(गीता के चतुर्थ अध्याय-ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की युगानुकूल व्याख्या)
इस अंक से हम चौथा अध्याय आरंभ कर रहे हैं। इसके पूर्व के तीन अध्यायों में 18 लेखों द्वारा योगेश्वर श्रीकृष्ण एवं युगद्रष्टा परमपूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण जन-जन के लिए उपयोगी चिंतन प्रस्तुत किया जा चुका है। इन सभी लेखों का एक संकलित रूप ‘युगगीता’ ग्रंथ के प्रथम भाग के रूप में पाठकगणों के समक्ष शीघ्र ही आ रहा है। चौथे अध्याय का शीर्षक है- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग नामक इस चतुर्थ अध्याय में न केवल ज्ञान, कर्म, संन्यास के समुच्चय रूपी योग की व्याख्या है, इसमें मूल रूप से चार प्रकरणों की विशद विवेचना भी है। पहला प्रकरण है अवतार चेतना के प्रकटीकरण का, उसके हेतु का। दूसरा प्रकरण है कर्म, अकर्म और विकर्म की व्याख्या का। तीसरा प्रकरण है यज्ञ का, यज्ञ क्या है, कितने प्रकार का है, उसे हम दर्शन की दृष्टि से कैसे समझें? चौथा प्रकरण है ज्ञान का, ज्ञान के महत्त्व का एवं संशयों से मुक्त हो ज्ञान की प्राप्ति द्वारा कर्म में तत्पर होने का। चारों ही एक-दूसरे से जुड़े हैं। व्याख्या के माध्यम से इनकी परस्पर संगति क्रमशः समझ में आती जाएगी। यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रथम छह अध्यायों में मूलतः कर्मयोग की चर्चा कर रहे हैं। कर्मयोग के साथ-ही-साथ वे ज्ञानयोग व भक्तियोग के मर्मस्पर्शी बिंदु भी साथ ले आते हैं। फिर इस अध्याय का नाम भी है, ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग। कई लोग यह समझते हैं कि गीता मात्र संन्यासियों के लिए है अथवा इसे पढ़ने से अच्छा-खास गृहस्थ संन्यासी बन जाता है। ऐसी बात नहीं है। यह गीता एक गृहस्थ श्रीकृष्ण द्वारा दूसरे गृहस्थ अर्जुन के माध्यम से हम सभी गृहस्थ धर्म या अन्य धर्म का पालन करने वालों के लिए कही गई है। जहाँ तक संन्यास से मतलब है, वह है कर्मणा न्यासः इति कर्म संन्यासः अर्थात् कर्म का न्यास कर दो, ट्रस्ट बना दो। कर्म का फल ईश्वर को समर्पित कर दो। यह विस्तृत थ्योरी इस चौथे अध्याय में आई है एवं इसी की ओर विशद व्याख्या पाँचवे-छठे अध्याय में हुई है।
इस अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की शुरुआत श्री भगवान् की स्वीकारोक्ति से होती है कि यह गीता रूपी योग का गुह्य ज्ञान उन्हीं के माध्यम से-ईश्वरीय सत्ता के माध्यम से धरती पर आया है। तमाम कर्मों के एकमात्र कारण, उनके एकमात्र सृजनकर्त्ता और परम नियंता कौन हैं, यही स्पष्ट किया गया है। वही समग्र समष्टि में क्रीड़ा कर रहा है। उसी की कार्यप्रणाली समझ लेने के बाद मानव में दिव्यता का समावेश हो जाता है। समष्टि के साथ व्यष्टि के तादात्म्य का अर्थ है इस भूमंडल पर ईश्वर जैसी पूर्णता, ऐश्वर्य से जुड़ी सामर्थ्य, सौंदर्य एवं परमशक्ति से युक्त होकर कर्म करना। बड़ी ही सुँदर काव्य की अभिव्यक्ति के साथ निरंतर ज्ञान एवं कर्मयोग का ज्ञान, कर्त्ताभाव के त्याग का वर्णन निस्स्वार्थ भाव से प्रवाहित हुआ है। यही इस अध्याय की विशेषता है।
भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग जिसकी उन्होंने पिछले अध्यायों में व्याख्या की है, उनका कोई निजी सिद्धाँत नहीं है। यह श्रद्धाभाव से शताब्दियों से परंपरा रूप में चलता आया है तथा यही भारतीय संस्कृति का सनातन-अविनाशी आधार है। यद्यपि यह योग रहस्यमय है, गहन भाव से युक्त ( रहस्यं ह्येतदुत्तमम् )। प्रारंभ में किसी को जमे, न जमे, लेकिन पात्रता और ईश्वरीय अनुकंपा से जो भी इसे समझ लेता है, वह संसार रूपी महासागर की इस हिचकोलों से भरी यात्रा को पार कर जाता है। यही प्रारंभिक तीन श्लोकों की भूमिका है व यह वे अर्जुन को क्यों कह रहे हैं, यह भी इसमें समझा रहे हैं।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ 4/1
“मैंने इस अविनाशी योग को सर्वप्रथम भगवान् सूर्य को सुनाया। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मुनि को दिया और मनु ने अपने पुत्र (सूर्यवंशी राजाओं के प्रसिद्ध पूर्वज) इक्ष्वाकु के प्रति कहा।”
“हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना। तथापि अनंत शताब्दियाँ बीत जाने पर यह महान् ज्ञान संसार से लुप्तप्राय हो गया।”
से एवायं मय तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥ 4/3
“मैं उसी पुरातन योग का उपदेश तुझे दे रहा हूँ, क्योंकि तू मेरा भक्त व मित्र है। चूँकि यह बड़ा ही गुह्य रहस्य से भरा ज्ञान है, तू इसे जानने का उचित पात्र भी है।”
इन तीन श्लोकों से इस अति महत्त्वपूर्ण चौथे अध्याय की भूमिका बनती है। अर्जुन स्वभाव से तुरंत जिज्ञासु हो उठता है, भ्रमित भी हो जाता है, यह सुनकर “इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्”-मैंने यह अविनाशी योग सूर्य भगवान् को दिया। वह सोचता है कि या तो यह कथन मिथ्या है या फिर भगवान् के इन शब्दों में कोई गुह्य रहस्य छिपा हुआ है। वह सीधा प्रश्न करता है-
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयाँ त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ 4/4
“आपका जन्म तो बाद का है और भगवान् सूर्य का पहले का, अर्थात् कल्प के आदि का। तब मैं इस बात को कैसे मानूँ, समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में इस ज्ञान को सूर्य को दिया था।”
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के समक्ष लौकिक दृष्टि से एक जिज्ञासा आई है, जो उन्हीं के कथन के प्रत्युत्तर में जन्मी है।
सूर्य का जन्म अर्जुन भी आदिकाल से हुआ मान रहा है एवं अवतारवाद को न समझ पाने के कारण वह यह समझ पाने में असमर्थ है कि श्रीकृष्ण ने कब इसे सूर्य को कहा व कब कालक्रम में वह अब उस स्थान पर एक श्रोता बनकर आ खड़ा हुआ है। सूर्य वस्तुतः आदर्श के रूप में इस अविनाशी योग के प्रथम श्रोता के रूप में भगवान् द्वारा यहाँ उद्धृत हैं। सुवति प्रेरयति लोकः इति सूर्यः जो अपने कर्म से सारे जग को कर्मरत रहने की प्रेरणा दे, वह सूर्य। कर्म में कोई शिथिलता नहीं, निरंतर कर्त्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ाए वह सूर्य। सूर्य-मनु-राजर्षिगण एवं फिर लुप्त हो जाने के कारण अब अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान् इस विराट् ज्ञान को जन-जन के सम्मुख रख रहे हैं। गायत्री का देवता सविता देवता-सूर्य से आरंभ हुआ यह गीता का ज्ञान गुरु के माध्यम से जन-जन तक आ रहा है। गीता, गायत्री व गुरु तीनों का परस्पर समन्वय है यह विलक्षण ज्ञान। इसीलिए गीता हम सबके लिए एक अनिवार्य पाठ्यपुस्तक बन जाती है।
