नारी शक्तिः एक भवितव्यता

January 2001

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नारी सृष्टि की सुँदर एवं सुकोमल कृति है। संवेदना उसकी सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। प्राचीनकाल में इसी गुण के कारण उसे श्रेष्ठ एवं वरेण्य स्थान प्राप्त था, परंतु इस पक्ष को कमजोर मानकर वह सताई एवं शोषित भी की गई। पुरुष के तथाकथित पौरुषत्व एवं उद्धत अहंकार ने नारी का शोषण किया है। तमसाच्छन्नमय युग इसका ज्वलंत इतिहास है, जहाँ उसे केवल भोग एवं विलास की वस्तु माना गया। वर्तमान युग में स्थिति और भी विकृत है, किंतु यह नियति को स्वीकार्य नहीं था। नारी वर्ग सजग एवं जाग्रत् हुआ। जाग्रति की यह लहर समस्त विश्व में नारी जागरण के रूप में फैल गई। मनीषियों एवं भविष्यद्रष्टाओं के अनुसार, नवयुग का भविष्य इसी आँदोलन के गर्भ में पक रहा है।

नारी आँदोलन एक ऐसा आँदोलन है, जो किसी समाज या संस्कृति में नारी को पुरुष के समान सम्मान एवं अधिकार का मौलिक दावा करता है। पाश्चात्य जगत् में इसे ‘फेमीनिज्म’ कहा जाता है। इसका प्रारंभ अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ। उस समय इस आँदोलन की माँग थी महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त हो। अधिकार रूपी इस माँग एवं आवश्यकता ने ही महिला आँदोलन की नींव रखी और इसका सूत्रपात हुआ। सदियों से पीड़ित, शोषित एवं प्रताड़ित नारी का स्वर इसी रूप में उभरकर सामने आया। इतिहास में यह प्रथम नारी आँदोलन था, जिसकी लहर धीरे-धीरे समूचे विश्व में फैलने लगी। इस आँदोलन को दो भागों में विभक्त किया जाता है, फर्स्ट वेव एवं सेकेंड वेव।

फर्स्ट वेव अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से प्रारंभ होकर सन् 1930 तक चला। इसका मुख्य उद्देश्य एवं लक्ष्य था, महिलाओं एवं पुरुषों का अधिकार समान हो। सेकेंड वेव की शुरुआत सन् 1960 के अंत में हुई। यह मत भी अधिकारों के साथ-साथ सामाजिक परिस्थिति एवं परिवेश में उसकी समस्याओं की ओर ध्यानाकर्षित करता है तथा इसके समाधान एवं निराकरण की माँग दुहराता है।

पुरातात्त्विक प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि यूरोप और पूर्वी एशिया में पोलियोलिथिक सभ्यता थी। जिसमें मातृसत्तात्मक समाज का प्रचलन था एवं देवियों की पूजा-अर्चना की जाती थी। धीरे-धीरे इस परंपरा का ह्रास होता गया एवं मातृसत्तात्मक के स्थान पर पितृसत्तात्मक समाज का वर्चस्व बढ़ने लगा। इसके साथ ही राजनीतिक, धार्मिक, सैनिक आदि क्षेत्रों में पुरुषों के अधिकार में वृद्धि होने लगी। पुरुषों ने सभी पक्षों ने अपना एकाधिकार कायम कर लिया। अरस्तू ने अपने ग्रंथ ‘पोलिटिक्स’ में इस स्थिति का विशद वर्णन किया है। दूसरी सहस्राब्दी में पाश्चात्य जगत् में महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक तथा नैतिक स्तर से वंचित करने का कुचक्र रचा गया। इस तरह सर्वत्र नारी को शोषित एवं प्रताड़ित जीवन जीने को बाध्य कर दिया गया। इस अनीति एवं अत्याचार के विरुद्ध कुछ आवाजें उठने लगीं। जर्मनी में पुरुष एकाधिकार, चर्चों में महिलाओं के प्रवेश के लिए जनमत तैयार होने लगा। इटली के क्रिश्चियन दी विसान नामक विख्यात लेखक ने अपनी लेखनी के माध्यम से इसका घोर विरोध किया। सत्रहवीं शताब्दी तक यह स्थिति काफी मुखर हो चुकी थी। अनेकों महिला लेखिकाओं एवं विद्वानों का संगठन खड़ा हो गया। मेरी एस्टले ने नारी शिक्षा में वृद्धि हेतु आँदोलन की शुरुआत की।

