त्याग-बलिदान की संस्कृति देवसंस्कृति-3 -परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

January 2001

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(गताँक से आगे)

मित्रो! आदमी हो या कोई पक्षी हो, बुड्ढा हो, बिना पढ़ा हो या साधनहीन हो, तो भी कम-से-कम उसके भीतर इतनी हिम्मत अवश्य होनी चाहिए कि अनीति का विनाश करने के लिए, लड़ाई लड़ने के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाए। बेटे! बड़े-बड़े बादशाहों को तो हम भुला सकते हैं, लेकिन उस पखेरू को हम सदैव याद रखेंगे। उसे हम भुला नहीं सकते। उस पखेरू को न भुलाने का मतलब है, देवपूजन अर्थात् देवत्व का पूजन। बेटे! भारतीय संस्कृति में देवत्व का पूजन करने की परंपरा है। यही परंपरा सतयुग को लाती है, धर्मयुग को लाती है। मानवजाति के उज्ज्वल भविष्य को लाती है। कौन-सी परंपराएँ? जिनको हम दैवीय परंपराएँ कहते हैं। दैवीय परंपराएँ क्या होती हैं? तिलक लगाना, माला जपना, गंगाजी नहाना, सत्यनारायण की कथा कहना आदि, क्या यही दैवी परंपराएँ हैं? नहीं, बेटे! ये तो खेल-खिलौने मात्र हैं। जो इसी खेल-खिलौने में उलझे रहते हैं, उन्हें हम ‘अफीमची’ कहते हैं, सनकी कहते हैं। काम होता नहीं है, त्याग की बात बनती नहीं, बैठे-बैठे कोने में झपकियाँ लेता रहता है, सरकता रहता है और कहता है कि प्रकाश दिखा दीजिए। घंटी बजा दीजिए, कान में नादब्रह्म सुना दीजिए। पेट में से पिल्ला निकाल दीजिए। उसमें से निकाल दें तेरा सिर।

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? दैवीय सभ्यता यह नहीं है। दैवीय सभ्यता वह है, जिसमें त्याग और बलिदान की बात करनी पड़ती है। बेटे! हजारों वर्षों का इतिहास जब हम पढ़ते हैं, तो हमको दैवीय सभ्यता का यही स्वरूप दिखाई पड़ता है। रामचंद्रजी के बाद श्रीकृष्ण जी का नंबर आता है। श्रीकृष्ण जी का जीवन चरित्र जैसा कुछ भी आता है, उन्होंने जिन लोगों के साथ लेकर के काम शुरू किया था, उन लोगों के नाम थे, पाँडव। पाँडवों में क्या था? दैवीय सभ्यता थी। पाँडव देवताओं से पैदा हुए थे। मैंने सुना है कि कुँती ने देवताओं का जप-पूजन किया था और जप-पूजन करने के बाद में बच्चे पैदा किए थे। कैसे थे पाँच बच्चे? तो क्या उनमें एक था आई.ए.एस., एक था इन्कम टैक्स ऑफिसर, एक था सी.बी.आई. ऑफिसर आदि। इस तरह क्या उन्होंने लाखों रुपयों की आमदनी की थी? करोड़ों की जायदाद खरीदकर रख गए थे? तो फिर कुँती का बेटा, देवता का बेटा कौन होता है? क्या वह जिसके पास मोटरें हों, जिसके पास दौलत हो, जिसके पास मकान हो। नहीं, यह आपकी परिभाषा है। देवताओं की परिभाषा अलग थी।

मित्रो! देवताओं के बेटों को कैसा होना चाहिए? अगर कोई देवता का बेटा है, तो उसके व्यवहार में और जीवन में क्या गुण आना चाहिए? इसे हम पाँचों पाँडवों के जीवन में देख लेते हैं। अज्ञातवास के समय कुँती अपने बच्चों के साथ एक ब्राह्मणी के यहाँ छिपी हुई थी। उस इलाके में कोई एक राक्षस रहता था। जो वहाँ के हर घर से एक-एक आदमी प्रतिदिन मारने के लिए बुलाया करता था और उन्हें खा जाता था। नंबर के हिसाब से उस दिन ब्राह्मणी के बच्चे का नंबर आ गया। ब्राह्मणी रोने लगी। उसने कहा कि हमारे एक ही बालक था और वह भी आज राक्षस के हवाले होने जा रहा है। जब वह बैठी हुई रो रही थी, तो कुँती ने पूछा, बहिन क्या बात है? ब्राह्मणी बोली कि हमारे पास एक ही बच्चा है और उसको आज राक्षस के पास जाना पड़ेगा। उसे मरना ही होगा। अब हम क्या कर सकते हैं?

