वह आगे नहीं जा सकती। उधर बहुराष्ट्रीय कंपनी में एक ऐसी सहकर्मी से उसकी अंतरंगता बढ़ गई है, जो संभावनापूर्ण है। दिवाकर का मानना था कि पत्रकार बीबी से छुटकारा मिले, तो सहकर्मी मित्र के साथ जोड़ी बनाकर कारोबारी जीवन में कुलाचें भरी जा सकती हैं। जिस महिला के साथ उसने सपने सँजोए, वह भी मैनेजर ही है और दिवाकर की राय में ज्यादा होशियार।

एक अन्य प्रसंग में पत्नी अपने परिवार से इसलिए छुटकारा पाना चाहती है कि पति व्यवसायी है। जब विवाह हुआ, तो सुनंदा इंटरमीडिएट पास थी और पति अपने पैतृक व्यवसाय को सँभालने की कोशिश कर रहे थे। सुनंदा घर में खाली रहती। समय बिताने के लिए योग्यता का विकास एक आसान रास्ता सूझा। पति ने सहयोग किया और सुनंदा ने उपाधि परीक्षा पास कर ली। बी.एड कर लिया और माध्यमिक विद्यालय में नौकरी लग गई। पति अपने पैतृक व्यवसाय में ही थे। अब जम गए हैं। बीस-पच्चीस हजार रुपये हर महीने कमा लेते हैं, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में पत्नी से थोड़े पिछड़े हैं। सुनंदा को लगता है कि पति उसके लायक नहीं हैं। अगर छुटकारा मिला जाए, तो अच्छा रहेगा। अच्छे ओहदे पर काम कर रहे वरिष्ठ अधिकारी के साथ जीवन बिता सके, तो ज्यादा सुखी रहेगी। उन्नति करने का अवसर मिलेगा।

प्रसंग बताते हैं कि दाँपत्य जीवन में निष्ठा और अनुराग का अभाव होता जा रहा है। इसी के चलते एक-दूसरे को तिलाँजलि देने की बात मन में आती है। आमतौर पर समझा जाता है कि यौनसुख की तलाश में लोग एक-दूसरे से विमुख होते हैं। पति अथवा पत्नी से यौन तृप्ति नहीं होती, इसलिए स्त्रियाँ परपुरुषगामी होती हैं और पुरुष दूसरी स्त्रियों को ताड़ते रहते हैं। समाज में व्यभिचारी लोगों की संख्या बहुत है। कामलिप्सा के कारण एक-दूसरे को धोखा देने और दूसरों से संबंध रखने की प्रवृत्ति भी खूब पनपी है। ‘अनुभूति’ ने पति-पत्नी के संबंधों को अलग कोण से देखने की कोशिश की और पाया कि तीस से पैंतालीस की उम्र वाले दंपत्तियों के लिए यौन तृप्ति तीसरी-चौथी प्राथमिकता है। अध्ययन के लिए चुने गए दंपत्तियों में चालीस प्रतिशत लोगों ने कहीं और संबंध बनाने के बारे में सोचा ही नहीं। कामकाजी जीवन में दूसरी स्त्रियों या पुरुषों के संपर्क में आना पड़ता है, यह अलग बात है। हँसी-मजाक, उठने-बैठने और जरूरत पड़ने पर मदद के लिए दौड़ जाने जैसी दोस्ती भी बन जाती है, लेकिन इन लोगों के मन में यौन संबंधों की इच्छा नहीं जगी।

कारण यह नहीं है कि उन्होंने पतिव्रत अथवा पत्नीव्रत धर्म के निष्ठापूर्वक पालन करने की सौगंध खा ली हो। दिनभर भागदौड़ करते और विभिन्न तरह के तनाव झेलते हुए इतनी थकान आ जाती है कि इस तरफ ध्यान नहीं नहीं जाता। परिस्थितियों के कारण संयम-अनुशासन में रहने वालों का सोचना यह भी है कि इस तरह की पहल कामकाजी जीवन और मित्रता पर बुरा असर भी डाल सकती है। जो लोग अपने वर्तमान साथी को छोड़कर किसी और के साथ रहना-बसना चाहते हैं, उनके लिए भी कैरियर ही मुख्य है। साथ काम करने के कारण, लगाव, निर्भरता और अनुराग के कारण यह हो सकता है, लेकिन ‘सैक्स’ कारण कतई नहीं है।

एक अन्य विश्लेषण में यह भी निष्कर्ष सामने आया है कि ‘सैक्स’ विवाहित जीवन से भी विदा हो रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया के 21 मई 2000 अंक में छपे इस विश्लेषण के अनुसार अति के कारण अथवा दूसरी प्राथमिकताओं के कारण कामकाजी दंपत्ति यौनसुख से प्रायः विरत रहने लगे हैं। उठती उम्र में ही एक-दूसरे से परिचित होने के बाद प्रणय संबंध हो जाने और कुछ ही महीनों में विवाह कर लेने का बड़ा कारण ‘सैक्स’ तो हो सकता है, लेकिन एकाध बच्चे का जन्म होने के बाद वह जल्दी ही विदा हो जाता है। चार-पाँच साल बीतने के बाद यह आकर्षण कम होने लगता है, धीरे-धीरे लगभग विदा हो जाता है।

