दान का मर्म

January 2001

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महाराज धर्मध्वज जितने शूरवीर व नीतिकुशल थे, उतने ही धर्मपरायण एवं ईश्वरभक्त भी थे। वह नित्यप्रति नियम से देवमंदिर में भगवान् का पूजन-अर्चन किया करते थे। अपनी भगवत्पूजा के बाद ऋषि-मुनियों व ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों को दान देना भी उनकी नियम-निष्ठा में शामिल था। उनकी सात्विक भावनाएँ, सुपात्रों एवं सत्पात्रों की सहायता करने की चाह ही इस नित्यप्रति दान का कारण थी। किसी भी फलाकाँक्षा का दोष उनके इस श्रेष्ठ कर्म में नहीं था। एक दिन हठात् उन्हें कोई आवश्यक कार्य आ गया। राजधानी से बाहर जाने की अनिवार्यता को समझकर उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र आर्यध्वज को बुलाकर कहा कि पुत्र! मैं आवश्यक कार्य से एक दिन के लिए बाहर जा रहा हूँ। कल का समूचा काम तुम्हें करना है। आर्यध्वज ने इसे सहर्ष स्वीकार कर अपने पिताश्री को निश्चिंत कर दिया।

अगले दिन भोर होते ही राजकर्मचारियों ने आकर कहा कि युवराज दान देने का समय हो गया है। ऋषि-मुनि तथा ब्राह्मण लोग दरवाजे पर दान लेने के लिए खड़े हैं। युवराज ने बाहर आकर सभी का अभिवादन किया तथा कहा कि आप लोग मेरे पिताश्री से सदैव दान लेते आ रहे हैं। आज पिताश्री आवश्यक कार्यवश बाहर गए हैं। अतः यह काम मुझे करना है। मगर मेरे मन में एक जिज्ञासा है, कृपा करके उसका समाधान कर दें, तो मुझे दान देने में सुगमता रहेगी।

दान लेने आए सभी जनों ने युवराज से अपना प्रश्न प्रस्तुत करने के लिए कहा। इस पर आर्यध्वज बोला, आप सब मुझे यह बताएँ कि दान देने व नहीं देने का क्या फल होता है? युवराज का यह सवाल सुनकर सभी चुप साध गए। किसी के पास कोई सटीक उत्तर नहीं था। इस पर युवराज आर्यध्वज ने कहा कि बिना अपने प्रश्न का उत्तर पाए मैं किसी को कोई दान नहीं दूँगा। सभी याचक लोग निराश लौट गए।

दूसरे दिन जब महाराज धर्मध्वज लौटकर आए। तब यह सुनकर कि बेटे ने ब्राह्मणों को दान नहीं दिया, उनका मन क्षुब्ध हो गया। युवराज ने देखा कि पिताश्री को मेरे इस कार्य से दुःख हुआ है। तब उसने महाराज से बड़ी ही शालीनता से कहा, पिताजी! कोई भी काम का परिणाम जाने बिना उसे करना मैंने उचित नहीं समझा। मेरे इस विचार में यदि कोई खोट हो तो मुझे दंड दें।

धर्मध्वज ने कहा, बेटा! छान देने व नहीं देने से क्या फल होता है, यह तो मुझे भी मालूम नहीं है। मैं तो परंपरा से चली आ रही रीति का पालन करता आ रहा हूँ। युवराज ने कहा, तब तो यही अच्छा रहेगा कि मैं पीढ़ियों और परंपरा से निभाए जा रहे इस दान कर्म की सचाई का पता लगाऊँ। और जैसे-तैसे महाराज को राजी कर, उनका आशीष ले वह समाधान की खोज में चल पड़ा।

सबसे पहले वह पड़ोसी राजा के राज्य में गया। वे उसे कोई समाधान नहीं दे सके। उलटे उससे समाधान पाने हेतु अपना एक प्रश्न उसे और बता दिया। उन्होंने कहा, युवराज! तुम जिस तरह समाधान पाने के लिए व्यथित हो रहे हो, उसी तरह मेरे यहाँ भी संतान होते ही मर जाती है, इस कारण मैं भी बहुत दुःखी रहता हूँ। मेरी संतान कैसे जीवित रह सकती है? यदि इस प्रश्न का तुम समाधान बता सको, तो मैं तुम्हारा उम्रभर ऋणी रहूँगा।

युवराज आर्यध्वज उनको सहायता का वचन देकर आगे बढ़ चला। चलते-चलते शाम को वह एक खेत के पास पहुँचा। वहाँ एक बूढ़ा आदमी बैठा खेत की रखवाली कर रहा था। युवराज ने सोचा, आज रात यहीं विश्राम कर लिया जाए। यह सोचकर वह बूढ़े के पास आया और रात्रि विश्राम की याचना की।