‘फेमीनिज्म’ शब्द का उपयोग उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में प्रयोग हुआ, परंतु इसकी नींव अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही रखी जा चुकी थी। फर्स्ट वेव महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार की वकालत करता है। इस सिद्धाँत के अनुसार हर क्षेत्र में नारी को उचित स्थान एवं समुचित सम्मान मिलना चाहिए। यह विचारधारा फ्राँस की क्राँति एवं अमेरिकी स्वतंत्रता आँदोलन से प्रभावित मानी जाती है, क्योंकि ये दोनों ही क्राँतियाँ स्वतंत्रता एवं समानता की हिमायती हैं। फ्राँस के फेमीनिस्ट का तर्क है कि स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारा जैसी क्राँति का मूल्य सबके लिए समरूप होना चाहिए। अमेरिका में अमेरिकी महिला आँदोलनकारियों ने भी अमेरिका की स्वतंत्रता के साथ महिलाओं की नागरिकता एवं संपत्ति पर समान अधिकार के लिए आवाज बुलंद की थी।

इंग्लैंड में मेरी वोल स्टोन क्राफ्ट ने 1792 में महिला अधिकारों के संरक्षण पर एक क्राँतिकारी विचार .... किया। इसमें समानता एवं शिक्षा पर जोर दिया गया था। यह सर्वप्रथम ऐसा प्रयास था, जिसने महिलाओं को उनकी दुरवस्था से परिचित करवाया। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में इंग्लैंड की मध्यमवर्गीय महिलाओं ने शिक्षा, रोजगार, नैतिक एवं मताधिकार प्राप्त करने हेतु आँदोलन का शंखनाद किया। जान स्टुअर्ट मिल ने समानता के इस अधिकार के लिए इनका सहयोग दिया। उसने अपनी पत्नी हेरियट टेलर से प्रेरित होकर ‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन’ नामक ग्रंथ की रचना की।

सन् 1850 के पश्चात् इस आँदोलन में और भी तेजी व तीव्रता आई। यह प्रबल रूप धारण कर न्यूजीलैंड, पूर्व सोवियत संघ, जर्मनी, पोलैंड और आस्ट्रिया में आग की तरह फैल गया। समूचा पश्चिमी जगत् नारी आँदोलन की इस विचारधारा से परिचित हो गया। सामंतवादी पुरुषों के सामाजिक, साँस्कृतिक तथा शैक्षिक अवस्था में सुधार हेतु प्रयास चल पड़े। ‘न्यू वूमेन’ नामक विचारधारा ने समस्त जगत् में क्राँति की बिगुल बजा दी। उसने समानता के अलावा नारी की स्वतंत्र जीवन पद्धति एवं अभिव्यक्ति की ओर ध्यान आकर्षित किया। सन् 1920 में इस अभियान के स्वरूप में और विस्तार हुआ। समानता का व्यापक विचार महिलाओं के संवेदनशील उन समस्त बिंदुओं को स्पर्श करने लगा, जहाँ उसे शोषित एवं प्रताड़ित होना पड़ता था। माता एवं संतान के कल्याण के लिए अनेक योजनाएँ बनीं। यही मुद्दा सेकेंड वेव मुद्दे का मुख्य उद्देश्य बना।

सेकेंड वेव का प्रारंभ सन् 1960 में उत्तरी एवं मध्य अमेरिका तथा यूरोप व आस्ट्रेलिया के सामाजिक एवं मानवाधिकार आँदोलन से हुआ। अमेरिका से शुरू होने वाला नारी स्वतंत्रता आँदोलन-सामुदायिक स्वतंत्रता, महिला एवं पुरुषों की स्थिति के आधार पर समानता तथा स्वतंत्र अस्तित्व हेतु चलाया गया। सन् 1970 एवं 78 के बीच इसका स्वरूप और भी विस्तृत हुआ। इस आँदोलन की मुख्य विशेषता थी, समान वेतन, समान शिक्षा, व्यवसाय एवं नौकरी में समरूपता, स्वतंत्र पहचान, सेवा का समुचित अधिकार तथा अनीति, हिंसा व यौन शोषण से मुक्ति।

