इतना विराट् गायत्री परिवार, ऐसे विराट् आयोजन एवं अपरिमित संभावनाओं से भरे इस मिशन के इतिहास को जब कभी भी सुव्यवस्थित ढंग से लिखा जाएगा, तो लोग जानेंगे कि किस पौधशाला से निकलकर यह वटवृक्ष विकसित हुआ है। वस्तुतः तप-साधना ही वह पूँजी है, जिससे जन-जन को जोड़कर परमपूज्य गुरुदेव ने इतनी बड़ी संस्था खड़ी कर दी। जिस मिशन की जड़ें तप की पूँजी से सिंचित होती रही हों, उसके तो और भी विस्तृत होने, सारे विश्व में छा जाने के विषय में किसी को कोई शंका भी नहीं होना चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव के पन्नों से ज्ञात होता है कि कैसे छोटी-छोटी आशंकाओं का समाधान कर, सतत प्रेरणा देते रहे एवं छोटी-छोटी भ्राँतियों का निवारण कर उन्होंने जीवन-साधना के पथ पर लाखों व्यक्तियों को अग्रगामी बना दिया। पत्रों के महासागर में से कुछ पत्र पाठक-परिजनों के लिए यहाँ हम बानगी रूप में दे रहे हैं।
मन नहीं लगना हर साधक की एक सामान्य शिकायत रहती है। ऐसे में उनका मार्गदर्शन मिल जाए, तो फिर क्या है। 7-6-51 को श्री रामस्वरूप चाचौदिया (राठ, जिला हमीरपुर) को लिखे एक पत्र में पूज्यवर निर्देश देते हैं-
“आपका मन अस्थिर रहता है। इसके लिए सुविधानुसार कुछ उपवास और मौन का अभ्यास किया करें, उससे चित्त स्थिर रहने लगेगा। 14 जून को गायत्री जयंती के दिन भी व्रत-उपवास कर लें। निरंतर श्रद्धापूर्वक जप करते रहने से सभी आध्यात्मिक कठिनाइयों का हल हो जाता है।”
श्री चाचौदिया जी को मार्गदर्शन मिला। प्रगति के उच्च सोपानों पर चढ़े। वे परमपूज्य गुरुदेव द्वारा आरंभ किए गए एक विराट् साधना अभियान में जुट गए। मार्गदर्शन की फिर भी आवश्यकता थी। उन्हें दूसरा पत्र 8-12-1951 को लिखा गया।
“हमारे आत्मस्वरूप,
आपका पत्र मिला। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप सहस्राँशु यज्ञ में शामिल हो गए हैं। यह इस युग का अभूतपूर्व यज्ञ है। इसमें सम्मिलित होने से आपकी आत्मा को परम शाँति प्राप्त होगी।
गायत्री मंदिर के लिए हर व्यक्ति अपना-अपना कर्त्तव्य पालन करे। अपना दान ही दूसरों पर प्रभाव डालने का सबसे अच्छा तरीका है।
आप मंगल को ही उपवास करते रहें। सप्ताह में एक दिन उपवास होना चाहिए। जब बाहर जाया करें तब मानसिक ध्यान द्वारा माता का पूजन कर लिया करें। जप के समय अगरबत्ती या दीपक कोई भी एक वस्तु जलाई जा सकती है।”
देखने में सामान्य पत्र ही लगता है। किसी भी दिन उपवास करें, क्या फर्क पड़ता है, पर पूज्यवर ने देखा होगा कि आग्रह मंगलवार का ही है। बाहर जाते हैं, तो माला नहीं हो पाती, मन दुःखी रहता है। अतः उपचार दे दिया कि मानसिक जप कर लिया करो। जप के साथ दीपक जले या अगरबत्ती, कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, पर साधक को निर्देश दिए, ताकि वे व्रतशील हो साधक बन सकें।
