जैसे भी मिले, अनिवार्य है गुरु का आश्रय

January 2001

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गहन अर्थों में कोई भी मार्गदर्शक सत्ता दूसरे गुरु से भिन्न नहीं है। गुरु और शिष्य भी अलग-अलग नहीं है। उनका संबंध विद्युतधारा और बिजली के लैंप की तरह है। धारा प्रवाहित होती है, तो लैंप रोशनी देने लगता है। गुरु आध्यात्मिक शक्ति है और शिष्य उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम।

एक संन्यासी हुए हैं स्वामी निगमानंद। गृहस्थ जीवन से निवृत्त होने के बाद उन्होंने संन्यास लिया। आमतौर पर लोग घर-गृहस्थी छोड़कर संन्यास लेते हैं या पारिवारिक दायित्व सिर पर आने से पहले ही हरिद्वार, ऋषिकेश, काशी, प्रयाग, पैठण, काँची, रामेश्वरम् आदि तीर्थों में भाग जाते हैं। स्वामी निगमानंद ने पत्नी की मृत्यु के बाद संन्यास लिया। पत्नी के रहते उनके मन में अध्यात्म की लवलेश झलक भी नहीं दिखाई देती। पत्नी भी औसत स्तर की गृहिणी थी। सामान्य स्त्रियों में पूजा-पाठ और व्रत-उपवास के प्रति जितनी रुचि हो सकती थी, उसमें थी। दोनों बहुत प्रेम और लगाव से रहते थे। पति कुछ ज्यादा ही आतुर अनुरागी थे। विवाह के बारह वर्ष बाद तक संतान नहीं हुई। परिवार में दोनों ही थे। तीस वर्ष की उम्र में पत्नी को किसी रोग ने आ घेरा और वह चल बसी।

पत्नी के निधन ने पति को बरी तरह आहत कर दिया। लगा कि संसार में कुछ रहा ही नहीं है। जीने का कोई उद्देश्य और अर्थ नहीं बचा। एक बार मन में आया कि पत्नी की चिता के साथ खुद भी जल मरें, लेकिन पत्नी का शव जलाने की भी हिम्मत नहीं हुई। आसक्ति इतनी प्रगाढ़ थी कि उसे सामने रखकर धूनी रमाए से बैठे रहे। स्वजन-संबंधियों ने समझा-बुझाकर और कुछ जोर-जबर्दस्ती दिखाकर अंत्येष्टि की। पति ने पत्नी का शरीर जलते देखा और अंतस् में जैसे क्राँति घटित हो गई। उठती हुई लपटों के साथ पत्नी की विभिन्न मुद्राएँ स्मृतिपटल पर आ गईं। उठना-बैठना, बात करना, प्रेम जताना, हँसना, गाना और कामकाज करना सभी याद आने लगा। इन घटनाओं के उभरने के साथ ही यह बोध जागा कि पत्नी मरी नहीं है। शरीर जला है, लेकिन यह शरीर पत्नी का नहीं था। अस्तित्व का कोई और तल था, जो पत्नी की तरह व्यवहार करता था।

वह कौन-सा-स्वरूप था? सोचने-समझने में देर लग सकती है, लेकिन स्मृति में चमक की तरह कौंध जाने में क्षणभर भी नहीं लगा। उस स्मृति के साथ ही बोध जागा और संकल्प उठा कि पत्नी के शाश्वत रूप की खोज करनी चाहिए। इस संकल्प ने उन्हें संन्यास की प्रेरणा दी। पत्नी का ध्यान किया, स्मरण किया, मंत्र जपा, चिंतन-मनन में उतरे। कोई भक्त अपने इष्ट-आराध्य को जिस आतुरता से पुकारता है, इसे ही व्यग्र भाव से उन्होंने ‘पत्नी’ की साधना की। माता-पिता-गुरु और संत की आराधना-उपासना कर हजारों साधक मुक्ति के लक्ष्य तक पहुँचे होंगे। स्वामी निगमानंद ने पत्नी की आराधना की और सिद्ध स्तर पर पहुँचे। पश्चिम बंगाल के नदिया क्षेत्र में हुए इस संन्यासी को लोगों ने नहीं स्वीकारा, लेकिन स्वामी निगमानंद ने इसकी कभी चिंता नहीं की। वे कहते थे पत्नी के प्रेम ने उन्हें लौकिक दुःखों और अपेक्षाओं से मुक्त कर दिया। परमेश्वर का कोई और रूप दूसरों के लिए आराध्य होगा, मेरे लिए तो पत्नी ही ईश्वर रूप है। वही परमात्मा है। बाद में उन्होंने आश्रम भी बनाया और साधकों को योगभक्ति की शिक्षा दी।

