तीन शक्तिधाराएँ पथ प्रशस्त करेंगी इक्कीसवीं सदी का

January 2001

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यह एक सार्वभौम नियम है कि यदि मंजिल का, गंतव्य का स्थान निर्धारित हो, तो यात्रा किसी भी दिशा से आरंभ की जाए, देर-सबेर उस गंतव्य तक व्यक्ति पहुँचकर ही रहेगा। उदाहरण के लिए दिल्ली, कलकत्ता एवं मद्रास से मुँबई के लिए तीन व्यक्तियों द्वारा यात्रा की जाए, तो भले ही रास्ता तथा गाड़ियाँ अलग-अलग हों, किन्तु पहुँचेंगे वे सभी एक ही स्थान पर। यद्यपि यात्रा विभिन्न दिशाओं से आरंभ की गई है, किंतु अलग-अलग पथ पर चलते हुए निर्धारित केंद्र बिंदु पर अंततः वे तीनों पहुँच ही जाते हैं। प्रगति के हर क्षेत्र में यही नियम लागू होता है।

इन दिनों मानव समुदाय की सुख-शाँति, समृद्धि-वैभव हेतु समाज में कई प्रकार के प्रयास चल रहे हैं। स्थूल रूप से यदि इन्हें विभाजित किया जाए, तो ये तीन वर्गों में विभक्त होते हैं-(1) धर्म, (2) विज्ञान और (3) राजनीति। इस संबंध में प्रख्यात पत्रिका ‘नेचर’ के संपादक श्री रिचर्ड ग्रेगरी, जो वर्षों तक विज्ञान परिषद् ग्रेट ब्रिटेन के अध्यक्ष भी रहे हैं, ने अपनी पुस्तक ‘गाँड्स एंड मेन’ में लिखा है, “मेरे पितामह आजीवन धर्म का प्रचार करते रहे। मेरे पिता एक कट्टर समाजवादी नेता रहे और मुझे इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त तीसरे क्षेत्र विज्ञान क्षेत्र में काम करने का अवसर मिला। मैंने बिना किसी पूर्वाग्रह अथवा संबंधियों के प्रभाव के इन तीनों विषयों का गहरा अध्ययन किया है तथा उससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि धर्म, समाजवाद तथा विज्ञान तीनों द्वारा निर्दिष्ट जीवन-दर्शन आधारभूत रूप से एक ही है। तीनों का एक ही उद्देश्य है कि व्यक्ति एवं समाज का स्तर ऊँचा उठे। सत्यान्वेषण एवं आध्यात्मिक सिद्धाँतों को जीवन में किस प्रकार उतारा जाए, यही इनका मूलभूत प्रयोजन है।”

वस्तुतः इन तीनों के संबंध में जनमानस में बड़ी भ्राँतियाँ हैं। अपनी-अपनी चिंतन क्षमता के अनुरूप वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों एवं धर्मशास्त्रियों ने इन विषयों की परिभाषा को एक सीमा विशेष में बाँध दिया है, जबकि वास्तव में इनकी कोई विभाजन रेखा नहीं है। धर्म के संबंध में तो कहना ही होगा कि उसका समग्र स्वरूप सत्य की खोज को दृष्टिगत रखकर ही गढ़ा गया है। प्रथा-परंपराएँ तो समय के अनुरूप बदलते रहने वाली नियम-व्यवस्थाएँ भर हैं। इन्हें धर्म की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए। धर्म का मूल सिद्धाँत तो सभी मत-संप्रदायों में एक ही है, “सत्कर्मों द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करना तथा उसके अस्तित्व को मानना। वे यह भी मानते हैं कि ईश्वरीय व्यवस्था भले-बुरे कर्मों का पुरस्कार-दंड स्वयं निर्धारित करती है।”

धर्म का अर्थ है, वे आस्थाएँ, जो व्यक्ति को सत्प्रवृत्ति अपनाने और सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करें, ताकि उसका अपना और सामाजिक जीवन अधिकाधिक सुखी व समुन्नत बने। धर्म व्यक्ति की भाव-संवेदनाओं को, अंतःकरण के मर्मस्थल को प्रभावित कर सुख-शाँति एवं सुव्यवस्था की स्थापना करना चाहता है। धर्म प्रचारक जहाँ भी गए हैं तथा उन्होंने सच्चे मन से प्रयास किए हैं, वहाँ उन्हें इस तरह की अभीष्ट सफलता भी मिली है।

