अंतः चेतना से जुड़ा शरीर का रसायन शास्त्र

January 2001

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साधारणतया आहार-विहार का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले निरोग रहते हैं और असंयम बरतने वाले, अखाद्य खाने वाले बीमार पड़ते हैं। बीमारियों के कारण रोग-कीटाणुओं के रूप में, ऋतु-प्रभाव या धातुओं, तत्त्वों के हेर-फेर में ढूँढ़े जाते हैं और उसी आधार पर चिकित्सा की जाती है, पर कई बार इन सब मान्यताओं को झुठलाते हुए ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं कि अप्रत्याशित रूप से शरीर के किन्हीं अवयवों का या प्रवृत्तियों का यकायक घटना-बढ़ना शुरू हो जाता है। कारण ढूँढ़ते हैं, तो समझ में नहीं आता। अँधेरे में ढेला फेंकने की तरह कुछ उपचार किया जाता है, तो उसका परिणाम कुछ नहीं निकलता।

ऐसी परिस्थितियाँ प्रायः हारमोन ग्रंथियों में गड़बड़ी आ जाने के कारण उत्पन्न होती है। शरीर के सामान्य अवयवों की संरचना और उनकी कायपद्धति का ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है, इसलिए रोगों के कारण और निवारण के संबंध में काफी प्रगति भी हुई है, पर यह अंतःस्रावी ग्रंथियों की आश्चर्यचकित करने वाली हरकतें जब से सामने आई हैं, तब से चिकित्साविज्ञानी स्तब्ध रह गए हैं। प्रत्यक्षतः शरीरगत क्रिया−कलाप में इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वे किसी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं, चुपचाप एक कोने में पड़ी रहती हैं और वहीं से तनिक-सा स्राव बहा देती हैं। वह स्राव भी पाचक अंगों द्वारा नहीं, सीधा रक्त से जा मिलता है और अपना जादू जैसा प्रभाव छोड़ता है।

हारमोन शरीर और मन पर कितने ही प्रकार के प्रभाव डालते और परिवर्तन करते हैं। उनमें से एक परिवर्तन काम-वासना का मानसिक जागरण और यौन अंगों की प्रजनन क्षमता भी सम्मिलित है।

छोटी उम्र की लड़की और लड़के लगभग एक जैसे लगते हैं। कपड़ों से, बालों से उनकी भिन्नता पहचानी जा सकती है, अन्यथा वे साथ-साथ हँसते, खेलते, खाते हैं, कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता, पर जब बारह वर्ष से आयु ऊपर उठती है, तो दोनों में काफी अंतर अनायास ही उत्पन्न होने लगता है।

यह हारमोन स्रावों की करतूत है। वे समय-समय पर ऐसे उठते-जागते हैं, मानो किसी घड़ी में अलार्म लगाकर रख दिया हो अथवा टाइम बम को समय के काँटे के साथ फिट करके रखा हो। यौवन उभार के संबंध में इन्हीं के द्वारा सारा खेल रचा जाता है। अन्य सारे अवयव अपने ढंग से ठीक काम करते रहें, पर यदि इन हारमोन ग्रंथियों का स्राव न्यून हो, तो यौवन अंग विकसित न होंगे और यदि किसी प्रकार विकसित हो भी जाएँ, तो उनमें वासना का उभार नहीं होगा, न कामेच्छा जाग्रत् होगी, न उस क्रिया में रुचि होगी। संतानोत्पादन तो होगा ही कैसे?

सामान्यतया कामोत्तेजना का प्रसंग 15-16 वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर 60 वर्ष पर जाकर लगभग समाप्त हो जाता है। स्त्रियों का मासिक धर्म बंद हो जाने पर लगभग 50 वर्ष की आयु में उनकी वासनात्मक शारीरिक क्षमता और मानसिक आकाँक्षा दोनों ही समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार 60 वर्ष पर पहुँचते-पहुँचते पुरुष की इंद्रियाँ एवं आकाँक्षाएँ भी शिथिल एवं समाप्त हो जाती हैं। यह सामान्य क्रम है, पर कई बार हारमोनों की प्रबलता इस संदर्भ में आश्चर्यजनक अपवाद प्रस्तुत करती है। बहुत छोटी आयु के बच्चे भी न केवल पूर्ण मैथुन में, वरन् सफल प्रजनन में भी समर्थ देखे गए हैं। उसी प्रकार शताधिक आयु हो जाने पर भी वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार की युवावस्था जैसी परिपूर्ण क्षमता पाई गई है।

लिंग भेद से संबंधित हारमोनों में गड़बड़ी पड़ जाए, तो नारी के मूँछें निकल सकती हैं। पुरुष बिना मूँछ का हो सकता है तथा उसकी छाती बालरहित हो सकती है एवं दोनों की प्रवृत्तियाँ भिन्न लिंग जैसी हो सकती हैं। यौन आकाँक्षाएँ भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं। इतना ही नहीं, कई बार तो इन हारमोनों का उत्पाद ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाए। ऐसे अनेक ऑपरेशनों के समाचार समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं, जिनमें नर से नारी की और नारी से नर की जननेंद्रियों का विकास हुआ और फिर शल्य क्रिया द्वारा उसे तब तक के जीवन की अपेक्षा भिन्न लिंग का घोषित किया गया। इसी नई परिस्थिति के अनुसार उन्होंने साथी ढूँढ़े, विवाह किए और घर बसाए।

