खोदी खाई को पाटना है-प्रायश्चित

January 2001

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कई बार ऐसा होता है जब मनुष्य जानबूझकर कुबुद्धिवश या फिर अनजाने में ही कुछ अनुचित कार्य कर बैठता है। ये बुरे कार्य न सिर्फ उसकी आत्मिक प्रगति एवं व्यक्तित्व के विकास में बाधक बनते हैं, अपितु उसकी भौतिक सफलताओं में भी अवरोध पैदा करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है वह आत्मप्रताड़ना, जो अनैतिक और अवाँछनीय कार्य करने के कारण निरंतर अंतरंग में उठती रहती है। इस अंतर्व्यथा से मुक्त होने का एक ही मार्ग है प्रायश्चित।

दुष्कर्मों एवं कुविचारों के संस्कार एक प्रकार से विषैली परतों के रूप में चेतन मस्तिष्क एवं अचेतन मन पर जमते रहते हैं। कालाँतर में यही मन की चंचलता, उद्विग्नता, अस्थिरता, आवेश एवं विक्षोभ के रूप में प्रकट होते हैं और व्यक्ति को विक्षिप्त जैसा बना देते हैं। ऐसी दशा में किसी भी कार्य को एकाग्रचित्त होकर नहीं कर पाने के कारण उसे पग-पग पर असफल होना पड़ता है। उसके असंतुलित व्यवहार से संबंधित व्यक्ति असंतुष्ट होकर विरोधी बन जाते हैं। भटकता हुआ मन जीवन को कँटीली झाड़ियों में उलझा देता है, जहाँ केवल शोक एवं संताप ही दृष्टिगोचर होता है।

यही कारण है कि अपने अपराधों को स्वीकार कर उनके लिए प्रायश्चित करने की प्रथा सभी धर्मों में प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। पापों को प्रायश्चित के बिना मुक्ति तो दूर सामान्य सुखी-संतुष्ट जीवन भी संभव नहीं, इसीलिए प्रत्येक धर्म में’पाप के बोध’ को प्रमुख स्थान दिया गया है। यह बोध सिर्फ व्यक्ति की मनोवेदना या पश्चात्ताप तक सीमित नहीं है, अपितु किए गए अपराध का प्रायश्चित भी इसमें शामिल है। रास्ते में खाई खोदी गई है, तो उसके लिए सिर्फ पश्चात्ताप या वेदना प्रकट करने मात्र से कुछ नहीं होता वरन् उसे पाटने के लिए उतना ही प्रयत्न करना चाहिए, जितना खोदने के लिए किया गया था।

यहूदी तथा ईसाइयों में पापों का प्रायश्चित करने की .... इन धर्मों की स्थापना के साथ ही प्रारंभ हो गई थी। .... जगह-जगह पर इस भवन को जाग्रत् .... प्रयास किया गया है कि प्रत्येक यहूदी को अपने .... उन्हें स्वीकार करे और उसके लिए .... यहूदी अपने पापों को स्वीकार कर प्रायश्चित करने के लिए ‘याम किपूर’ की पूर्व संध्या से अगले दिन शाम तक प्रायश्चित संबंधी प्रार्थनाएँ तथा चिंतन-मनन करते हैं।

ईसाइयों में अपराध स्वीकार कर प्रायश्चित करने को ‘पाप स्वीकार संस्कार’ कहा जाता था। अब इस संस्कार को ‘पवित्रीकरण संस्कार’ कहा जाता है। ‘न्यू टेस्टामेंट’ में कई स्थानों पर पापों को स्वीकार करने की आवश्यकता व्यक्त की गई है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘कन्फेशन’ अर्थात् पाप स्वीकार कर प्रायश्चित के पश्चात् ही मुक्ति मिल सकती है।

मुसलमान भी अपने प्रतिदिन की नमाज में खुदा से अपने गुनाहों की माफी माँगते हैं। पारसी समुदाय के लोगों का मानना है कि पाप स्वीकार कर उसका प्रायश्चित कर लेने से मुक्ति मिल जाती है। बौद्ध भिक्षु भगवान् बुद्ध तथा धर्म-समुदाय के समक्ष माह में दो बार पापों को स्वीकार कर उनका प्रायश्चित करते थे।

हिन्दू धर्म में तो हर पाप का प्रायश्चित विधान निर्धारित है। उन्हें करके ही अवाँछनीय आचरणों की मलीनता से मुक्त हुआ जा सकता है। प्राचीनकाल में कहीं-कहीं अपराधियों को गाँव एवं जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था। हत्या के अपराधियों को मुँह पर कपड़ा बाँधकर घर-घर जाकर भीख माँगनी पड़ती थी और उसी से अपना गुजारा करना पड़ता था। व्रत, तप, तीर्थयात्रा, दान-पुण्य, धर्मार्थ कार्य एवं दीन-दुखियों की सेवा-सहायता प्रायश्चित के ही अंग हैं।

अपने दोषों को स्वीकार करना, उसके लिए दुःखी होना, लज्जित होना और भविष्य में इस तरह की भूलों की पुनरावृत्ति न करना, यह मनोभूमि तो प्रायश्चितकर्त्ता की होनी ही चाहिए। एक तरफ प्रायश्चित की बात सोची जाए और दूसरी तरफ उन्हीं भूलों को दुहराते रहा जाए, तो प्रायश्चित का प्रयोजन ही नहीं रह जाता। सच्चे मन से किए गए प्रायश्चित से मन हलका हो जाता है और जीवन में सुख, शाँति एवं पवित्रता सहज ही परिवर्तन होने लगती है।


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