किसी ने आशंका जताई कि पत्नी भी परमात्मा हो सकती है भला? पुत्र में परमात्मा के दर्शन किए जा सकते हैं। जैसे कौशल्या और यशोदा द्वारा, तो पत्नी के रूप में ईश्वर को क्यों नहीं देखा जा सकता? पति के माध्यम से परमात्मा को प्रकट किया जा सकता है, जैसे कि अनुसूया, सावित्री, राधा आदि ने स्वामी भाव से पति की आराधना की और जगन्नियता की झलक देखी, तो स्वामी निगमानंद ने ही कौन-सा अनर्थ किया।

किसी भी माध्यम से परमात्मसत्ता तक पहुँचने के मार्ग को मनीषियों ने गुरु-शिष्य संबंध के रूप में देखा है। गुरु एक माध्यम होता है। उसके व्यक्तित्व में विराट् ब्रह्म की झाँकी देखी जाती है, तभी दिव्यभाव प्रकट होता है। ज्यादातर मामलों में गुरु एक निमित्त कारण होता है। संभावनाएँ वस्तुतः अपने भीतर से ही प्रकट होती हैं। स्वामी निगमानंद के अनूठे प्रसंग में पत्नी एक साधारण स्त्री थी, लेकिन साधक संन्यासी के लिए वह एक निमित्त ही सिद्ध हुई। संभावनाएँ स्वयं स्वामी निगमानंद में थीं। एक अवलंबन पाकर वे प्रकट हो गईं।

बहुत बार गुरु साधारण स्थिति में होते हैं और शिष्य उनसे आगे बढ़ जाते हैं। यह मानें कि गुरु ही ऊर्जा और संभावना का स्रोत है, तो शिष्य को उनसे आगे नहीं निकलना चाहिए, लेकिन नियम यह है कि व्यक्ति स्वयं अपनी ही सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मार्गदर्शक सत्ता रास्ता दिखाती है और कभी-कभार उत्प्रेरक का काम करती है। श्री अरविंद का उदाहरण प्रत्यक्ष है। उन्होंने महाराष्ट्र के योगी लेले से साधना सीखी थी। उसी का अभ्यास करते आँतरिक स्थिति के बारे में किसी को विशेष जानकारी नहीं है।

गुरु से तिरस्कार और प्रताड़ना भी मिलती है। बहुत बार वे द्वार पर शिष्य भाव से आए साधक को स्वीकार नहीं करते। जैसे द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाई। उसके माध्यम से अपनी अंतर्निहित संभावनाओं का आह्वान किया और गुरु के संकल्प का अतिक्रमण कर अर्जुन से भी बड़ी सिद्धि प्राप्त कर ली। उपनिषदों में आरुणि, श्वेतकेतु, सत्यकाम आदि शिष्यों का उल्लेख मिलता है। गुरु ने इन्हें कभी सामने बिठाकर विद्या नहीं सिखाई, न ही साधन-अभ्यास कराया था। व्यवहार में मार्गदर्शक सत्ता से उपेक्षा मिलने पर भी इन ऋषिकुमारों के मुखमंडल ब्रह्मतेज से चमकते रहते थे। कबीर प्रसंग तो इतिहास में भी शामिल है। स्वामी रामानंद ने उन्हें मंत्रदीक्षा देने से मना कर दिया। काशी के घाट पर वे योजना बनाकर गुरु के पाँवों तले आए। गुरु ने किसी व्यक्ति पर पैर पड़ते देखा, तो ‘राम’ ‘राम’ कह उठे। कबीर ने उसे ही गुरुमंत्र मान लिया। राम नाम जपकर निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति के स्तर तक पहुँच गए।

गुरु अपने भीतर ही विद्यमान है। परमपूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि इस सद्गुरु की शरण में जाएँ और सर्वतोभावेन समर्पण करें। समर्पण हो जाए तो भीतर सोया पड़ा बीज टूट जाता है और उसमें निहित आत्मतत्त्व प्रकट होने लगता है। बाहर दिखाई देने वाली मार्गदर्शक सत्ता अपने भीतर विद्यमान सद्गुरु का ही प्रतिबिंब है, लेकिन कई बार ऐसी विभूतियाँ भी संसार में आती हैं, जो समय से पहले ही संभावनाएँ प्रकट कर देती हैं। उनमें सामर्थ्य होती है। संकल्प और स्पर्श मात्र से वे साधक को परम लक्ष्य तक पहुँचा देती हैं। ज्ञात इतिहास में इस तरह की दीक्षा देने वाले गुरुओं में आदि शंकराचार्य का नाम आता है। उन्होंने पद्मपाद, गोरक्ष, सुरेश्वर और हस्तामलक नामक शिष्यों का संकल्प मात्र से उद्धार कर दिया था। अपने पुरुषार्थ से प्रयत्न करते तो इन शिष्यों को आठ से बारह जन्म और लेने पड़ते। लेकिन आदि शंकर ने अपनी अलौकिक क्षमता से समय के पूर्व ही उन्हें परम स्थिति में पहुँचा दिया। यह बात अलग है कि इन विभूतियों को धर्म-संस्कृति के पुनरुत्थान का दायित्व भी सौंपा। कहा कि मुक्ति अनायास ही नहीं मिली है। अनुग्रह का मूल्य चुकाना पड़ेगा। वह गुरु के अधूरे कार्य को पूरा करने के रूप में होगा।