पुराने जमाने में मृत या स्वल्प कामेच्छा को जगाने के लिए रसायनों और भस्मों का प्रयोग किया जाता था। वह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसा ही सिद्ध हुआ। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है, तब से यौन ग्रंथियों के रसों को पहुँचाने से लेकर बंदर एवं कुत्ते की ग्रंथियों का आरोपण करने तक क्रम बराबर चल रहा है। आरंभ में उससे तत्काल लाभ दीखता है; पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर ऑपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है; वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि रक्त स्वयं बनाने लगे, तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रंथियां जाग्रत् होकर स्वतः काम करने लगें, अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जाएगी। अब तक के बाह्य आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गए हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ।

अस्सी के दशक में अमेरिका के एक वृद्ध डॉक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते का वृषण-रस अपने शरीर में पहुँचाकर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता पा ली है। 72 वर्षीय इस डॉक्टर की ओर अनेक चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी। वे कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गए।

लिवरपुल यूनिवर्सिटी के शरीरशास्त्री डॉ. बर्नाडे मरे ने थायरोक्सिन का प्रयोग एक थायराइड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिए एक-एक करके प्रायः आठ सौ भेड़ों की ग्रंथियां निचोड़कर उसे आए दिन लगानी पड़ती थीं। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी।

शरीरविज्ञानियों ने शरीर प्रणाली को समझने के लिए हारमोनों का गहराई से अध्ययन शुरू किया, तो कुछ ऐसे तथ्य हाथ लगे, जो विस्मयकारी थे। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आखिर इन थोड़े-से रसस्रावों में ऐसा क्या जादू है, जो शरीर की सामान्य व्यवस्था में वह इतनी भयानक उलट-पलट करके रख देते हैं। स्वास्थ्य के साधारण नियमोपनियम एक ओर और उनकी मनमानी एक ओर। इस रस्साकशी में सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और इन रसस्रावों की मनमानी जीतती है। इन रसों का रासायनिक विश्लेषण करने पर वे सामान्य स्तर के ही सिद्ध होते हैं। उनमें कुछ ऐसी अनहोनी मिश्रित नहीं दीखती, पर इसको झुठलाते हुए जब नतीजा सामने आता है, तो बुद्धि चकरा जाती है और इस विस्मय-विमूढ़ता की स्थिति में हाथ-पर-हाथ धरकर बैठना पड़ता है।

उदात्त भावनाएँ अंतरात्मा में जमीं हों और छोटा बनाने वालों पर बड़प्पन के संस्कार जम जाएँ, तो शरीर को ही नहीं, मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पन्न होंगे। इंद्रिय भोगों में आसक्त अंतःभूमिका अपनी तृप्ति के लिए कामोत्तेजक अंतःस्रावों की मात्रा बढ़ाती है। विवेक जाग्रत् हो और विषय-भोगों की निरर्थकता एवं उनकी हानियों को गहराई से समझ लिया जाय, तो इन हारमोनों का प्रवाह सहज ही कुँठित हो जाता है। इसी प्रकार वियोग, विश्वासघात, अपमान जैसे आघात अंतःकरण की गहराई तक चोट पहुँचा दें, तो युवावस्था में भले-चंगे हारमोन स्रोत सूख सकते हैं। इसके विपरीत यदि रसिकता की लहरें लहराती रहें, तो वृद्धावस्था में भी वे यथावत गतिशील रह सकते हैं। जन्माँतरों की रसानुभूति बाल्यावस्था में भी प्रबल होकर उस स्तर की उत्तेजना समय से पूर्व ही उत्पन्न कर सकती है।

काम-क्रीड़ा शरीर द्वारा होती है, कामेच्छा मन से उत्पन्न होती है, पर इन हारमोनों की जटिल प्रक्रिया न शरीर से प्रभावित होती है और न मन से। उसका सीधा संबंध मनुष्य की अंतःचेतना से है। इसे आत्मिक स्तर कह सकते हैं। जीवात्मा में जमे काम बीज जिस स्तर के होते हैं, तद्नुरूप शरीर और मन का ढाँचा ढलता और बनता-बिगड़ता है। हारमोनों को भी प्रेरणा-उत्तेजना वहीं से मिलती है।

पीनियल ग्रंथि भ्रूमध्य भाग में है, जहाँ देवताओं का तीसरा नेत्र बताया जाता है। प्राचीनकाल में ऐसे प्राणी भी थे, जिनके मस्तिष्क में सचमुच एक अतिरिक्त तीसरी आँख और भी होती थी, जिससे वे बिना गरदन मोड़े पीछे के दृश्य भी देख सकते थे। अभी भी अफ्रीका में कुछ ऐसी छिपकलियाँ देखी गई हैं, जिनके सिर पर काँर्निया, रेटिना, लेंसयुक्त पूरी तीसरी आँख होती है।

गेहूँ की आकृति जैसी इस छोटी-सी ग्रंथि में आश्चर्य-ही आश्चर्य भरे पड़े हैं। जिन चूहों में दूसरे चूहों की पीनियल ग्रंथि का रस भरा गया, वे साधारण समय की अपेक्षा आधे दिनों में ही यौन रूप से विकसित हो गए और जल्दी बच्चे पैदा करने लगे। समय से पूर्व उनके अन्य अंग भी विकसित हो गए, पर इस विकास में जल्दी भर रही, मजबूती नहीं आई। शिवजी की कामदहन कथा की इस हारमोन से संगति अवश्य बैठती है, पर अंतःकरण का रुझान जिस स्तर का होगा, शरीर और मन को ढालने के लिए हारमोनों का प्रवाह उसी दिशा में बहने लगेगा।


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