जाग्रत् युवा चेतना ही करेगी समग्र क्राँति

January 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

युवावस्था मानव जीवन का वसंत काल होता है। यह ऐसा समय होता है, जब विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्रधारा बनकर फूट पड़ती हैं। हर मन उमंग एवं उत्साह से परिपूर्ण होता है। कुछ कर दिखाने की चाहत होती है। आज भी राष्ट्र युवा चेतना के उन स्वरों को खोज रहा है, जिनसे समग्र क्राँति एवं नए इतिहास की रचना का गान प्रस्फुटित होगा।

समाज एवं राष्ट्र के नवनिर्माण में सदा से ही युवाओं की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक युवाओं के योगदान से ही न सिर्फ समाज में समय-समय पर सकारात्मक बदलाव आते रहे हैं, अपितु राष्ट्र को भी नई दिशा मिलती रही है। वर्तमान समय में जब परिवार, समाज एवं राष्ट्र की धुरी लड़खड़ा रही है। संपूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक हो गया है। युवाओं का इस ओर से पूर्णतः उदासीन रहना निश्चित रूप से चिंताजनक है।

जिस युवा पीढ़ी के सामने देश का भविष्य सँवारने की महती जिम्मेदारी है। उसकी ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय विध्वंसकारी गतिविधियों में खरच हो रही है। कुछ समय पहले तक देश की युवा पीढ़ी को ऊर्जावान्, विचारशील, कल्पनाशील एवं जुझारू माना जाता था। उसके इन्हीं गुणों के आधार पर उम्मीद की जाती थी कि वह समझदार निर्णय, सक्षम प्रतिस्पर्द्धा में टिकने वाली और सकारात्मक दृष्टिकोण वाली होगी। उम्मीदों के विपरीत आज युवा पीढ़ी निराश, कुँठाग्रस्त एवं आक्रोश की भावना से ग्रस्त अपने भविष्य के प्रति आशंकित एवं अनिश्चित नजर आती है। युवाओं के चेहरे पर ये मनोभाव कहीं भी आसानी से पढ़े जा सकते हैं।

एक समय था जब गाँधी, सुभाष, लेनिन, विवेकानंद एवं दयानंद जैसे उच्च चरित्र से पतरपूर्ण व्यक्तित्व युवाओं के आदर्श हुआ करते थे। समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए हर युवा तत्पर रहता था, परंतु आज समाज को बदलने के बजाय स्वयं बदल जाना उसे ज्यादा रुचिकर लगने लगा है। उच्च आदर्श एवं नैतिकता सिर्फ किताबी बातें बनकर रह गई हैं। भौतिक मूल्यों के सामने जीवन-मूल्यों को पूरी तरह से भुला दिया गया है। हर युवक एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों तक से विमुख होता जा रहा है।

पिछले पचास वर्षों में कुशासन एवं भ्रष्टाचार, व्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों से लोहा लेने वाली युवा शक्ति की हुँकार कहीं खो-सी गई लगती है। आज युवाओं के मन-मस्तिष्क में राष्ट्र की कोई परिकल्पना संभवतः है ही नहीं या है भी तो आधी-अधूरी। ऐसे में उसका एकमात्र स्वप्न होता है उच्च डिग्रियाँ प्राप्त कर विदेशों में जाकर पैसा कमाना। विभिन्न सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार ऐसे युवा ही देशी संस्थाओं एवं देश की सर्वाधिक आलोचना करते हैं, क्योंकि पश्चिम के बिना उन्हें अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता है।

इसके कारण भी स्पष्ट हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी एवं गरीबी में उलझा युवा अंतर्मन इन सबसे ऊब चुका है। इन समस्याओं का सामना करने की अपेक्षा इनसे पलायन उसे ज्यादा सहज लगता है। नई आर्थिक-औद्योगिक नीति एवं उपभोक्तावादी संस्कृति ने भी युवाओं के बीच व्यक्तिवादी चिंतन-पद्धति को प्रभावी रूप से विकसित किया है, युवाओं का एक वर्ग वह भी है, जो आधुनिकता के नाम पर पश्चिम की संस्कृति का शिकार बना है। इस संस्कृति ने भारतीय समाज में पैसे के महत्त्व को बढ़ाकर आदमी का महत्त्व घटा दिया है। यौन उच्छृंखलता, अपराध एवं ग्लैमर की मृग-मरीचिका में डूबा यह युवा वर्ग बुनियादी समस्याओं तक से अनभिज्ञ है। भोग-विलास की इस संस्कृति ने युवाओं को परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति गैर जिम्मेदार बना दिया है।

