उज्ज्वल भविष्य का आधार अतिमानस का अवतरण

January 2001

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वैदिक ऋषि अधिमानस में अपनी चेतना को स्थिर कर सके थे। वहाँ पर आलोक का प्रवाह अविराम एवं सतत रहता है। वहाँ पर चेतना एक स्थिर प्रकाश पुँज बन जाती है। परिणामस्वरूप दृष्टि सार्वभौम बन जाती है और मनुष्य वैश्व आनंद का, विश्वव्यापी सौंदर्य का, सार्वभौम प्रेम का आस्वाद लेता है। यहीं पर विश्व प्रेम और आनंद का अनुभव होता है।

मन मनुष्य का दिव्य यंत्र है। मन के कारण मानव बना। विकासक्रम में मानव अतिमानस बनने की कल्पना सँजोने लगा है। इसके प्रणेता हैं श्री अरविंद। श्री अरविंद के अतिमानस योग को आध्यात्मिक जगत् का एक नूतन आविष्कार कहा जा सकता है। उन्होंने देवताओं के देश अधिमानस का अतिक्रमण करने का दुस्साहस किया। सामान्य मानस से अतिमानस के बीच मानस के कई स्तर आते हैं। साधक अपनी मानसिक चेतना का परिष्कार करके इस स्तर तक विकास कर सकता है।

मानस के ये चार स्तर हैं, ऊर्ध्वमानस, उद्भासित मानस, अंतर्बोधी मानस एवं अधिमानस। ये चार स्तर अलग-अलग हैं तथा अनुभवजन्य तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं। सिद्धाँत रूप से देखा जाए, तो ये चारों मन अतिचेतना के अंतर्गत आते हैं। कुछ ऐसे भी योगी हैं, जिनके लिए ये स्तर उनकी जाग्रतावस्था की सामान्य चेतना के भाग हैं।

मानस विकास के अनुरूप ही उन दिव्य चेतना के स्वरूपों का दर्शन हो पाता है। यदि विकासक्रम में हमारा अतीत अवचेतन है तो भविष्य है अतिचेतन। रेंबो के शब्दों में कहें तो इसे अभिव्यक्ति देने के लिए ‘एक दूसरी भाषा’ की आवश्यकता पड़ती है।

मानस का विकास सामान्य मानस से प्रारंभ होता है। सामान्य मानस देश और काल में ही घिरा रहता है। वह उससे परे देखने में असमर्थ है। उसके देखने की अपनी विशेषता है, जो आगे के स्तर के लिए एक विवशता है। मन सदैव देश और काल को छोटे-छोटे भागों में बाँटता रहता है। सामान्य मानस एक ऐसी जाली है, जिसके बीच से एक ही तस्वीर दिखाई देती है। एक ही बार में कई वस्तुओं को देखने का वह आदी नहीं है। अगर देखे भी तो वे उसे परस्पर विरोधी प्रतीत होंगे। वह चीजों को एक-एक क्रम से पंक्ति के रूप में देखता है। वह इनसे छलाँग नहीं लगा सकता। चेतना जगत् की सारी बातें उसे तर्क विरुद्ध या धुँधली जान पड़ती हैं।

सामान्य मानस धूसर वर्ण का होता है। वह काफी धुँधली मक्खियों का एक दल-सा प्रतीत होता है, जो लोगों के सिर के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है। विचारों का जमघट भी यहीं रहता है। यह प्रदेश अत्यंत स्थूल एवं लसलसा है। सभी उच्चस्तरीय विचार एवं भाव इसके अंदर समाकर दूषित हो जाते हैं। इसमें आनंद और दुःख को सहने की क्षमता अत्यल्प होती है। इस प्रदेश की ज्योति शिखा नन्हीं-सी होती है और यह रुक-रुककर जलती है तथा जल्दी ही बुझ जाती है।