राजनीति का भी यही उद्देश्य है, समाज में शाँति, सुरक्षा व सुव्यवस्था बनाए रखना। अब तक विश्व की राजनीति ने विकास के जितने भी चरण पूरे किए हैं, उस क्षेत्र में जितने भी प्रयोग हुए हैं, सबके सब इसी उद्देश्य से किए गए। लोगों में जब अव्यवस्था व छीना-झपटी चलने लगी, बलवान दुर्बलों को दबाने लगे, तो व्यवस्था बनाई गई कि कुछ शक्तिशाली व्यक्ति इस अनर्थ का निवारण करें। बलवानों को उद्दंडता बरतने से रोकें तथा दुर्बलों को सुरक्षा एवं संरक्षण उपलब्ध कराएँ। राजतंत्र, प्रजातंत्र से लेकर अधिनायकवाद और समाजवादी राजनीतिक दर्शनों का एकमात्र यही उद्देश्य रहा कि समाज में कमजोर-से-कमजोर व्यक्ति को भी जीने और सुखपूर्वक जीवनयापन करने की सुविधा व अवसर समान रूप से मिल सके।

यों तो गलत व्यक्ति कहाँ नहीं होते और वे जहाँ भी रहते हैं, अच्छे उद्देश्यों से आरंभ किए गए कार्यों को गलत, विकृत और गया-गुजरा बना देते हैं। धर्मक्षेत्र को ही लें तो इसमें इन्हीं कारणों से विकृतियाँ आईं कि वह क्षेत्र गलत व्यक्तियों के हाथ में चला गया, जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए जनश्रद्धा का दोहन आरंभ कर दिया। लोकमानस में आदर्शवादी आस्थाओं, उत्कृष्ट भावनाओं और उच्च विचारणाओं की स्थापना का कार्य ताक में रखकर रूढ़िवादी परंपराओं, अंध-विश्वासों, रीति-रिवाजों तथा स्वयं के द्वारा दी गई व्यवस्थाओं के प्रति अंध-श्रद्धा रखने के लिए तैयार किया जाने लगा ताकि निजी स्वार्थ पूरे होते रहें।

धर्म के पास लोकमानस पर, जन भावनाओं पर प्रभाव डालने की शक्ति थी, तो राजनीति के पास दंड और बल की ताकत थी। इस शक्ति का उद्देश्य भी दुष्ट-दुर्जनों को दंड देना और उन्हें सही रास्ते पर चलाना था लेकिन हुआ यह कि राज्य व्यवस्था के संचालन सूत्र ऐसे व्यक्तियों के हाथों में पहुँच गए, जिनके लिए सामाजिक हित गौण और व्यक्तिगत स्वार्थ अधिक मूल्यवान् थे। जहाँ-जहाँ भी ऐसा अनर्थ हुआ, वहीं-वहीं विकृतियाँ, कुप्रबंधन और दोहन-शोषण की दुःखद परिस्थितियाँ दिखाई देने लगीं।

वास्तव में मूर्द्धन्यों द्वारा निर्धारित राजनीति का भी वही उद्देश्य था, जो धर्म का रहा है। राजनीति के माध्यम से बाहरी व्यवस्था सुधारने, उसे ठीक रखने के प्रयास किए जाने चाहिए, तो धर्मतंत्र से लोगों की आस्थाओं और भावनाओं को परिष्कृत होना चाहिए। इन्हीं दिनों पिछली-तीन-चार शताब्दियों में विज्ञान के रूप में मनुष्य के पास एक नया शक्ति स्रोत हाथ में आया। सृष्टि की विभिन्न गतिविधियों की जिज्ञासा और शोध की दृष्टि से अध्ययन करने पर मनुष्य के हाथ में कुछ ऐसे नियम व सूत्र आए, जिनसे मनुष्य को थका देने वाले श्रम से मुक्ति और उपलब्धियों के कोष में अभिवृद्धि की संभावनाएँ दिखाई देने लगीं। उन संभावनाओं को यंत्रों के आविष्कार, नए-नए शक्ति स्रोतों की शोध के रूप में साकार भी किया गया।

अब से पांच सौ वर्ष पूर्व के मनुष्य का जीवन कितनी असुविधाओं से ग्रस्त था, इसकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर मान लिया जाए कि कुछ दिनों के लिए रेलगाड़ी, मोटर, यान आदि सब बंद हो जाएँ, बिजली का उपयोग वर्जित कर दिया जाए, तो लोगों को अपना जीवन ही भार लगने लगेगा। पहले ये सुविधाएँ नहीं थीं, इसलिए मनुष्य इनके अभाव की कल्पना ही नहीं करता था। अब ये उपलब्ध हैं, इसलिए इनके बिना जीना भी दूभर लगता है। वह इसलिए कि हम इन सुविधा-साधनों के अभ्यस्त हो गए हैं, जो भी हो, इन वैज्ञानिक साधनों के कारण अब संसार इतना छोटा हो गया है कि सारा विश्व एक परिवार के रूप में सिमट गया है। इससे पूर्व अपने परिवार के किसी सदस्य को इतनी दूर बसने भी नहीं दिया जाता था, क्योंकि तब उससे सरलतापूर्वक संपर्क नहीं किया जा सकता था, परंतु आज हजारों मील दूरी होने पर भी कुछ ही घंटों में पहुँचा जा सकता है।