यही छोटे-छोटे टोटके लोगों की जीवन-साधन के अंग बन गए एवं क्रमशः उन्हें स्तरीय साधक बनाते चले गए। हम गायत्री साधना करते हैं, तो विवाह के बंधन में क्यों बँधें, हमारा क्या होगा, ऐसी कई आशंकाएँ किसी के भी मन में आ सकती हैं। श्री देवव्रत प्रसाद श्रीवास्तव जी (मुजफ्फरपुर), जो उन दिनों जी.जी.बी. कॉलेज में पढ़ रहे थे, के मन में भी कुछ ऐसी ही बातें थीं। उन्हें उत्तर मिला-
“आप माता का आँचल श्रद्धापूर्वक पकड़े रहें। आपकी सब कठिनाइयों को माता हल करती चलेंगी। विवाह हो जाने में कुछ हर्ज नहीं। वह तो होना ही है। आप प्रसन्नतापूर्वक कर लें। जीविका के बारे में भी चिंता की कोई बात नहीं। भगवान् सबकी व्यवस्था करते हैं, वे आपकी भी करते हैं।”
“व्यावहारिक क्षेत्र में आप निराशा एवं आशंका के साथ नहीं, प्रसन्नता के साथ प्रवेश करें। माता की सहायता आपको आड़े वक्त पर सदा काम आती रहेगी। अखण्ड ज्योति आप पढ़ते ही रहते होंगे। उसे अपने अन्य मित्रों को भी पढ़ाया करें।”
इसी उपर्युक्त निर्देश की तरह एक और पत्र का अवलोकन करें, जो 17-10-52 को श्री बिहारीलाल दुबे (बिलासपुर) को लिखा गया था।
“हमारे आत्मस्वरूप,
आपका पत्र मिला। आप गायत्री प्रचार के लिए जो प्रयत्न करते हैं, वह एक उच्च कोटि के यज्ञ से किसी भी प्रकार कम नहीं है। आपकी नवरात्रि साधना सानंद संपन्न हुई, यह बड़े आनंद की बात है। तप ही मनुष्य जीवन की सच्ची संपत्ति है। उस मार्ग पर चलते रहने से आपको आशाजनक शाँति मिलेगी।”
कई व्यक्ति भावुकतावश गुरु की काया को, स्थूल शरीर को ही सब कुछ मान बैठते हैं। गुरु ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश है, पर पूज्यनीय उसके विचार हैं। कई के मन में आता है, हमें गुरुदेव के दर्शन होते, हम भी उनके पैर दबा पाते, हम भी उनकी कुछ सेवा कर पाते। ऐसी परिस्थितियों में साधक का मार्गदर्शन हमारी गुरुसत्ता करती है, जब वे श्री बैजनाथ जी सौनकिया (दिगौड़ा, टीकमगढ़ म.प्र.) को 2-3-63 को लिखते हैं।
“हमारा शरीर नहीं, अंतःकरण ही श्रद्धा के योग्य हे। आप हमारी भावनाओं को सुविस्तृत करके हमारी सच्ची सहायता और प्रसन्नता का माध्यम बनते हैं।
आपके ब्राह्मण शरीर से जीवनभर ऋषिकर्म ही होते रहेंगे और आप पूर्णता का लक्ष्य इसी जन्म में प्राप्त करेंगे, ऐसा विश्वास है। उस क्षेत्र में आप अपने संकल्प द्वारा प्रकाशवान् सूर्य की तरह चमकेंगे और बहुत जनकल्याण करेंगे, ऐसा विश्वास है।”
कितना स्पष्ट निर्देश है एक युगद्रष्टा गुरु द्वारा एवं किसी भी शिष्य के लिए करने योग्य कर्त्तव्य है। कभी-कभी कुछ विशिष्ट मार्गदर्शन भी साधकों को मिला करता था। जैसी-जैसी पात्रता होती, वैसा ही उपचार उसे बताया जाता। साधना में महत् सत्ता के साथ साझेदारी पात्रता का विकास किए बिना संभव है भी नहीं। आगर (मालवा, म.प्र.) के श्री नंदकिशोर शर्मा को 17-4-63 को लिखे एक पत्र पर दृष्टि डालें। “हमारे आत्मस्वरूप,
पत्र मिला। आप पिछले पत्र में बताई गई विधि से रविवार की उपासना आरंभ कर दें। दृश्य क्या दीखेंगे, ऐसा न सोचें।