हाल में कराए गए विभिन्न सर्वेक्षण रिपोर्टों से युवाओं की समस्याओं और उनमें पनप रही आपराधिक और नकारात्मक प्रवृत्तियों का पता चलता है। भारत में 16 से 25 वर्ष के युवाओं की आबादी 21.5 करोड़ है। ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऐडवाँस स्टडीज’ ने इस आयु वर्ग के युवाओं का व्यापक अध्ययन किया। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि देश भर के युवा कुँठा, आक्रोश एवं आपराधिक प्रवृत्तियों में बुरी तरह फँसे हुए हैं। युवाओं में तनाव एवं अवसाद भी पिछले 5 वर्षों में तेजी से बढ़े हैं। मनोचिकित्सकों के पास आने वाले मामलों में 70 प्रतिशत से ज्यादा मामले युवाओं के होते हैं।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट भी युवाओं में बढ़ रही आपराधिक एवं नशे की प्रवृत्ति की पुष्टि करती है। मानसिक अशाँति एवं बेरोजगारी से त्रस्त युवा नशे में डूबकर जीवन के यथार्थ को भूल जाना चाहता है। प्रारंभ में तो नशा राहत प्रदान करता है, परंतु धीरे-धीरे इसका परिणाम गंभीर होता चला जाता है। नशे के साथ ही युवा अन्य दूसरी बुराइयाँ जैसे-चोरी, हिंसा आदि का शिकार हो जाता है और समाज की मुख्य धारा से कटता चला जाता है।

युवाओं के इस पतन के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था बहुत हद तक जिम्मेदार है। धर्म, जाति, भाषा एवं क्षेत्र के नाम पर युवाओं को पथ भ्रमित कर उनका गलत इस्तेमाल करना यहाँ की राजनीति का एक अभिन्न अंग बन चुका है। युवा शक्ति के सहारे सत्ता प्राप्त करने के बाद वे राजनीतिक दल ही बाद में विभिन्न मंचों से युवाओं को राजनीति से दूर रहने की सलाह देते हैं। इस दोहरे मापदंड का शिकार युवा अपने आपको लुटा-पिटा महसूस करता है। ऐसी स्थिति में या तो निराश-हताश होकर वह नशे का मार्ग अपना लेता है या फिर आक्रोश में भरकर विध्वंस के रास्ते चल पड़ता है।

कभी भारतीय शिक्षा से यहाँ के युवाओं का चरित्र निर्माण होता था। अपने-आपको समझने का ज्ञान प्राप्त होता था, परंतु आज शिक्षा का उद्देश्य मात्र येन-केन-प्रकारेण डिग्री हासिल करना ही रह गया है। वर्तमान शिक्षा पद्धति के स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन की बात अवश्य की जाती है, किंतु शिक्षा से संबंधित जो कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं, वे इसी शिक्षा-पद्धति को और ज्यादा मजबूत करते हैं। आजादी से पूर्व अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने शिक्षा को संस्कार का आधार मानकर शिक्षितों में आत्मविश्वास जाग्रत् करने का प्रयास किया था। आज उन प्रयासों को इस हद तक विस्मृत किया जा चुका है कि शिक्षा संस्थाओं में नैतिकता की शिक्षा का पाठ्यक्रम अनिवार्य आवश्यकता बन गई है।

आज युवा वर्ग अपने पाठ्यक्रम में बहुत से नए विषय पढ़ रहे हैं। नए वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। विभिन्न नए साँस्कृतिक एवं सामाजिक तौर-तरीकों का असर भी उन पर तेजी से हो रहा है। जो उनके लिए बेहद आकर्षक भी है। महापुरुषों के प्रेरक प्रसंगों को पाठ्य पुस्तकों से निकालकर कर्त्तव्य, बहादुरी, ईमानदारी एवं त्याग से शून्य पाठ्यक्रम युवा मन को आदर्शों से दूर ही ले जाएँगे। इन परिस्थितियों में युवा वर्ग का भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है।

एक आदर्श की तलाश सबको होती है और यह स्वाभाविक है कि सबसे पहले इसकी खोज अपने घर-परिवार एवं आस-पास के माहौल से शुरू होती है। ऐसे में उनके सामने अभिभावकों एवं परिचितों द्वारा दोहरा मूल्य अपनाया जाना, कथनी एवं करनी में भिन्नता युवा संवेदनशील हृदय को बहुत गहरी चोट दे जाता है। ऐसा नहीं है कि आज का युवा जुझारू नहीं है या वह परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता और हिम्मत नहीं रखता। वस्तुतः वह पहले के युवाओं से अधिक प्रभावशाली ढंग से अपने कार्य को कर सकता है। आवश्यकता बस उसके सामने सच्चे आदर्श प्रस्तुत करने की है।

शासकीय स्तर पर भी इस समय एक ऐसी राष्ट्रीय युवा नीति और उस पर अमल की जरूरत है, जो दिग्भ्रमित हो गई युवा पीढ़ी को फिर से उसके सही लक्ष्य की ओर उन्मुख कर सके। एक ऐसी नीति जो युवाओं की ऊर्जा को नकारात्मक गतिविधियों में बरबाद होने से बचाए। उसे सकारात्मक-रचनात्मक कार्यों में खरच करने को प्रेरित करे। संवेदनाओं से लबालब भरे युवा मन की सिर्फ कमियों पर ध्यान देने की बजाय उसकी समस्याओं पर भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विचार किया जाना चाहिए।

युवावस्था मानव जीवन का वसंत काल होता है। यह ऐसा समय होता है, जब विधाता की दी हुई सारी शक्तियाँ सहस्रधारा बनकर फूट पड़ती हैं। जब हर मन उमंग एवं उत्साह से परिपूर्ण होता है। कुछ कर दिखाने की चाहत होती है। आज भी राष्ट्र युवाचेतना के उन स्वरों को .... रहा है, जिनसे समग्र क्राँति एवं नए इतिहास की रचना का गान प्रस्फुटित होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118