विज्ञान ने भी मनुष्य को सुरक्षित और शाँतिपूर्ण जीवन यापन के कितने ही आधार खड़े किए, परंतु धर्म और राजनीति की तरह ही विज्ञान का भी गलत उपयोग हुआ, जिससे मानव समाज के लिए और भी भयंकर संकट उठ खड़े हुए हैं। विज्ञान की उपलब्धियों का जब तक साधन के रूप में उपयोग किया जाता रहेगा, तब तक वह मनुष्य समाज को ऊँचा उठाने में योगदान देता रहेगा, लेकिन यदि इसका उपयोग अनुचित ढंग से शस्त्र की तरह होने लगा तो उसके परिणाम धर्म और राजनीति के दुरुपयोग से भी अधिक भयंकर-विनाशकारी होंगे, जैसा कि पिछले दो विश्वयुद्धों में देखा गया। यही कारण है कि अब विश्वभर के मूर्द्धन्य मनीषियों, वैज्ञानिकों को इस तथ्य को एक मत से स्वीकार करना पड़ा है कि धर्म और राजनीति के दुरुपयोग से भी उतने दुष्परिणाम नहीं हुए जितने कि विज्ञान के दुरुपयोग से संभावित हो गए हैं। क्योंकि धर्म और राजनीति तो अब तक एक व्यवस्था, एक तंत्र के रूप में ही कार्य कर रहे थे। उन क्षेत्रों की विकृतियाँ अपने-अपने सीमा क्षेत्र में ही अनर्थ उत्पन्न करती थीं, परंतु विज्ञान के रूप में उपलब्ध हुई महाशक्ति ने सारी मनुष्य जाति के लिए सर्वग्राही संकट उत्पन्न कर दिया है।

चाकू से बंधन भी काटे जा सकते हैं और हाथ-पैर भी। अग्नि में मकान की ईंटें भी पकाई जा सकती हैं और मकान को आग भी लगाई जा सकती है। कुएं के पानी से प्यास बुझाकर जीवनरक्षा भी की जा सकती है और उसमें कूदकर प्राण भी दिए जा सकते हैं। धर्म अर्थात् भावनाओं, राजनीति अर्थात् व्यवस्था में गलत व्यक्तियों का प्रवेश और उनके द्वारा किया गया दुरुपयोग हाथ-पैर काटने, मकान जलाने और कुएं में गिरकर प्राण गँवाने जैसी दुःखद स्थितियाँ ही उत्पन्न करेंगे।

क्या इन अनर्थों को रोकने का कोई उपाय नहीं है? यह प्रश्न करते हुए सुप्रसिद्ध दार्शनिक और वैज्ञानिक रिचर्ड ग्रेगरी ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक में कहा है, “तीन विभिन्न कोणों से चलने वाली ये तीन गाड़ियाँ यदि सही दिशा पर आ जाएँ, तो न केवल भविष्य के संकटों से सरलतापूर्वक बचा जा सकता है, वरन् उज्ज्वल भविष्य का सुँदर ताना-बाना भी बुना जा सकता है।”

क्या हैं भावी संकट? विज्ञान की विनाशकारी संभावनाएँ तो ऊपर बताई जा चुकी हैं। धर्म क्षेत्र में घुस पड़ी विकृतियाँ मनुष्य को अनास्थावान् बनाती जा रही हैं। राजनीति के क्षेत्र में आई विकृतियाँ उसे दिन-प्रतिदिन दुर्दम्य, स्वार्थी, उद्दंड और असामाजिक, अनैतिक बनाती जाएँगी। ऐसी स्थिति में आशा की किरण मात्र धर्मक्षेत्र में दिखाई पड़ती है, किंतु उसे भी अपने क्षेत्र में घुस पड़ी विकृतियों को हटाना पड़ेगा, साथ ही अवाँछनीय व्यक्तियों को निरुत्साहित करना होगा। इसके लिए कुछ ऐसे व्यक्तियों को आगे आना होगा, जो इस क्षेत्र में प्रकाश स्तंभ के रूप में चमक सकें। साधन और सामर्थ्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है, उन्हें उपयोग करने वाले व्यक्ति की सूझ-बूझ तथा दृष्टि। और यह धर्माचरण से ही विकसित होगी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भविष्य की राजनीति और कल का विज्ञान जब आध्यात्मिक मूल्यों से संचालित, प्रेरित होंगे, तभी वे अपनी समर्थता सिद्ध कर सकेंगे। तीनों का समन्वित स्वरूप ही समाज की भावी दिशाएँ और गतिविधियाँ निर्धारित करेगा।


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