देवसंस्कृति की विरासत हैं, ऐसे अध्यात्मवेत्ता

January 2001

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साधारण वेश में वह असाधारण थे। यह असाधारणता उनकी कठोर तप-साधना से उपजी, पनपी एवं निखरी थी। महावीर हनुमान् उनके आदर्श एवं आराध्य थे। राम नाम उनका सर्वस्व था। वह कहीं भी, किसी भी स्थिति में हों, प्रत्येक श्वास के साथ उनका नाम-जप चलता रहता। वह कहा करते थे कि उपासना हो तो महावीर हनुमान् जैसी। साधना ऐसी हो, जैसी हनुमान् ने की। आराधना के मूर्तिमान् स्वरूप भला मेरे आराध्य हनुमान् के सिवा और कौन होगा। महावीर हनुमान् की यह उक्ति “राम काजु कीन्हें बिनु मोहिं कहाँ विश्राम” ही उनका आदर्श वाक्य था। सचमुच ही वह कभी विश्राम नहीं करते थे। सदा-सर्वदा अनथक भाव से आत्मकल्याण एवं लोककल्याण में रित रहते।

प्रातः दो-ढाई बजे जगकर स्नान आदि के उपराँत वह राम नाम के जप में तल्लीन हो जाते। उनकी यह ध्यान निमग्नता दोपहर बारह बजे तक अविराम चलती रहती। बारह बजे से तीन बजे तक सामान्य काम-काज निबटाते। कभी किसी दुःखी-पीड़ित प्राणी की सेवा-सहायता करते। उनकी इस सेवा-सहायता क्रम में जाति-पाँति, नर-नारी अथवा ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं था। ‘सिय राम मय सब जग जानी’ इस भाव में विभोर होकर उन्होंने जनसेवा को प्रभु सेवा मान लिया था। सेवा का अल्प समय भी उनके महत् भाव से जुड़कर महत् ही बन जाता।

तीन बजे अपराह्न फिर से राम नाम जप एवं ध्यान की निमग्नता प्रारंभ हो जाती, जो रात्रि बारह बजे तक अबाधित चलती रहती। रात्रि में थोड़ी देर की योग निद्रा में ही वे पर्याप्त विश्राँति पा लेते। सोलह वर्ष की किशोरवय से चालीस वर्ष की प्रौढ़ आयु तक यह क्रम चलता रहा। सप्ताह में केवल मंगलवार के दिन एक समय फलाहार ही उनके शरीर धारण का आधार था। तप के कठोर अनुबंधों से देह-मन-प्राणों को कसना-तपाना देखकर सामान्य जन चकित रह जाते। सभी की श्रद्धा स्वभावतः उनकी ओर उमड़ पड़ती। पर वह इस सब से बेखबर थे। उन्हें खबर थी तो बस अपने आराध्य की। पवन पुत्र हनुमान् को समर्पित हो रहा था उनके अस्तित्व का कण-प्रतिकण।

बजरंग बली भी अपने इस अनन्य भक्त की निष्ठा पर कृपालु हुए बिना न रह सके। वह भक्त के सम्मुख प्रत्यक्ष आ पधारे और उनसे वर माँगने को कहा। अपने आराध्य के इस कथन पर उन्होंने इतना ही माँगा, हे महावीर मारुति! आप तो साधु-संतों के रखवाले हो ही, मुझ पर भी जब कष्ट पड़े, तो बचा लेना। प्रभु! मैं भी आपके आदर्शों पर चल सकूँ, आत्मकल्याण एवं लोककल्याण में निरत रहूँ, इतनी सामर्थ्य देना। सिर पर हाथ रखकर पवन पुत्र हनुमान् ने इन्हें अपना अमोघ आशीष दिया, साथ ही अष्ट सिद्धि का वरदान भी दे डाला।

इस महासाधक ने जब अपने गुरुदेव अद्वैत भारती से इस पर चर्चा की तो समर्थ गुरुदेव ने इतना ही कहा, पुत्र! लोकेषणा एवं वित्तेषणा के लिए कभी भी इसका उपयोग न करना। उन्होंने उन्हें समझाते हुए कहा, बेटा आनंद भारती! जीवन की हर सामर्थ्य का सदुपयोग लोकसेवा में है। लोकसेवा ही प्रभु सेवा है। इस सत्य को प्रत्येक क्षण स्मरण रखना। आनंद भारती अपने गुरुदेव अद्वैत भारती के निष्ठावान् शिष्य थे। उन्होंने गुरुदेव को सिद्धि के सदुपयोग का वचन दिया और संतों की एक मंडली को साथ लेकर पदयात्रा द्वारा तीर्थभ्रमण करने हेतु निकल पड़े। उनकी मंडली काशी की यात्रा संपन्न करके पुनः वापस कलकत्ता आ गई।

