किसी ने कहा, स्वधर्म त्याग। यह सुनकर सुनने वाले घबराए। उनकी घबराहट स्वाभाविक थी। आखिर उनमें से हर एक ने अपने जीवन में पल-पल तिनका-तिनका जोड़ा था। छोटी-छोटी चीजों को पाने के लिए न जाने कितने झगड़े-झंझट खड़े किए थे, कितनी पुरजोर मेहनत की थी। उन सबका त्याग!
उनकी इस सकपकाहट को एक फकीर बैठा देख रहा था। वह हँस पड़ा। लोगों ने उसकी हँसी का कारण पूछा। तो उसने कहा, कुछ नहीं, बस यूँ ही बचपन की एक घटना याद आ गई। बचपन में मैं कुछ लोगों के साथ नदी तट पर वनभोज को गया था। नदी तो छोटी थी, पर रेत बहुत थी और रेत में चमकीले रंगों भरे पत्थर बहुत थे। मैंने तो जैसे खजाना पा लिया था। साँझ तक इतने पत्थर बीन लिए कि उन्हें साथ ले जाना असंभव था। चलते क्षण जब उन्हें छोड़ना पड़ा, तो आँखें भीग गईं। साथ के लोगों की उन पत्थरों की ओर विरक्ति देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उस दिन वे मुझे बड़े त्यागी लगे थे, पर आज जब सोचता हूँ, तो समझ आता है कि पत्थरों को पत्थर जान लेने पर त्याग का कोई प्रश्न ही नहीं है। अज्ञान भोग है। ज्ञान त्याग है। त्याग क्रिया नहीं है। वह करना नहीं होता है। वह हो जाता है। वह ज्ञान का सहज परिणाम है। भोग भी याँत्रिक है। वह भी कोई करता नहीं है। वह अज्ञान की सहज परिणति है।
फिर त्याग के कठिन और कठोर होने की बात व्यर्थ है। उसके लिए घबराने-परेशान होने का भी कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि वह कोई क्रिया नहीं है। क्रियाएँ ही कठिन और कठोर मालूम पड़ती हैं। वह तो परिणाम है, फिर उसमें जो छूटता मालूम होता है, वह निर्मूल्य होता है और जो पाया जाता है, वह अमूल्य होता है।
सच तो यह है कि हम केवल बंधनों को छोड़ते हैं और पाते हैं मुक्ति। छोड़ते हैं कौड़ियाँ और पाते हैं हीरे। छोड़ते हैं मृत्यु और पाते हैं अमृत। छोड़ते हैं अँधेरा और पा लेते हैं प्रकाश। छोड़ते हैं अपनी क्षुद्रता और पा लेते हैं शाश्वत और अनंत। छोड़ते हैं दुःखों को, पीड़ाओं को और पा लेते हैं असीम आनंद। इसलिए त्याग कहाँ है? न कुछ को छोड़कर सब कुछ को पा लेना त्याग नहीं है। शाश्वत और सर्वस्व की प्राप्ति है धर्म।