कुँती ने कहा कि आपने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपा रखा है, तो हमारा भी तो कुछ कर्त्तव्य हो जाता है। हम भी तो कुछ करेंगे आपके लिए। उन्होंने कहा, बच्चो! तुम पाँच हो। एक काम करो, यह जो ब्राह्मणी है, इसके एक ही बालक है। इसने अपनी जान जोखिम में डालकर हमको छिपाकर रखा है। इसलिए क्या करना चाहिए बच्चो? तुममें से एक बच्चे को अपना बलिदान कर देना चाहिए। बच्चों ने कहा, माता जी! इससे बड़ा सौभाग्य हमारा क्या हो सकता है? भीम चले गए और उसे बचा लिया।

मित्रो! यह क्या है? यह है देवता का मन। देवता का मन वह होता है कि जब उसके जीवन में कोई त्याग करने, बलिदान करने का मौका आता है, तो बल्लियों उछलने लगता है। यह होता है, देवताओं का दिल। और राक्षसों का दिल कैसा होता है? राक्षसों का, चोरों का, घटिया आदमी का दिल यह है कि जब त्याग का वक्त आता है, तो वह थर-थर काँपने लगता है। हर समय जिसकी यही नीयत रहती है कि यह मंत्र जपूँगा, यह तंत्र जपूँगा, यह पूजा करूंगा और इससे यह पैसा कमाऊँगा, यह औलाद पाऊँगा, धन कमाऊँगा। कामना-ही-कामना, कामना-ही-कामना जिसके अंदर भरी हुई है, बेटे यह कोई अध्यात्म नहीं है।

ठीक है मित्रो! यह बच्चों का अध्यात्म रहा होगा। मैं यह तो नहीं कहता कि बच्चों को यह जरूरत नहीं है। हम मिठाई बाँट करके और कोई लोभ देकर के बच्चों को अपने पास बुला लेते हैं। यह भी अध्यात्म का कोई हिस्सा होगा, पर मैं इसको ठूंस कहता हूँ, भूसी कहता हूँ। किसकी? अध्यात्म की। भूसी कौर-सी? जिसमें यह पाया जाता है कि अध्यात्म क्या है। बेटे, यह अध्यात्म का खिलवाड़ है, छिलका है, जूठन का पत्ता है। पत्ते पर मिठाई खाकर के लोग उसे फेंक देते हैं और कुत्ते उसे चाटने के लिए टूट पड़ते हैं, चट कर जाते हैं। यह भी हो सकता है प्राप्त करने की दृष्टि से। अध्यात्म को हम भौतिक चीजों को पाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, इसलिए बेटे, मैं इसको जूठन का पत्ता कहता हूँ। किसी आदमी का खाया हुआ पत्ता फेंक दिया गया, दूसरा कहता है कि हमको भी दे दीजिए। हाँ बेटे, तुझे भी दे देंगे।

बेटे, हमने तप किया है और तप करके पाया है और तू हिस्सा माँगता है। चल तुझे भी दे देंगे। यह क्या है? छोटी चीज है, रत्तीभर चीज है। न इसमें किसी को घमंड करने की जरूरत है और न सफलता प्राप्त करने की जरूरत है। हमने अध्यात्म से यह पा लिया, वह पा लिया। बेटे, पाने से अध्यात्म का कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म का संबंध है, देने से। आपने क्या दिया, बताइए? बस, यही एक सवाल है। अगर आप यह कहते हैं कि हम भगवान् की भक्ति से कोई ताल्लुक रखते हैं, तो आप यह जवाब दीजिए कि दैवीय सभ्यता के लिए, श्रेष्ठ आचरणों के लिए, लोगों के सामने अच्छी परंपरा स्थापित करने के लिए आपने क्या दिया? यही एक जवाब दीजिए और दूसरा हम कुछ नहीं सुनना चाहते। हमने इतना भजन किया। तो ठीक है अपने भजन को डिब्बी में रखिए। भजन का या और किसी का हवाला देना हम नहीं सुनना चाहते। गायत्री मंत्र की ग्यारह कॉपी हमने लिखीं। तो आप अपनी ग्यारह कॉपी ताले में बंद कर दीजिए। हमें मत बताइए। हमको तो यह बताइए कि आपने दैवीय सभ्यता के लिए कितना त्याग किया है? कितना बलिदान किया है? कितनी सेवा की है? नहीं साहब! हमने तो ग्यारह कापियाँ लिखी हैं। अच्छा, ग्यारह कापियाँ मुबारक हों, उसे अपने घर रखिए। हम नहीं सुनना चाहते।