पिछली शताब्दी में स्वामी रामकृष्ण परमहंस उस स्तर की समर्थ मार्गदर्शक सत्ता हुई, जिसने शिष्यों को समय से पहले ही समाधि के लक्ष्य तक पहुँचाया। नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास जाया करते थे। अध्यात्म, ईश्वर, भक्ति, ज्ञान और विद्या की बातें सुन-सुनकर एक दिन उन्होंने यही पूछा था कि क्या आपने ईश्वर को देखा है। गुरु ने ‘हाँ’ या ‘न’ में उत्तर दिया। प्रतिप्रश्न किया कि “तुम देखना चाहते हो?” इसके बाद गुरु और शिष्य में संवाद या व्यवहार का जो क्रम चला, उसकी परिणति नरेंद्र का क्षुद्र अहं ब्रह्म के विराट् सागर में डूब जाने के रूप में ही हुई। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने पाँव के अँगूठे से नरेंद्र का स्पर्श किया और शिष्य की समाधि खुली। जब समाधि खुली तो गुरु ने कहा, तुम्हें इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करनी थी, लेकिन चालीस वर्ष की आयु पूरी होने पर। माँ का आदेश था, सो समय से पहले झलक दिखा दी। अब पुनरावृत्ति नहीं होगी। समाधि बंद और चाभी मेरे पास। अब यह उपयुक्त समय आने पर ही सौंपी जाएगी।

कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद इस प्रतिबंध को यकायक झेल नहीं पाए। वे चीख उठे! गुरु से बहुत अनुनय-विनय की, लेकिन मार्गदर्शक सत्ता ने जरा भी रियायत नहीं की। कहा, माँ का आदेश है कि उसका यंत्र बनो। उसके यंत्र बनोगे तभी मुक्ति मिलेगी। स्वामी विवेकानंद ने अपने आपको गुरु के कार्य के लिए समर्पित किया। समाधि की प्रथम झलक मिलने के बाद उनके चित्त में व्यग्र भाव निरंतर बना रहा। वे अंत तक बेचैन रहे। जैसे किसी नाग से मणि छीन ली गई हो और वह उसे पाने के लिए छटपटाता घूम रहा हो। वैसा ही आवेग स्वामी विवेकानंद के कार्यों में भी था। उनके प्रवचनों में भी कहीं-कहीं यह आवेग दिखाई देता है। लगता है कि एक भाव ठीक से व्यक्त नहीं होता और दूसरा उसके पीछे दौड़ा चला आता है। यह आवेग गुरु की दिखाई झलक को वापस पाने के लिए ही था। अपना मिशन पूरा हो जाने के बाद स्वामी विवेकानंद के चित्त में थोड़ी शाँति आई। रहस्यदर्शियों का कहना है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस अशरीरी रूप में उस समय शिष्य के पास आए थे और मृत्यु से कुछ पहले ही समाधि पर पड़ा परदा उठाया था।

इस शताब्दी में परमपूज्य गुरुदेव के कितने ही शिष्यों को उनके सान्निध्य में विलक्षण अनुभूतियाँ हुई हैं। परिजनों के लौकिक दायित्व पूरे होने और स्वयं को गुरुदेव के काम में नियोजित कर देने वाले अनुभवों का एक अंबार है। वैसा अनुग्रह सौभाग्यशाली साधकों को ही मिलता है। गुरुदेव कहा करते थे कि पात्रता विकसित करने के रूप में वह सौभाग्य साधक को स्वयं ही प्राप्त करना पड़ता है। पात्रता नहीं हो तो मेज, कुरसी, कलम, आसन और दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं के अलावा आस-पास रहने वाले दृश्य-अदृश्य जीव-जंतुओं की तरह कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता।

समर्थ मार्गदर्शक सत्ता का मिल जाना ईश्वर का अनुग्रह है, लेकिन इस तरह का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना उपयुक्त नहीं हैं गुरु नहीं मिले, तो उनका आविष्कार कर लेना चाहिए। दत्तात्रेय ने अपने लिए चौबीस गुरुओं का आविष्कार किया था। अपने आस-पास की वस्तुओं, व्यक्ति और विषयों का अवलोकन करें, तो उनसे पर्याप्त प्रकाश ग्रहण किया जा सकता है।