बूढ़े ने देखा कि वेश-भूषा एवं बोल-चाल से यह लड़का कोई उच्च कुल का सा मालूम पड़ता है। उसने पूछा, बेटा तुम कौन हो, किस कारण अकेले घूम रहे हो? आर्यध्वज ने उसे समूची बात बता दी तथा उस बूढ़े से कहा, क्या आप हमारे इस कार्य में कुछ मदद कर सकते हैं? बूढ़े व्यक्ति ने कहा, बेटा! तुम उज्जैन चले जाओ। उज्जैन के राजा वीर विक्रमादित्य बहुत बुद्धिमान् तथा शिवभक्त हैं। उनपर भगवान् महाकालेश्वर की अपार कृपा है। वही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो तुम्हारी समस्या का समाधान कर सकते हैं।

इतने में उस बूढ़े की स्त्री घर से भोजन लेकर आ गई। बूढ़े व्यक्ति ने युवराज से उसका परिचय कराया। बुढ़िया घर से चार रोटी बनाकर लाई थी। बूढ़े ने कहा, दो रोटी इस लड़के को दे दो, एक-एक रोटी हम दोनों खा लेंगे। बुढ़िया बहुत कलहकारिणी थी। वह सुनते ही उबल पड़ी, कहने लगी, तुम्हारा तो यह रोज का धंधा है। कोई-न-कोई रोज आता ही रहता है। कभी भी सुख की रोटी न तुम खाते हो और न मुझे खाने देते हो। इस पर चुपचाप बूढ़े ने अपने हिस्से की दो रोटियाँ आर्यध्वज को दे दीं। आर्यध्वज ने कहा, बाबा! यह कैसे हो सकता है। आप भूखे रहें और मैं भोजन करूं। बूढ़े ने कहा, बेटा! अतिथि भगवान् का रूप होता है। तुम निस्संकोच भोजन कर लो। मगर आर्यध्वज किसी भी हालत में राजी न हुआ। आखिरकार दोनों ने एक-एक रोटी खाई और तीनों आराम से सो गए।

आधी रात को बिल में से एक साँप ने निकलकर उस बूढ़े को डंस लिया तथा बूढ़े की मृत्यु हो गई। सुबह हुआ तो लड़के ने उठकर देखा कि बूढ़े के बगल में एक विषधर सर्प बैठा है और बूढ़े के मुँह से झाग निकल रहे हैं। लड़के को उठा देखकर सर्प भागा। लड़का भी साँप के पीछे-पीछे भागा। इतने में बुढ़िया भी जाग गई। बुढ़िया ने देखा कि बूढ़ा मरा पड़ा है तथा लड़का भाग रहा है। उसने सर्प को तो देखा नहीं था, उसने यही समझा कि मेरे पति को मारकर लड़का भाग रहा है। बुढ़िया भी उस लड़के के पीछे भागने लगी। रास्ते में एक पत्थर पड़ा था। उससे ठोकर लगी और बुढ़िया गिरी, तो उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

उस बूढ़े के द्वारा पहले बताए अनुसार आर्यध्वज उज्जैन नगरी में पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने वीर विक्रमादित्य को अपना परिचय दिया और समस्याएँ बताईं। साथ ही यह भी कहा, महाराज! मैंने यह भी सुना है कि आप बहुत बुद्धिमान् हैं तथा महाकाल भगवान् शिव के अनन्य भक्त हैं। आप ही हमारी इन समस्याओं का समाधान बता सकते हैं। विक्रमादित्य ने उसे उपयुक्त आश्वासन देकर अतिथिगृह में ठहरा दिया।

अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में महाराज विक्रमादित्य ने जब भगवान् महाकाल का पूजन करके ध्यान किया, तो उन्हें प्रेरणा मिली। उन्होंने युवराज को बुलाकर कहा, घर से निकलकर तुम जिस पड़ोसी राजा के पास गए थे। उन्हीं के पास वापस जाइए। पिछले जन्म में उनसे कुछ दुष्कर्म हुए हैं, उसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने दान आदि ठीक ढंग से नहीं किए हैं। पर महाराज .... ! युवराज आर्यध्वज अभी कुछ कह पाते, इसके पहले उन्हें टोकते हुए विक्रमादित्य बोले, “द्रव्यदान ही सब कुछ नहीं है। उन्हें किसी पुण्य प्रयोजन के लिए श्रमदान करना पड़ेगा। शरीर से किए गए बुरे कामों का प्रायश्चित शरीर से अच्छे कर्म करने पर ही होता है। अपने पूर्वकृत पापों से मुक्त होने पर ही उन्हें पुत्र होगा। तुम्हारी समस्या का समाधान वह पुत्र ही करेगा।”

आर्यध्वज लौटकर उस राजा के पास आया। आकर उसने राजा को सारी बातें बताईं। राजा ने अपने राज्य के मनीषियों को बुलाकर सलाह की कि कौन-सा पुण्य कर्म श्रेष्ठ होगा। सभी ने विचारमंथन के पश्चात् कहा, “शिक्षा एवं चिकित्सा ही श्रेष्ठ कार्य हैं।” राजा ने उनकी बात मानकर चिकित्सालय एवं विद्यालय की उपयुक्त व्यवस्था की। इनके निर्माणकार्य में अपना भी पसीना बहाया। इन कार्यों के साथ ही राजा की भगवद् आराधना भी चलती रही।