मित्रो! अध्यात्म की प्राचीन परंपराएँ, शालीन परंपराएँ, महान् परंपराएँ भगवान् को अपनी ओर खींचती हैं और खींचने के अलावा दूसरों की सहायता करने में समर्थ होती हैं। ऐसा कोई अध्यात्म नहीं है, जो मनोकामना को प्राप्त कराता है। अध्यात्म वह है, जिससे आदमी अपना कल्याण करते हैं और दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होते हैं। ऐसी शक्ति, जो दूसरों का कल्याण करती है, वह केवल असली अध्यात्म में रहती है। वह त्याग किए बिना, बलिदान किए बिना, सेवा धर्म किए बिना, दैवीय सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप जीवन ढाले बिना किसी में नहीं आ सकती। न आई है और न आएगी। कौन-सी? जिसमें त्याग जुड़ा हुआ न हो, सेवा जुड़ी हुई न हो, लोकहित जुड़ा हुआ न हो, कष्ट सहने की बात जुड़ी हुई न हो, उसमें अध्यात्म कैसे हो सकता है? नहीं बेटे! इससे कम में कभी अध्यात्म न था और न कभी होगा।

मित्रो! भगवान् श्रीकृष्ण ने उस जमाने में, दुर्योधन के जमाने में जब चारों ओर असभ्यता और अनीति फैली पड़ी थी, तब यही नमूना पेश किया था। उनके पाँच हितैषी और हिमायती थे। पाँचों हिमायतियों का मैं एक नमूना बता रहा था। पाँचों पाँडवों से कुँती ने कहा, बच्चो! तुममें से एक को वहाँ जाना चाहिए। बच्चे उछलने लगे और कहने लगे कि यह सौभाग्य तो हमको मिलना चाहिए। प्रतिस्पर्द्धा-काँम्पिटीशन शुरू हो गई कि बलिदान में हम आगे जाएँगे। पाँचों बच्चों में प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई। कुँती के लिए जद्दोजहद खड़ी हो गई। युधिष्ठिर कहते कि हम सबसे बड़े हैं। हम दुनिया में सबसे पहले आए थे, इसलिए हमारा नंबर पहला है। सबसे छोटे वाले नकुल कहने लगे कि हम सबसे छोटे हैं, इसलिए हमको जाना चाहिए। अर्जुन कहने लगे कि इसके लिए हमको जाना चाहिए। सबमें झगड़ा होने लगा। कुँती ने कहा, अच्छा तुममें से कौन सबसे भाग्यवान है, इसके लिए मैं गोली बनाकर निकालती हूँ। पाँचों पाँडवों के नाम से गोली बनाकर डाल दी गई और कहा गया कि अच्छा, एक गोली उठा लो। जिसका नाम आ जाएगा, उसी को जाना चाहिए।

गोली उठाई गई। भीम का नाम आ गया। भीम उछलने लगे, ओ हो! यह मेरा सौभाग्य है। मित्रो! सौभाग्य किसे कहते हैं? नौकरी में तरक्की हो जाने को? लॉटरी में रुपया निकल आने को? तीन बेटियों के बाद दो बेटा हो जाने को? आपकी दृष्टि में इसके अतिरिक्त और कोई सौभाग्य होता है क्या? नहीं होता। बेटे! यह सौभाग्य नहीं होता। सौभाग्य वह होता है, जिसमें आदमी अजर-अमर हो जाता है। बेटे! सौभाग्य वह होता है, जिसमें हजारों-लाखों आदमी श्रद्धा के सुमन चढ़ाते रहते हैं और उसके चरणों पर आँसू बहाते रहते हैं और जिसके मरने के बाद भी आदमी उससे प्रकाश-प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, रोशनी ग्रहण करते रहते हैं। देवता उन्हें ही कहते हैं, सौभाग्य उसे कहते हैं। सौभाग्यशाली वे हैं, वंदनीय वे हैं, जिन्होंने अपना आचरण इस तरीके से पेश किया कि जिससे प्रेरित होकर हजारों आदमी नमूने पेश करते रहें और दिशा प्राप्त करते रहें।