इस आँदोलन के मध्यकाल में सामाजिक एवं राजनीतिक तंत्र में हो रहे महिला शोषण को रोकने के लिए कई प्रकार की योजना बनी। अतः सामाजिक एवं राजनीतिक तंत्र में महिलाओं का प्रवेश द्वार खुल गया। भले ही यह संख्या न्यून थी, परंतु आगामी समय के लिए क्राँतिकारी परिवर्तन की आधारशिला बनी। यह विचारधारा साइमेन डी बीवेयर तथा केट मिलेट द्वारा प्रतिपादित हुई। उन्होंने पाश्चात्य जगत् में महिलाओं पर हो रहे शोषण एवं अत्याचार के खिलाफ ठोस कदम उठाया। जान डी बीवेयर के ‘सेकेंड सेक्स’ में उसका आभास होता है। सन् 1970 में केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ में नारी की अवनति का वर्णन करते हुए उससे उत्थान का उपाय सुझाया। इस तरह नारी जाग्रति की एक नई चेतना का उदय हुआ और यह लहर सभी ओर फैल गई। नारी स्वयं अपनी दासताओं से मुक्ति के लिए छटपटाने लगी। परिणामतः नारी जागरण एक संगठित प्रयास एवं उपाय बन गया।

महिलाओं को शारीरिक शोषण के साथ ही मानसिक प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ता था। अतः मानसिक रूप से सबल नारी की परिकल्पना की गई। सिगमंड फ्रायड के उस सिद्धाँत को पूरी तरह से नकार दिया गया, जिसमें नारी को भोग एवं विलास की वस्तु मात्र माना गया है। फ्राँस की महिला आँदोलनकारी हेलेन सिकस और लुसी इरीगरी ने महिला शरीर को देवत्व का वरदान घोषित किया। संवेदना एवं ममत्व को उसका सर्वश्रेष्ठ अलंकरण माना गया। इस तरह एक नई महिला संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। पुरुष के एकाधिकार को समाप्त करने एवं नारी के यौन शोषण को रोकने के लिए आवाजें उठने लगीं। मेरी डेली ने ‘गाइन इकोलॉजी’ में उसे और भी विस्तार से वर्णन किया। विख्यात आँदोलनकर्त्री एंड्रिया डूवोरकीन ने भी क्राँतिकारी लेख लिखकर नारी जागरण में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

नारी जागरण के दो मुख्य आँदोलन काल के पश्चात् आधुनिक विचारधारा का समावेश हुआ। आज उन सभी समस्याओं को रेखाँकित किया जाता है। जिसके तहत नारी को अबला एवं कमजोर मानकर शोषित किया जाता है। समस्याओं के निराकरण के साथ ही विकास के विभिन्न आयामों के प्रति नूतन दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है। गायत्री चक्रवर्ती ऐसे समग्र आँदोलन की बात करती है, परंतु आँदोलन में उस देश की सामयिक समस्याएँ एवं परिस्थिति भी मुख्य कारक होती हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में एशियन, अफ्रोकेरीवियन तथा अफ्रीकी अमेरिकी आँदोलन को देखा जा सकता है। लेटिन अमेरिका का आँदोलन, जाति, लिंग, वर्ग-भेद की समानता की पुष्टि करता है। मुस्लिम देशों में सेकुलर, लिबरल आँदोलन महिलाओं की बुरका तथा तलाक से मुक्ति के इर्द-गिर्द घूमता है। भारतीय आँदोलन को समग्र आँदोलन कहा जा सकता है। फिर भी इसमें दहेज प्रथा, कुरीति, रूढ़िवादिता जैसी समस्याओं को प्राथमिकता दी गई है।

यूरोप में महिला जागरण मार्क्स आँदोलन के नाम से जाना जाता है। कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंजेल्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धाँत के अनुसार नारी को भी आर्थिक तथा भौतिक उपलब्धियों में समान अधिकार होना चाहिए। उन्हें व्यवसाय एवं आय की उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। अमेरिका में ठीक इसी प्रकार का अभियान चला है। वह मटेरिएलिस्ट फेमीनिस्ट द्वारा संचालित एवं नियमित होता है। इसके अंतर्गत भी नारी को सामाजिक संबंधों एवं भौतिक अवस्था में समानता लाने पर बल दिया जाता है। आज इस विचारधारा का प्रभाव सभी क्षेत्रों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। समाजविज्ञानियों के अनुसार नारी जागरण अब सक्रिय एवं जीवंत हो उठा है। नारी मुक्ति आँदोलन पुरुषों के एकाधिकार रूपी दुर्ग को ध्वस्त करके ही रहेगा।

समस्त विश्व में नारी जागरण अभियान विभिन्न रूपों में सक्रिय है। यह प्रयास एवं पुरुषार्थ आगामी सदी-नारी सदी के भावी संकेत का द्योतक है। इक्कीसवीं सदी में नारी का ही वर्चस्व होगा। इसलिए कालचक्र पूर्ण वेग से गतिमान है। अतः नारी के उत्थान एवं विकास में हर समझदार नागरिक को लग जाना चाहिए। यही युगधर्म है।


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