आप हमारी आत्मा से अपनी आत्मा को सटाकर हमारी गरमी और रोशनी अपनी आत्मा में प्रवेश करती हुई ध्यान किया करें। अपने शरीर को हमारे शरीर से सटा हुआ उसी प्रकार ध्यान करें जैसे राम-भरत परस्पर मिले थे। भरत मिलाप का दृश्य ध्यान में रख सकते हैं।”
कितनी सुँदर उपमा के साथ समझाया गया है। तादात्म्य, तद्रूपता, विसर्जन, विलय की इससे अच्छी और क्या व्याख्या हो सकती है। किसी भी साधक के लिए उपासना संबंधी मार्गदर्शन है, ध्यान कैसे किया जाए, यह बताया गया है।
थोड़ा उच्चस्तरीय साधना संबंधी मार्गदर्शन की बात सोचें, तो मन में कुँडलिनी योग, हठयोग आदि के विषय में जिज्ञासा आने लगती है। हर कोई चाहता है कि उसकी कुँडली वैसी ही जग जाए, जैसी कि कभी नरेंद्रनाथ की रामकृष्ण परमहंस ने जगाई थी। परंतु पूज्यवर का बड़ा स्पष्ट चिंतन इस विषय में है। वे 21-2-54 को श्री रामदास (कानपुर) को लिखते हैं।
“हठयोग एवं विरक्ति प्रधान योग साधनाओं में कुँडलिनी, चक्रवेधन आदि का विधान है। गृहस्थ योग एवं कर्मयोग के पथिकों को उस मार्ग पर नहीं चलना पड़ता और वे राजा जनक की तरह आवश्यक कार्य करते हुए भी उच्च आध्यात्मिक मनोभूमि में पहुँचकर लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं। जिन साधनाओं की आप चर्चा किया करते हैं, वह आपकी शारीरिक एवं साँसारिक स्थिति के लिए अनुकूल नहीं है। आप अन्य सरल साधनाओं के द्वारा ही लक्ष्य तक पहुँच जाएँगे। शबरी, निषाद, रैदास आदि अनेक साधारण स्थिति के साधक बिना विशिष्ट योग साधनाओं के उच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सके थे। आप भी वैसा ही कर सकेंगे। गृहस्थ त्यागने की, नौकरी छोड़ने की आपको आवश्यकता न पड़ेगी। कोई चमत्कारिक अनुभव आपको भले ही न हों, पर आप गृहस्थ योग की भूमिका को ठीक प्रकार पालन करते हुए योगी और यतियों की गति को प्राप्त कर लेंगे। आप इस संबंध में पूर्ण निश्चिंत रहें और सब सोचना-विचारना हमारे ऊपर छोड़ दें।”
पाठकों के लिए इस अंक में साधना संबंधी प्रारंभिक से उच्चतम स्थिति का मार्गदर्शन है। तरह-तरह के चोंचले खड़े करने के बजाय मन तल्लीन-तन्मय हो जीवन-साधना में निखार आता रहे, वही ध्यान सर्वाधिक सफल है, यह निष्कर्ष पूज्यवर के लिखे पत्रों से मिलता है। हमने अपने अध्यात्म को हौआ बना लिया है अथवा उसका बड़ा ही जटिल विकृत स्वरूप हमारे मन में है। अध्यात्म जीवन जीने की कला सिखाता है। अगर मर्म समझ में आ जाए तो व्यक्तित्व का परिष्कार, गुणों में अभिवृद्धि एवं दृष्टिकोण पर छाए कुहासे मिटने की प्रक्रिया संपन्न होने लगती है। यही वह कुँजी है, जो हमें अपनी गुरुसत्ता के चिंतन से जोड़कर हमारी आध्यात्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करती है। यदि इन पत्रों से कुछ प्रतिशत परिजन भी सच्चा मार्गदर्शन पा सकें, तो यह परिश्रम हम सफल मानेंगे।