नींद की स्थिति में होता है परोक्ष से आदान-प्रदान

January 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

लंबी अनिद्रा के कारण जब विद्युत् की आपूर्ति में अवरोध उत्पन्न होता है, तो न सिर्फ शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ाता है, अपितु उस शक्ति का ह्रास होने लगता है, जो अतींद्रिय अनुभूति का महत्त्वपूर्ण आधार है।

निद्रा मनुष्य के लिए आवश्यक और उपयोगी प्रक्रिया है। इसका न होना अथवा इससे वंचित कर देना व्यक्ति को विक्षुब्ध जैसी स्थिति में ला खड़ा करता है। सूक्ष्म सूचनाओं का महत्त्वपूर्ण आधार यही है। सामान्य मनुष्य के लिए सूक्ष्म जगत् से संपर्क इसी स्थिति में बन पड़ता है। यही शारीरिक-मानसिक थकान मिटाने का सर्वसुलभ साधन है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार निद्रा में सचेतन भाग अचेतन की स्थिति में सिर्फ इसलिए नहीं जाता कि उससे थके अंगों को आराम मिले, वरन् उस स्थिति में अंतरिक्ष में प्रवाहमान विद्युत्धाराओं में से उपयोगी अंश संगृहीत-संपादित करने का अवसर भी मिले, प्रयोजन यह भी होता है। एरियल और एंटीना विद्युत् चुँबकीय तरंगों को पकड़ते हैं। निद्रा अवस्था में हमारा अवचेतन मस्तिष्क वैसा ही बन जाता है और आकाश से इतनी विद्युत् खुराक प्राप्त कर लेता है, जिससे शारीरिक और मानसिक क्रिया–कलापों का संचालन ठीक प्रकार हो सके। निद्रा की पूर्ति न होने पर शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है, उसे मनोविज्ञान की भाषा में ‘चेतनात्मक बुभुक्षा’ कहते हैं। आवश्यक विद्युतीय खुराक न मिल पाने के कारण ही यह दशा पैदा होती है। इसके बने रहने पर मनुष्य विक्षिप्तों या अर्द्ध विक्षिप्तों जैसा व्यवहार करने लगता है। पागलपन का एक कारण अनिद्रा भी है। अनिद्रा में इस विद्युत् आहार की ही कमी पड़ती है।

लंबी अनिद्रा के कारण जब उक्त विद्युत् की आपूर्ति में अवरोध उत्पन्न होता है, तो न सिर्फ शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य गड़बड़ाता है, अपितु उस शक्ति का भी ह्रास होने लगता है, जो अतींद्रिय अनुभूति का महत्त्वपूर्ण आधार है। स्वस्थ व्यक्ति में जैसे-जैसे यह ऊर्जा बढ़ती है, इंद्रियातीत सामर्थ्य की संभावना भी बलवती होने लगती है। योगी-यती इसी विद्युत् को बढ़ाकर ऐसी क्षमताएँ अर्जित कर लेते हैं, जिन्हें जन सामान्य ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जानते हैं। निद्रा संवर्द्धन और क्षमता अभिवर्द्धन में इसका कितना बड़ा हाथ है, इसे प्राणायाम का कोई भी अभ्यासी सहज ही अनुभव कर सकता है। देखा गया है कि अभ्यास ज्यों-ज्यों बढ़ता है, बुद्धि तीक्ष्ण होती और गहरी निद्रा आती है। गहन निद्रा का एक गुण शारीरिक हलकापन भी है और दूसरा भविष्य संबंधी स्वप्न का दिग्दर्शन भी।

यों निद्रा संबंधी सामान्य सोच यह है कि रात्रि में हम जितना समय सोते हैं, उतना खोते हैं, पर यह अवधारणा अब गलत साबित होती जा रही है। वैज्ञानिक शोधें अब यह सिद्ध करने की स्थिति में आ गई हैं कि हमारा सोया हुआ समय भी उपयोगिता की दृष्टि से उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना जागरण का, बल्कि यह कहा जाए कि उससे भी अधिक, तो कदाचित् कोई अत्युक्ति न होगी। सीखने-सिखाने के कितने ही ऐसे कार्य इस दशा में भी संपन्न किए जा सकते हैं, जैसे जाग्रतावस्था में। मनोवैज्ञानिकों के इस कथन के पीछे सत्य अब सूर्य की तरह झाँकने और यह प्रमाणित करने लगा है कि नींद अब निरर्थक समयक्षेप जैसी प्रक्रिया न होकर ज्ञान-संपादन की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ऐसा ही एक समाचार पूर्व सोवियत संघ के ‘नोवोत्सी न्यूज एजेंसी’ ने अब से कुछ वर्ष पूर्व वहाँ के अखबारों में छापा, तो लोग आश्चर्यचकित रह गए। शरीर शास्त्रियों ने इसे शेखचिल्लियों जैसी कल्पना बताया, तो रूस के अनेक मनोविज्ञानियों ने उन मनःशास्त्रियों का उपहास उड़ाया, जिन्होंने इस प्रकार का दावा किया था, पर कई दिन पश्चात् जब वहाँ से परिणाम प्राप्त होने शुरू हुए, तो उनका संदेह जाता रहा। यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं भी वहाँ जाकर परीक्षण कर सूक्ष्म निरीक्षण किया और किसी प्रकार के संशय की गुंजाइश न रहने पर संतोष व्यक्त किया।

इस अनुसंधान की शुरुआत की भी अत्यंत रोचक घटना है। हुआ यों कि कुछ वर्ष पूर्व मूर्द्धन्य मनःशास्त्री इगोर इवानोविच अपने साथी मनोवैज्ञानिकों के साथ नींद और स्वप्न प्रक्रिया पर विचार कर रहे थे कि अचानक उनके दिमाग में स्वप्न की वह प्रक्रिया कौंधी, जिसके माध्यम से यदा-कदा स्वप्नद्रष्टा को सही सूचना प्राप्त हो जाती है। बस, फिर क्या था, उनके मस्तिष्क में इस संदर्भ में उधेड़बुन आरंभ हो गई। वे और उनके सहयोगी इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे कि जब स्वप्नावस्था में दिमाग सत्य संदेश प्राप्त कर सकने में सक्षम है, तो क्या निद्रावस्था में उसे सूक्ष्म शिक्षण संप्रेषित कर प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता?