सामान्य मानस देश और काल को तो खंडित करता ही है, इसके अलावा भी वह सभी कुछ को टुकड़ा-टुकड़ा कर देता है। श्री अरविंद इस बारे में ‘मानव चक्र’ में उल्लेख करते हैं, जब भागवत् चेतना इस स्तर में उतरती है, तो लोग उस पर ब्रह्म से लेकर परमाणुपर्यंत विखंडन का नियम लागू होता है। यहाँ पर आनंद खंड-खंड हो जाता है, प्रेम और शक्ति टुकड़ों में बंट जाते हैं और स्वभावतः ज्ञान तथा ज्ञानदृष्टि भी विभाजित हो जाती है। यहीं पर सब कुछ छिन्न-भिन्न होकर रह जाता है। ‘द आवर ऑफ गॉड’ में श्री अरविंद इसे ‘चूर-चूर हुई ऊँधती-ठेलती चेतना’ कहते हैं।

जब व्यक्ति चेतना के इस सामान्य स्तर से ऊपर बढ़ता है, तो आँखों पर चढ़ी जाली का आकार बढ़ता जाता है। अतः श्री अरविंद के चेतना के आरोहण का सारा इतिहास इस आँखों पर चढ़ी जाली को उतारने की कहानी है। चेतना का यह आरोहण केवल काल की विजय गाथा नहीं, अपितु आनंद, प्रेम और व्यापक सत्ता की भी विजय की कहानी है। ‘लेटर्स ऑन योग’ में वे कहते हैं, “ज्यों-ज्यों व्यक्ति इस स्तर से उठकर सर्वोत्तम स्तर की ओर आरोहण करता है, उसके अस्तित्व की तीव्रता, चेतना की तीव्रता, शक्ति की तीव्रता, वस्तुओं में रस की और जीवन के आनंद की तीव्रता बढ़ती जाती है।”

सामान्य मानस के विकासक्रम में ऊर्ध्वमानस प्रथम स्तर है। यह कुछ दार्शनिकों और चिंतकों में प्रायः देखा जाता है। यह कुछ अधिक स्पष्ट होता है। इसका रंग नीलाभ धूसर होता है। यहाँ पर आनंद अधिक टिकाऊ और प्रेम अधिक व्यापक होने लगता है। ऊर्ध्वमानस निम्न स्तरों के समान अनेक चीजों पर उतना निर्भर नहीं रहता।

ऊर्ध्वमानस का प्रकाश तेजहीन एवं कुछ कठोर-सा होता है। देखा जाए, तो यह एक बोझिल मानसिक तत्त्व ही होता है। ऊपर से आने वाली चेतना को अपने सार द्रव्य में मिला लेना इसका प्रमुख कार्य है। यह ऊर्ध्वचेतना को अपने ही ढंग से देखकर विचार करता है, परंतु उस चेतना के बारे में वह तभी समझ पाता है, जब उसे अपने में संपूर्ण रूप से न मिला ले। जो उसे समझ में नहीं आता है, बड़े मजे से उसे काट-छाँटकर अलग कर देता है। इस स्तर की सबसे बड़ी विशेषता है विकासोन्मुखी प्रवृत्ति।

ऊर्ध्वमानस जैसे-जैसे नीरवता को अपनाने लगता है, वह उद्भासित मानस के क्षेत्र में प्रवेश पाने लगता है। यहाँ पर प्रकाश की धाराएँ बहने लगती हैं। सच्ची आध्यात्मिक सुख-शाँति और प्रसन्नता इसी स्तर पर ही मिल पाती है। इसके प्रकाश का रंग सुनहला होता है। इस अवस्था में सदा उत्साह और उमंग बनी रहती है। चेतना सजग, सचेत एवं जाग्रत् होती है। इसकी दुनिया एकदम नवीन होती है, जिसके मापदंड नए, महत्त्व भी कुछ और ही होते हैं। यहाँ पर निरंतर एक आनंद की अखंड धारा बहती है। इस चैतन्य प्रदेश में जीवन अधिक विशाल, अधिक सत्य और प्राणवान् बनता है।

उद्भासित मानस में सदैव सत्यों की दीपावली होती है। छोटे सत्य दीपमाला सजाते हैं। यहाँ पर शब्दों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, मानो प्रत्येक वस्तु का अपना रहस्य हो, एक विशेष अर्थ और निजी जीवन हो। यह तो वर्णनातीत है, जो है केवल सजीव, जीवंत और अनुरागमय।