मित्रो! ऐसा ही हुआ। भीम का नंबर आ गया। भीम बच्चा था और राक्षस नौजवान। राक्षस कितना बड़ा था? समझ लीजिए छत के बराबर रहा होगा। और भीम? छोटा-सा ही था। भीम लड़ने के लिए चला गया। महाभारत की कथा के अनुसार मैंने सुना है कि भीम ने कहा, अच्छा, आप हमको खाएँगे तो हो ही, तो क्यों न पहले दो-दो हाथ कर देख लें। राक्षस ने कहा, चल, इसमें कोई एतराज नहीं है हमको। आ, हो जाए, दो-दो हाथ। भीम लड़ने के लिए तैयार हो गया और उसने राक्षस को पटककर मार दिया।

क्यों साहब! ऐसा हो सकता है? हाँ बेटे, ऐसा हो सकता है। सत्य हजार हाथी के बराबर बलवान होता है। बच्चों ने भी सत्य का आश्रय लेकर बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई हैं। कौन-कौन ने पाई हैं? चंद बच्चों के नाम बता सकता हूँ। प्रह्लाद बच्चा था, लेकिन उसका बाप हिरण्यकश्यप कितना समर्थ था। वह इतने बड़े दैत्य से लड़ने के लिए खड़ा हो गया और उसका कचूमर निकाल दिया। यह बच्चों की बात कह रहा हूँ। कंस से लड़ने के लिए श्रीकृष्ण भगवान् गए थे। तब वे कितने छोटे थे। बच्चा जब लड़ने के लिए गया तो कंस को, चाणूर को और बकासुर को मार डाला और किस-किस को मारा? हाथियों को, कालिया को मार डाला, कैसे मार डाला बच्चे ने? बेटे, बच्चे ने नहीं, सत्य ने मार डाला। सत्य के पास हजार हाथियों के बराबर बल होता है। इसीलिए मुष्टिकासुर कौन था? एक हाथी था। भगवान् श्रीकृष्ण चाहते तो और भी निन्यानवे हाथियों को मार सकते थे, क्योंकि उनके पास सत्य था। बच्चा हो तो क्या, बड़ा हो तो क्या, जिसके पास सत्य है, विजय उसकी ही होती है।

मित्रो! महाभारत की कथाएँ भी इसी तरह की मालूम पड़ती हैं, जिसमें लोगों ने देवत्व पैदा किया। देवत्व का छोटा-सा फार्म बनाया, सीढ़ी बनाई, आदर्श उपस्थित किया, जिससे लोगों के सामने देवत्व घिसटता हुआ चला गया, और वे दिन भी आए, जबकि दुर्योधन की आसुरी सभ्यता का निवारण हो गया, समाधान हो गया। कभी और भी ऐसे ही हुआ था। सारे इतिहास में तो यही पढ़ता रहता हूँ। अठारह पुराणों का अनुवाद मैंने किया है और इतिहास भी पढ़ा है। दो वर्ष पहले मैंने इतिहास को ज्यादा गहराई और ध्यान से पढ़ा है। ‘भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदान’ नामक बड़ा ग्रंथ मैंने लिखा है। आपने पढ़ा होगा, उसमें मैंने हिंदुस्तान की सारी-की-सारी हिस्ट्री लिखी है। सारी दुनिया को निहाल कर देने की हिस्ट्री। किससे निहाल कर दिया था? बेटे, सारी दुनिया को धन दिया था, विद्या दी थी, ज्ञान दिया था। सारी दुनिया में भारतीयों का वर्चस्व छा गया था और उनको जगद्गुरु माना गया था, देवता माना गया था।

महाराज जी! यह सब कैसे हुआ था? बता दीजिए हम भी करना चाहते हैं। ऐसी विधि हमको भी बता दीजिए। हाँ बेटे, ला तुझे भी बता देते हैं कि क्या विधि है? बस एक तो तू माला ले ले और एक मंत्र। मंत्र लेकर क्या करूं? जप किया कर ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय। नमः शिवाय से क्या हो जाएगा? सारे विश्व में तेरा यश हो जाएगा और तू अजर-अमर हो जाएगा। सारी दुनिया का कल्याण हो जाएगा। ऐसा हो जाएगा? नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता।