और सचमुच इस अचूक दान के प्रभाव से अबकी बार रानी को जो शिशु हुआ, वह जीवित रहा, जबकि इसके पहले बच्चा पैदा होते ही मर जाता था, लेकिन यह बालक तो बीतते दिनों के साथ और भी स्वस्थ-सतेज होता गया। अब तो नगर निवासियों के साथ स्वयं राजा को भी यह विश्वास हो गया कि प्रभुकृपा से यह लड़का बच जाएगा। दिन बीते, मास बीते और इसी तरह दो वर्ष भी बीत गए। अब तो लड़का बोलने भी लगा। उसकी कुशाग्र प्रतिभा असाधारण थी, पर अभी भी सबको संदेह बना हुआ था कि भला यह नन्हा-सा बालक युवराज की समस्या का क्या समाधान करेगा।

लेकिन वीर विक्रमादित्य के कहे अनुसार युवराज को बुलाया गया। युवराज के सम्मुख आने पर उस नन्हें राजपुत्र ने परिचितों का सा व्यवहार किया। आप सब लोग स्नान करके आएँ, साथ ही दो मंचों की व्यवस्था की जाए। वहीं बैठकर ही मैं युवराज के प्रश्नों का समाधान करूंगा। उस छोटे-से दो वर्षीय शिशु के कहे अनुसार सारी व्यवस्था जुटाई गई। नगर निवासी भी अपनी आकुलता न रोक सके। मंचों के आस-पास भारी भीड़ जमा हो गई। सभी लोग उपयुक्त स्थान पर आसीन हुए। विशेष तौर पर बनाए गए दो मंच अभी भी खाली थे।

सबकी आकुलता समाप्त करते हुए एक मंच पर वह नन्हा राजपुत्र आसीन हुआ। दूसरे मंच पर बिठाने के लिए उसने जो कुछ भी कहा, वह तो और भी चकित करने वाला था। उसने कहा कि इसी नगर में चर्मकार चन्ना के घर में एक सुअरी के अभी-अभी एक संतान हुई है। उस नवजात शूकरी को आप लोग ले आएँ और उसे इस खाली मंच पर बिठाएँ। तभी प्रश्न का समाधान हो सकेगा।

राजा के कर्मचारी उस नवजात शूकरी को ले आए और उसे एक मंच पर बिठा दिया गया। राजपुत्र ने युवराज से कहा, अब आप अपनी समस्या कहें। इस पर युवराज आर्यध्वज ने अपना प्रश्न फिर से दुहरा दिया कि दान देने व ने देने से क्या होता है?

इस पर शिशु राजपुत्र ने कहना शुरू किया, युवराज! दान तीन तरह के होते हैं, अंशदान, समयदान व श्रमदान। अपनी धन-संपत्ति का एक अंश देना, उसे पुण्य-प्रयोजन में लगाना अंशदान है। अपनी प्रतिभा एवं समय का पुण्य कार्य में नियोजन समयदान कहा जाता है और अपनी सामर्थ्य एवं प्रतिभा के साथ दैहिक श्रम का नियोजन ही श्रमदान माना जाता है। इसमें श्रमदान का पुण्य तो आपने परख लिया। इसी के बल पर मेरे पिता महाराज को संतान की प्राप्ति हुई।

इसी के साथ अपना एक रहस्य मैं स्वयं ही आपको बताता हूँ। आप अपने प्रश्न के समाधान की तलाश करते हुए जिस बूढ़े एवं बुढ़िया से मिले थे। हम दोनों वही हैं। मैं पिछले जीवन में रोज ही कुछ-न-कुछ दान करता रहता था। श्रम, समय एवं सामर्थ्य के किसी-न-किसी हिस्से को पुण्य प्रयोजन में लगाना ही मेरा व्रत था, पर मेरी पत्नी मेरे इस कार्य की सख्त विरोधी थी। मेरे दान में हर समय बाधा उत्पन्न करती, कलह करने लगती। अपने इसी कार्य एवं प्रवृत्ति के कारण उसे शूकरी का जन्म लेना पड़ा है। मैं अपने दान के प्रभाव से ही इस राजकुल में उत्पन्न हुआ हूँ और अपनी मानसिक निर्मलता के कारण ही मुझे पूर्व जन्म का स्मरण भी है। सभी ने देखा उस नवजात शूकरी की आँखों से आँसू झर रहे थे, जबकि नन्हें राजपुत्र के मुख पर सत्य का तेज था। यह प्रकट प्रमाण देखकर सभी के साथ युवराज आर्यध्वज को दान का मर्म ज्ञात हो गया।


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