सामान्यतः इस नवीन चेतना में पहुँचने पर सृजनात्मक शक्तियाँ स्वतः खिल पड़ती हैं। विशेष रूप से यह काव्य क्षेत्र में कहीं अधिक परिलक्षित होती है। श्री अरविंद के शिष्यों में चीनी, भारतीय, अँग्रेज आदि भिन्न भाषाओं के कवियों की संख्या बहुत अधिक थी। यह तथ्य आश्चर्य-जनक है। यह इसी क्षेत्र के विकास की कहानी है। ‘श्री अरविंद केम टू मी’ में इस तथ्य का बड़ा सुँदर वर्णन हुआ है। “शब्द उन अंतर्लोकों में बना-बनाया तैयार रहता है जहाँ से सब कलाकृतियों की उत्पत्ति होती है।”

चेतना के उच्चतर लोकों का वर्णन करने के लिए कविता सबसे अच्छा साधन है। कविता के प्रवाहों में स्पंदनों को आसानी से पकड़ा जा सकता है। श्री अरविंद ने ‘फ्यूचर पोएट्री’ में इस लोक से निःसृत कविता के तमाम उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। शेली और शेक्सपियर की कविताओं की कुछ पंक्तियाँ इसी स्तर से आती प्रतीत होती हैं। श्री अरविंद की कविताओं में यह शुभ्र प्रवाह सतत बना हुआ है। इस प्रवाह को बनाए रखना आसान कार्य नहीं है। स्वामी विवेकानंद की कविताएँ भी उन लोकों का दर्शन कराती हैं।

उद्भासित मानस में सूक्ष्म दृष्टि खुल जाती है और साधक को अलौकिक श्रवण शक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इस क्षेत्र की कमी है कि यहाँ पर उत्साह सहज ही उत्तेजना में बदलने लगता है। जब प्राण इस प्रकाश पुँज पर अधिकार कर लेता है, तो इसे कम और कठोर बना देता है। यह फिर एकदम विकृत हो जाता है। इसका प्रकाश फैला रहता है, इसी कारण इसमें सतत क्रमबद्धता नहीं रह पाती है। यह तो नवजन्म का उपक्रम मात्र है।

विमल पारदृश्यता अंतर्बोधी मानस की महत्ता है। इसकी गति तेज है। अपने समान किसी भी क्षेत्र में यह स्वतंत्र विचरण करता है। इसके कदम ऊर्ध्वमानस की तरह जकड़े हुए नहीं हैं। यह मानसिक विचारों का सहारा नहीं लेता। यही तो स्वतंत्रता है। इसी स्वतंत्रता का अभाव ही व्यक्ति को अतिचेतन में उड़ान भरने नहीं देता। इसी स्वतंत्रता एवं नीरवता में ही ज्ञान जन्म लेता है।

जब हम सब बिंदुओं में एक हो जाएँगे तभी खिलेगा दिव्य जीवन का सुवासित पुष्प। श्री अरविंद ने दिव्य जीवन में अंतर्बोध को परम सत्य की एक स्मृति कहा है। इसी दिव्य प्रकाश में ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और पता चलता है कि ज्ञान अज्ञात की खोज नहीं है। मनुष्य की अपनी स्वयं की खोज ही है ज्ञान। उस अदृश्य रूप को जानना ही ज्ञान है। हर व्यक्ति के जीवन में यह एक क्षण के लिए ही सही, आता अवश्य है।

अंतःस्फुरित भाषा सूत्रबद्ध है, जबकि उद्भासित मन की भाषा काव्यमय होती है। श्री अरविंद ‘लेटर्स ऑन योगा’ में उल्लेख करते हैं कि अंतर्बोध में वस्तुएँ स्फुरणों द्वारा अंश-अंश करके दिखाई देती हैं, सारी एक साथ नहीं। ‘सिंथेसिस ऑफ योग’ में वे इसे इस तरह अभिव्यक्ति देते हैं, “एक कौंध में जो स्थल हमारे सामने खुलता है, वह सत्य का एक स्थल ही है, इसी तल पर पहुँचकर ही साधक नीरवता द्वारा उच्चतर चेतना की ओर उड़ान भरता है।”