विवाहित जीवन शुरू करने के बाद यौनसुख में ही डूबे रहने को, विश्लेषण में जल्दी ही एक-दूसरे से ऊब जाने का मुख्य कारण बताया गया है। खाना-पीना, उठना-बैठना, आना-जाना और यात्राएँ करना सभी कुछ होता है, लेकिन अपने काम में ही डूबे रहने वालों के लिए अंतरंग बने रहना कठिन होता जा रहा है। विश्लेषण इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि भावात्मक, पारिवारिक और आर्थिक आकर्षण बहुत जल्दी फीके पड़ने लगते हैं। यौनसुख ही उन्हें एक-दूसरे से बाँधे रखता है। उसके अभाव में दाँपत्य जीवन कितना चलेगा? उत्तर गृहस्थ धर्म की प्रेरणाओं में है। समर्पण, त्याग और सेवा की भावना हो, तो संबंधों का चिरंतन निर्वाह किया जा सकता है, लेकिन यह इसलिए संभव नहीं दिखाई देता कि पति-पत्नी का अहं, स्वार्थ और आकाँक्षाओं में तालमेल नहीं बैठ रहा। उनकी अपनी निताँत वैयक्तिक अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ हैं, जिनके चलते मन से बहुत देर तक साथ नहीं निभता।

आधुनिक दांपत्य का अध्ययन इस निष्कर्ष को और ज्यादा पुष्ट करता है। पूछे गए सवालों में पैंतीस प्रतिशत लोगों ने कहा कि पति या पत्नी में से जो भी पहले आ जाता है, वह बाद में आने वाले के प्रति कोई उमंग नहीं जताता। पत्नी यदि पहले आ गई हो, तो पति जरूर अपेक्षा करता है कि उसके जूते उतारने, बेल्ट खोलने, कपड़े बदलने में सहायता की जाए। चाय-पानी हाजिर रखी जाए। जरूरी नहीं कि यह अपेक्षा पूरी हो। अठारह प्रतिशत गृहिणियों का कहना था कि आधा-पौन घंटे पहले वे भी तो थककर आई होती हैं। विश्राम का उनका अपना मूड़ भी होता है। फिर पति पहले आ जाते हैं, तो हमारे घर लौट आने पर वे ही कहाँ स्वागत करते दिखाई देते हैं।

कामकाज से लौटी पत्नी के बारे में बाईस प्रतिशत पुरुषों की धारणा पुरातनपंथी-रूढ़िवादी ही थी। उनके अनुसार घर-गृहस्थी सँभालना स्त्रियों का काम है। वे कमाने के लिए जाती हैं, यह अलग बात है। इससे उनका कर्त्तव्य नहीं बदल जाता। स्त्री का धर्म है कि पति घर आए, तो दरवाजे पर उसका इंतजार करती दिखाई दे। उसके आराम का ध्यान रखे। यह पूछा गया कि पुरुष या पति का ऐसा कोई कर्त्तव्य नहीं बनता? जो उत्तर दिए गए उनका सार यह है कि पत्नी की तरह दरवाजे पर खड़ा होना या घर में चाय-पानी पेश करना पति का दायित्व नहीं है। यह स्त्री का ही कर्त्तव्य है। पुरुष का धर्म स्त्री को संरक्षण देना है। यदि पति सहयोग नहीं करे, अनुमति नहीं दे तो स्त्री काम-धंधा ही नहीं कर पाएगी। इसके अलावा पुरुष के कारण स्त्री समाज में गर्व और अधिकार से सिर उठाकर चलती है। जिस स्त्री का पति नहीं होता उसे लोग समाज में जीने कहाँ देते हैं। चील-कौओं की तरह नोच डालेंगे। ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं।

ये उत्तर पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता बताते हैं। आश्चर्य यह है कि अच्छे पदों पर बैठी महिलाएँ भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करती पाई गईं। इस सोच का जवाब स्त्री-पुरुषों की समानता और गृहस्थी की जिम्मेदारी साझा होने की बात कहते हुए भी दिया गया है। लेकिन इस तरह का उत्तर देने वाली महिलाओं में भी आवश्यक खुलापन, आत्मविश्वास और पैने तर्कों का अभाव ही था।

दाँपत्य संबंध कामचलाऊ ढंग से चलने का एक प्रमाण यह भी है कि अपने दफ्तर या व्यवसाय के बारे में तीस प्रतिशत लोग ही एक-दूसरे को बताते हैं। यह जानकारी अपने आप और पूछने पर दोनों तरह से दी जाती है। सत्रह प्रतिशत लोग औपचारिक बातों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कहते। कारण? अभिजित कोहली का उत्तर प्रतिनिधि अभिव्यक्ति है। सब कुछ या जरूरत से ज्यादा बताया जाए, तो ‘पार्टनर’ की माँग बढ़ने लगेगी। वह खुद भी तो कमाती है। खुद ही सारी बातें कहाँ बताती है? गृहिणियों की राय में दफ्तर की बातें बाँटने से पति महोदय की दखलंदाजी बढ़ने का खतरा रहता है। जरूरी भी नहीं है बताना। गृहस्थ जीवन में पति-पत्नी के बीच कोई परदा नहीं होने के आदर्श वाले भारतीय समाज में दोनों का ‘निजी’ जीवन भी होने लगा है। उसे एक-दूसरे के सामने नहीं खोलना चाहिए। बल्कि प्रयत्नपूर्वक अपनी निजता को गोपनीय रखना चाहिए। यह स्थिति दाँपत्य जीवन के सिर्फ ढकोसला रह जाने के अलावा क्या सिद्ध करती है? बाजार का तर्क है कि व्यक्ति अकेला हो तो उससे सौदा करना आसान रहता है। उपभोक्ता सामग्री आसानी से और ज्यादा खपाई जा सकती है। धर्म-अध्यात्म की प्रेरणा सामंजस्य, समर्पण और निष्ठा के लिए प्रेरित करती है। दोनों प्रवृत्तियों में किसकी जीत होती है, यह भविष्य बताएगा।


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