उन्हीं दिनों 1857 ई. की क्राँति विफल हुई थी। हालाँकि इतना अंतर जरूर आया था कि अब सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में न होकर सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन थी। 1857 ई. के इसी वर्ष में लार्ड वारेन हेस्ंिटग्स को ब्रिटिश भारत का सर्वप्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया था। अँग्रेजों के लिए भारतवासी सदा से उपेक्षा एवं अवमानना के पात्र थे। इन दिनों यह उपेक्षा कुछ ज्यादा ही बढ़ी-चढ़ी थी। विदेशी अँग्रेज सामान्य नागरिकों के साथ साधु-संतों का भी अपमान करने से नहीं चूकते थे।

कलकत्ता वापस आकर रुकी साधु मंडली ने अपनी संध्या आरती शुरू की। शंख, नगाड़े, तुरही, नागफणी, झाँझ, ढोल आदि के नाद से समूचा वातावरण गूँज उठा। लगभग डेढ़ सौ संतों के अलख निरंजन की गूँज से अँग्रेजों की छावनी भी गूँज उठी। सच कहा जाए, तो गूँज ही नहीं काँप उठी। छावनी का अँग्रेज अफसर सिपाहियों की एक टुकड़ी साथ लेकर वहाँ पहुँचा और क्रोध से चिल्लाया, बंद करो यह शोरगुल और अपना डेरा-तंबू उठाकर चलते यहाँ ला रहे थे, कितने मन लकड़ियाँ हमारे लिए तुमने जलाईं? सबने कहा, बाबा कुल लकड़ियाँ नब्बे मन थीं।

संत ने कहा, तो जाओ तुम्हारी सल्तनत भी इन नब्बे मन लकड़ियों की तरह नब्बे साल में समाप्त हो जाएगी। तुम्हारे भाँति-भाँति के अन्यायों एवं अत्याचारों की ज्वालाओं के बीच भी भारत का कुछ नहीं बिगड़ेगा। वह प्रभु की कृपा से उसी तरह से सुरक्षित निकल आएगा, जैसे मैं निकल आया।

सावधानी से संत की भविष्यवाणी को लार्ड वारे हेस्ंिटग्स ने नोट किया। लंदन टाइम्स की लीथो कॉपी में यह हकीकत छपाई गई। लंदन टाइम्स ने लिखा, भारतीय संतों की सिद्धियों की अनेक बातें अब तक सुन रखी थीं, परंतु यह अद्भुत चमत्कार तो हजारों लोगों की आँखों के सामने हुआ कि नब्बे मन लकड़ियाँ जल गईं, पर पता नहीं चला कि उसमें वह साधु कैसे जीवित बच गया और उसने यह भी कह दिया कि नब्बे वर्षों बाद तुम्हें विदा होना पड़ेगा।

संतों की भविष्यवाणी की क्षमता तो भारतीय अध्यात्म शास्त्र में हर कहीं वर्णित है, पर विश्व इतिहास ने भी इस कालजयी सामर्थ्य को जान लिया। सचमुच ही 1857 से 1947 तक यानि नब्बे वर्षों तक ही अँग्रेजों का राज्य रहा। संत आनंद भारती भी इस घटना के बाद बाबा लक्कड़ भारती के रूप में प्रसिद्ध हो गए। लोग उन्हें इसी नाम से जानने व पुकारने लगे।

हजारों लोग इस घटना के बाद उनके दर्शनों के लिए आने लगे, तो संत रातों-रात अपनी साधुओं की मंडली के साथ गुजरात की तरफ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। जब वह तलेटी पर पहुँचे तो संतों ने गिरनार पर्वत की परिक्रमा सभक्ति पूरी की। यहाँ के सिद्ध क्षेत्र में उनकी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ और भी प्रखर हो गईं। बाबा लक्कड़ भारती ने सबसे कह दिया, अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा और यहीं पर निवास करूंगा।

गिरनार की तलहटी में ही उन्होंने भवनाथ के समीप ही अपनी तपसाधना एवं लोकसेवा का उपक्रम प्रारंभ किया। यह क्रम काफी समय तक लगातार चलता रहा। एक दिन बाबा लक्कड़ भारती ने कहा, मैं कल सबेरे जीवित समाधि लूँगा और दूसरे दिन असंख्य जनों के बीच वह पद्मासन लगाकर बैठ गए। अपनी महासमाधि के कुछ पलों पूर्व वह सबको संबोधित कर कहने लगे, अपने देश से ये अँग्रेज तो जाएँगे ही। इन अंग्रेजों के जाने के बाद भी देश में भारी उथल-पुथल रहेगी, पर सारी उथल-पुथल और संकटों की आग में तपकर देश का उज्ज्वल भविष्य उभरेगा। भारतवर्ष विश्व का सिरमौर बनेगा। इसी के साथ उन्होंने प्राणों को ब्रह्मरंध्रों में चढ़ाकर समाधि ले ली। आज भी सच्चे अध्यात्मवेत्ता बाबा लक्कड़ भारती का समाधि स्थल अनेकों जिज्ञासु भक्तों को कृतार्थ है।


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