इन दिनों पाखंडी गुरुओं और धर्मध्वजी लोगों की बड़ी चर्चा होती है। यह भी कि उन्होंने शिष्यों को लूटा, उन्हें धोखा दिया और उनका अहित किया। यह एक सामाजिक समस्या है। धर्मक्षेत्र में घुसपैठ कर जाने वाले धूर्त गुरुओं से बचाव के प्रयत्न चलें। उन ढोंगी गुरुओं को बेनकाब किया जाए, लेकिन सामाजिक स्तर पर ही। जिन्हें अपने आत्मकल्याण की इच्छा है। इन्हें इस तरह की समीक्षा, आलोचना से बचने की सलाह दी गई है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा है कि अध्यात्म पथ के पथिकों को किसी भी गुरु की निंदा-आलोचना से बचना चाहिए। उन्हें छोटा, बड़ा, महान् या अधम कहना व्यर्थ है। गुरु की शिक्षाओं के सार और मानदंड भिन्न हो सकते हैं। उनके व्यक्तित्व और जीवन में त्रुटियाँ भी हो सकती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपने गुरु की देव पूजा करूं और दूसरों के गुरु की धज्जियाँ उड़ाऊँ। आपको केवल इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि साधक के जीवन में गुरु का विधायक योगदान क्या और कितना है।

सदा ही और सभी स्थानों पर किसी-न-किसी स्तर की मार्गदर्शक सत्ताएँ सतत निवास करती हैं। सूर्य नहीं होगा, तो चंद्रमा का प्रकाश रहेगा, वह भी नहीं होगा, तो तारे टिमटिमाकर अपनी रोशनी बिखेर रहे होंगे। उनकी सहायता के लिए जुगनू, दीपक, मोमबत्तियाँ और कम-ज्यादा रोशनी वाले लैंप लगे होंगे। आशय यह है कि प्रकाश सर्वत्र उपलब्ध है। इन सबमें से किसी का अस्तित्व ‘नहीं हो तो आँखें स्वयं अंधकार की अभ्यस्त हो जाती हैं। घटाटोप अँधेरे में कुछ देर तक ही सब कुछ स्याह होता है। धीरे-धीरे आँख के अलावा हाथ, पाँव और त्वचा सहित समस्त इंद्रियाँ अनुभव करने लगती हैं। प्रकाश की यह अनुभूति ही आवश्यकता और स्थिति के अनुसार गुरु का प्राप्त होना है।

अपने गुरु की पूजा तो की जाए, दूसरे के गुरु का भी आदर-सम्मान किया जाए। कम-से-कम उनमें दोष तो नहीं ही देखे जाएँ। साधक के लिए यह आवश्यक है। साधना विज्ञान का मर्म समझाने वालों के लिए तो यहाँ तक कहा गया है कि वे रोगी और धूर्त गुरुओं की निंदा से भी बचें। उनके अनुसार कोई भी गुरु ढोंगी अथवा झूठा नहीं होता है, क्योंकि प्रत्येक गुरु का आध्यात्मिक उत्थान में योगदान होता है। वह योगदान कितना ही तुच्छ क्यों न हो। यह निर्देश आत्मिक विकास की उच्च कक्षा में पहुँच रह साधकों के लिए है।

गहन अर्थों में कोई भी मार्गदर्शक सत्ता दूसरे गुरु से भिन्न नहीं है। गुरु और शिष्य भी अलग-अलग नहीं हैं। उनका संबंध विद्युतधारा और बिजली के लैंप की तरह है। धारा प्रवाहित होती है, तो लैंप रोशनी देने लगता है। गुरु आध्यात्मिक शक्ति है और शिष्य उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम।

अनुग्रह के रूप में मिली हो या मार्गदर्शक सत्ता का आविष्कार किया गया हो, वह दो स्तर पर काम करती है। एक स्तर बाहर से काम करता दिखाई देता है और दूसरा रूप साधक को भीतर से साधता है। इसे कबीर ने कुम्हार द्वारा घड़े बनाने के रूपक से भी समझाया है। मिट्टी के लौंदे को फुलाते समय कुम्हार एक हाथ से घड़े को सँभालता है और दूसरे से थापियाँ मारता है। बाहर लगाई गई थापियाँ घड़े को मजबूत बनाती हैं, जबकि भीतर से सहलाता हुआ हाथ उसे विस्तार देता है। यह प्रक्रिया मिट्टी के एक मामूली से लौंदे को पात्र में बदल देती है। गुरु भी शिष्य को इसी तरह सहलाता और आकार देता है। दृष्टांत अधूरा है। थापकर और सहलाकर गुरु शिष्य को अपने समान ही बना लेता है।


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