इन्हीं संभावनाओं के बीच इस विलक्षण अन्वेषण कार्य का जन्म हुआ और मास्को के निकट दूबना नामक स्थान पर तत्संबंधी एक अनुसंधानशाला स्थापित की गई। परीक्षण आरंभ करने से पूर्व मनोवैज्ञानिकों ने कुछ प्रतिमान बनाए, जिनके आधार पर प्रयोगार्थियों का चयन किया जाना था, पर इसका सबसे महत्त्वपूर्ण आधार गहरी नींद में था। प्रयोग को उन्हीं व्यक्तियों को सम्मिलित किया गया, जिन्हें गहरी नींद आती थी। जो शेष प्रतिमानों को पूरे होने पर भी गहरी नींद का अनुबंध पूरे नहीं करते थे, उन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया। दूसरी ओर जिन्हें गहरी निद्रा तो आती थी, पर जो शेष शर्तों की पूर्ति नहीं कर पाए, उन्हें भी इसके अयोग्य घोषित किया गया। कुल मिलाकर परीक्षण के अनुकूल उन्हें ही ठहराया गया, जो निर्धारित सभी शर्तों की पूर्ति करते थे।

प्रयोग प्रारंभ किया गया। इसमें सूक्ष्म ध्वनि तरंगों के माध्यम से प्रयोगार्थियों को नींद के दौरान अँग्रेजी एवं अन्य भाषाशास्त्र के रिकॉर्ड सुनाए गए और जागने पर तद्विषयक अनेक प्रश्न पूछे गए, जिसके कुछ ने सही, कुछ ने गलत जवाब दिए मनःशास्त्रियों का कहना था कि संभवतः इसका कारण मस्तिष्कीय अनुकूलनता का अभाव था। जिस मस्तिष्क ने जितनी जल्दी स्वयं को प्रशिक्षण योग्य ढाल लिया, उसने उतनी जल्दी सूचनाओं और संदेशों को ग्रहण करना आरंभ कर दिया, पर इसकी कमी सूक्ष्म संकेतों को ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न करती है, ऐसा मनोवेत्ताओं का अभिमत था। दूसरा यह दृढ़ विश्वास भी था कि जैसे-जैसे मस्तिष्क की अनुकूलनता विकसित होती जाएगी, वैसे-वैसे उसकी ग्रहणशीलता में भी उत्तरोत्तर विकास होता चला जाएगा। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि इस प्रक्रिया द्वारा लोग सोते में भी सारगर्भित जानकारी अर्जित कर उस समय का अतिरिक्त उपयोग कर सकेंगे, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘सोना अर्थात् खोना’ जैसे संबोधनों से अभिहित किया जाता है। प्रयोग अभी जारी है।

इसका परिणाम चाहे जो हो, इस तथ्य से सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता है कि जब हम सोते रहते हैं, तब भी प्रकाराँतर से जागते रहते हैं। अंतर सिर्फ इतना होता है कि इसमें चेतना का स्वल्प अंश अचेतन स्थिति में चला जाता है, पर उसका अधिकाँश भाग अपना कार्य यथावत् करता रहता है। हृदय का धड़कना, साँस का चलना, रक्त का दौड़ना उस अवस्था में भी ज्यों-का-त्यों जारी रहता है। ऐसी दशा में बाहरी शिक्षण किसी प्रकार अंतःचेतना में उतर जाए, तो इसे आश्चर्यजनक तो कहा जा सकता है, पर असंभव नहीं। यह प्रक्रिया योगी स्तर के उन लोगों में स्पष्ट देखी जाती है, जिनकी चेतना तनिक परिष्कृत हो गई है। फिर वह सोते हों अथवा जागते, उनकी व्यष्टि चेतना समष्टि चेतना से इस प्रकार गुँथ जाती है कि अदृश्य के गर्भ में जो भी घटना पकती-पनपती रहती है, उसकी महत्त्वपूर्ण जानकारी जागते एवं सोते हुए में समान रूप से मूर्तिमान होने लगती है। महापुरुषों के स्वप्न प्रायः इसी स्तर के होते हैं। उनमें सामान्य जनों जैसे औंधे-सीधे दृश्यों का जाल-जंजाल नहीं होता, वरन् उसमें सोद्देश्य सूचनाओं का सारगर्भित समावेश होता है।

संक्षेप में, नींद एक साथ अनेक प्रयोजन पूरे करती है। वह शरीर और मस्तिष्क की क्लाँति मिटाकर उन्हें नई स्फूर्ति से ओत−प्रोत करती और उस ऊर्जा की भरपायी करती है, जिसका कि कार्य के क्षणों में क्षरण होता रहता है। इसके अतिरिक्त अदृश्य जगत् से संपर्क स्थापित करना, सूक्ष्म ध्वनि तरंगों के माध्यम से ज्ञानार्जन करना जैसे कितने ही कार्य इसके द्वारा संपादित किए जा सकते हैं। इसलिए नींद स्वास्थ्य की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं, वरन् सूक्ष्म आदान-प्रदान के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है। इस दिशा में उपेक्षा नहीं बरती जानी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118