मित्रो! मैंने जो पुस्तक लिखी है ‘भारतीय संस्कृति का समस्त विश्व को अजस्र अनुदान’। उसमें मैंने यह लिखा है कि भारतीय लोगों ने किस कदर त्याग और बलिदान किए हैं और एक से बढ़कर एक कैसे-कैसे नमूने खड़े किए हैं। बलिदानों का जखीरा लगा दिया है। भारतीय सभ्यता को अपने अनुदान देने वाले लोगों का जब मैं इतिहास पढ़ता हूँ, तो आँखों में से आँसू टपक पड़ते हैं। उनमें से एक थे, कुमारजीव, जो हिंदुस्तान से रवाना हुए और चीन पहुँच गए। जहाँ की न वे भाषा जानते थे और न कुछ जानते थे। “चीन नाम का देश है, जिसमें जाकर बौद्ध धर्म का प्रसार करेंगे।” यह सोचकर वे अकेले ही रेगिस्तानों को पार करते हुए चले गए। उन भयंकर रेगिस्तानों को जहाँ तीस-तीस दिनों तक पानी की एक बूँद भी नहीं मिलती थी। पेड़ की एक छाया तक नहीं है, केवल रेगिस्तान-ही-रेगिस्तान भरा पड़ा है। अपनी थैली में थोड़ा-सा पानी लेकर वे रवाना हो गए। कौन? कुमारजीव। वे चाइना में रह गए। चाइना में कौन था उनका? न कोई बेटा था, न मित्र था, न कोई शिष्य था उनका। वहाँ जाकर के उन्होंने चायनीज भाषा सीखी और सीखने के बाद में बौद्ध धर्मग्रंथों का अनुवाद करके वहाँ रखा। सारे-के-सारे चाइना को बौद्ध बनाने का श्रेय कुमारजीव जैसे बुद्ध के अनुयायियों को था।

गुरुजी! यह कैसे हो गया? बेटे, जादू से। जादू से कैसे हो गया? हमको भी सिखा दीजिए। बेटे, जिस जादू से दुनिया में बड़े-बड़े काम हुए हैं और अध्यात्म का प्रणयन हुआ है, उसका नाम है, त्याग और बलिदान। नहीं महाराज जी। त्याग-बलिदान का नहीं, हमको तो बता दीजिए मंत्र। मंत्र कैसा होता है? अहा! इसी मंत्र के चक्कर में फिर रहा है धूर्त। अच्छा महाराज जी! बता दीजिए जादू। जादू बता दें तोरा सिर। मित्रो! क्या हुआ? सारी-की-सारी पुस्तकों में मैंने लिखा है कि भारत के गौरव को ऊँचा उठाने के लिए, सारे विश्व का कायाकल्प कर डालने के लिए, जो आधारभूत मंत्र था, वह था त्याग और बलिदान। त्याग और बलिदान की आवश्यकता महात्मा बुद्ध को पड़ी कि जिससे न केवल हिंदुस्तान, वरन् सारे के सारे विश्व को सुसंस्कृत बनाया जाए, फिर से सुसंस्कृत बनाया जाए। इसके लिए उन्हें अपील करनी पड़ी कि जो हमारे सबसे प्यारे हों, जो हमारे हितैषी हों, जो हमारी आज्ञा का पालन करने वाले हों, जो हमसे यह कहते हों कि बुद्ध हमारा है, तो वह त्याग करके दिखाएँ। यही सीधा-सरल मार्ग है।