अधिमानस वह उच्च श्रृंग है जो कि मानव चेतना के लिए अति दुर्लभ है। यह एक सार्वभौम चेतना है। अधिमानस देवताओं का लोक है। महान् धर्म प्रवर्तकों की प्रेरणा स्रोत भी यही है। सभी धर्मों की यह जन्मस्थली है। कलाकृतियाँ भी यहाँ जन्म लेती हैं। यहाँ पर व्यक्तित्व का लोप नहीं होता।

श्री अरविंद ने इसी अवस्था में आकर ही भारत को स्वतंत्रता प्रदान की थी। वे ‘लेटर्स ऑन योगा’ में इसकी व्याख्या करते हैं कि उस स्तर में साधक सत्य को आँशिक रूप से नहीं, बल्कि समग्रता से विशाल पुँजों में एक साथ देखता है। यहाँ पर प्रकाश समान एवं पूर्ण एकरूप रहता है। इस क्षेत्र में देश और काल का अत्यंत विस्तार होता है। अधिमानस देवताओं का देश है, जहाँ पर मनुष्य भगवत्कृपा से पहुँच पाता है।

वैदिक ऋषि अधिमानस में अपनी चेतना को स्थिर कर सके थे। वहाँ पर आलोक का प्रवाह अविराम एवं सतत रहता है। वहाँ पर चेतना एक स्थिर प्रकाश पुँज बन जाती है। परिणामस्वरूप दृष्टि सार्वभौम बन जाती है और मनुष्य वैश्व आनंद का, विश्वव्यापी सौंदर्य का, सार्वभौम प्रेम का आस्वाद लेता है। यहीं पर विश्व प्रेम और आनंद का अनुभव होता है।

अधिमानस चेतना में प्रवेश के अनेक मार्ग हैं, जैसे प्रगाढ़ धर्म निष्ठा द्वारा, प्रखर काव्य प्रेम के माध्यम से, चिंतन, कला, वीरता के उत्कर्ष द्वारा। मनुष्य को वर्तमान सीमाओं को पार करने के लिए जिस भी वस्तु से सहायता मिले, उसके माध्यम से वह वहाँ पहुँच सकता है। इस संदर्भ में श्री अरविंद ने कला को विशेष महत्त्व प्रदान किया है। उन्होंने कला को आध्यात्मिक प्रगति के प्रमुख साधनों में से एक माना है। यह धरती ही वह आधार है, जहाँ उस शिखर तक पहुँचा जा सकता है। इसलिए दिव्य लोक की देवसत्ताएँ मनुष्य शरीर धारण कर इस धरती में बारंबार जन्म लेती हैं।

अधिमानस के बाद जो स्तर आता है उसे अतिमानस कहते हैं। श्री अरविंद ने अतिमानस की खोज की। इस योग का मार्गदर्शन उन्होंने स्वामी विवेकानंद के सूक्ष्मशरीर द्वारा अलीपुर जेल में प्राप्त किया था। अतिमानस एक सर्वग्राही दृष्टि है। वह दृष्टि की एक गोलाई है, जिसके अंत में एक केन्द्रीय बिंदु नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों बिंदु होते हैं। अतिमानस मंडलाकार दृष्टि, अखण्ड दृष्टि, शाश्वत दृष्टि है। यह है त्रिकाल विजय। अधिमानस चेतना में देश और काल के महान् विस्तार की दृष्टि रहती है। अति मानसिक तीनों कालों पर छाई रहती है। भूत-वर्तमान और भविष्यत् के अविच्छिन्न संबंध अतिमानसिक चेतना में टूटकर अलग नहीं हो जाते, ज्ञान के एक एकाकी अविराम चित्र के अंदर वे तीनों एक साथ व्यक्त रहते हैं।

श्री अरविंद ने अतिमानस के धरती पर अवतरण की भविष्यवाणी की है। उन्होंने इस योग के माध्यम से मनुष्य मात्र का रूपांतरण चाहा है। उनके अनुसार धरती पर स्वर्ग का अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का उदय तभी संभव है, जब श्रेष्ठ आत्माएँ लोभ-मोह की जंजीरों को तोड़कर आगे आएँ। यही इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य का आधार है।


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