महाराज जी! हम तो आपके चरणों में फूल चढ़ा देंगे। आपके ऊपर फूल चढ़ाएँगे और तीन बार नमस्कार करेंगे। ओ हो। बड़ा भारी शिष्य है हमारा। और क्या करेगा? महाराज जी! पच्चीस पैसे का आपका एक रंगीन फोटो खिंचवाऊँगा। फिर क्या करेगा उसका? टाँगूँगा। कैसे टाँगेगा, उलटा या सीधा? महाराज जी! टाँगूँगा तो सीधा। बेटे, हमारा कहना मान तो उलटा टाँग दे फोटो को। उलटा टाँग देगा, तो ज्यादा फायदा हो जाएगा। क्यों? क्योंकि तब गुरु जी की नाक में दम आएगी तो जल्दी आशीर्वाद देंगे। तो यह मामला है? हाँ बेटे, घटिया लोगों का, छोटे लोगों का, हलके लोगों का यही मामला है। इनके लिए जितनी गाली दी जाए, कम है। यह हमारे आपके सबके ऊपर लागू होती है। इसमें आदमी सिवाय चालाकी के, सिवाय माँगने के, सिवाय बड़ा आदमी बनने के, सिवाय ऐय्यासी के, सिवाय विलासिता के कुछ बाकी नहीं है।

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जिंदा रखने के लिए बुद्ध ने जो कदम उठाए, उसने अपने-अपने मित्रों और शिष्यों से कहा कि आप आएँ और हमारे पीछे-पीछे चलें। किस तरह चलें? आप हमारी बात मानते हैं, तो हमारे रास्ते पर चलें और हमारा अनुकरण करें। क्या रास्ता है आपका? हमारा रास्ता है, त्याग और बलिदान का। किसने त्याग और बलिदान के रास्ते पर कदम बढ़ाए? एक लाख शिष्य और सवा लाख शिष्याओं ने। उन सारे-के-सारे लोगों ने कहा कि हम आपके रास्ते पर चलेंगे। आपने जिस काम के लिए अवतार लिया है, उस काम में हम आपका सहयोग करेंगे और सहायता करेंगे। दो लाख आदमियों को लेकर बुद्ध ने न केवल हिंदुस्तान, वरन् समूचे एशिया, न केवल एशिया, वरन् सारे-के-सारे महाद्वीपों में दैवीय सभ्यता का प्रसार किया। उस जमाने में सात महाद्वीप माने जाते थे। अब तो हमने पाँच कर लिए हैं। सारे महाद्वीपों में उन लोगों ने न जाने क्या-से-क्या काम करने शुरू कर दिए, जिससे वे जगद्गुरु कहलाने के अधिकारी हुए।

यह क्या किया बुद्ध ने? बेटे, बुद्ध ने यही किया। दैवीय सभ्यता का प्रसार इसी से हुआ है। तो क्या बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे? हाँ बेटे, बुद्ध ने बड़े व्याख्यान दिए थे, लेकिन व्याख्यान देने के साथ-साथ में उसके नमूने भी पेश किए गए थे। क्या नमूना पेश किया? उनका बेटा राहुल आया और बोला, पिताजी! हम आपके अंश-वंश से पैदा हुए हैं। हाँ बेटे, तुम हमारे अंश-वंश से पैदा हुए हो तो तुम्हें हमारी वंश-परंपरा की रक्षा करनी चाहिए। वंश-परंपरा की रक्षा कैसे होती है? पंडित जी से पूछा, तो वे बोले, बस जौ का पिंड बना लो और उस पर धूप-दीप, फूल लगा दो और ‘तर्पयामि’ करके पिंड को गंगा जी में चढ़ा दो। बस, वंश का उद्धार हो जाएगा। तो क्या पिताजी। ऐसे उद्धार होगा? नहीं बेटे, ऐसे उद्धार नहीं होगा। कैसे होगा? जिस रास्ते पर हम चले हैं, उस रास्ते पर तू भी चल।

राहुल ने कहा, अच्छा पिताजी! कोई और रास्ता बताइए? बुद्ध ने कहा, नहीं बेटे, हम जिस रास्ते पर चले हैं, उससे अच्छा कोई रास्ता नहीं हो सकता है। अगर रहा होता, तो हम भी उस पर चल दिए होते। यही सबसे अच्छा रास्ता है। तुझे यही करना पड़ेगा। अगर तू हमारा बेटा है और यह कहता है कि हम आपका वंश चलाएँगे, तो हमारे रास्ते पर चल। राहुल तैयार हो गया। वह सारी जिंदगी भर अपने पिता के कदमों पर चलता रहा और न जाने कहाँ-से-कहाँ चला गया। वह वर्मा गया। सारे-के-सारे विश्व में एक सिरे से दूसरे सिरे तक भटकता फिरा और अपने पिता के कामों का और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए त्याग-बलिदान की झड़ी लगाता रहा।

(क्रमशः)


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