भगवान् जब कहते हैं कि “सबसे पहले मैंने इसे सूर्य को कहा”-तो उनके इस ‘मैं’ को, उसके मर्म को जानना चाहिए। यह भगवान् का मैं अहंजनित नहीं है। यह ‘मैं’ समष्टिगत है। उनके इस मैं में परब्रह्म की व्याख्या हो रही है। परमात्मा का ‘मैं’ अर्थात् समष्टिगत मैं। सारे ईकोसिस्टम का प्रतीक है यह विराट् इगो, मैं। भगवान् ऐश्वर्य से भरी सत्ता का नाम है, इसीलिए ईश्वर है। वही ईश्वर कह रहा है, देवकीनंदन बाल-ग्वालों, गोपियों के साथ खेलने वाले, दुर्योधन के शब्दों में ग्वाले कृष्ण नहीं। यह समझना बड़ा जरूरी है। क्या कहते हैं भगवान्!
बहून में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥ 4/5
“हे परंतप! तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सब को तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ।”
भगवान् एक आश्चर्यजनक रहस्योद्घाटन कर रहे हैं। हम सभी अनेक जन्म धारण कर चुके हैं, हमने इस तरह असंख्यों अनुभव एकत्र किए हैं और आज हम जो कुछ भी हैं, वह भी हमारे अब तक के अनुभवों और प्रतिक्रियाओं के परिणाम ही हैं। पूर्व जन्मों में संचित ज्ञान-संपदा का परिपाक ही है, जो हम इस जन्म में कुछ संस्कारों के ज्ञान से मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जीने हेतु कर्मरत हैं, किंतु वर्तमान शारीरिक उपाधियों में हम इतना घुल-मिल गए हैं, अपने तात्कालिक सुख-दुःख, कामोद्वेग, पीड़ा, राग-द्वेषादि में इतने तल्लीन रहते हैं कि हम जीवन की घटनाओं से अलग खड़े होकर उनके द्रष्टा नहीं बन पाते। इसी कारण हम वास्तव में कौन हैं, यह अनुभूति नहीं कर पाते। भगवान् कह रहे हैं, यही बात कि तुम तो नहीं जानते, किंतु मैं सब जानता हूँ कि मैं कौन था व कौन हूँ? बात बड़ी गुह्य है।
अवतार-लीला वस्तुतः अति गहन विषय है। भगवान् सशरीर आते हैं, लीला करते हैं, यह ज्ञान प्रभु की कृपा के बिना संभव भी नहीं है। बड़ा आसान है यह कहना, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ही सच्चिदानंद परब्रह्म हूँ। किंतु छह प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त भगवान् स्वयं रक्त-माँस का शरीर धारण कर मनुष्य बन संसार में आते हैं, प्राणियों का उद्धार करते हैं, ऐसा ज्ञान पाने के लिए प्रभु कृपा-गुरु का दिव्य अनुदान जरूरी है। ऋषि-मुनि उग्र तपस्या करके भी ‘अवतार तत्त्व’ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके। पुराणों में उल्लेख आता है कि नैमिषारण्य में सहस्रोंसहस्र ऋषि-मुनि थे। उन सभी ने भगवान् श्रीराम को देखा था, किंतु उन्हें अवतार रूप से ग्रहण किया था केवल भारद्वाज आदि कुछ गिने-चुने ऋषियों ने। अन्य सभी कहते थे, “हम जानते हैं कि तुम दशरथ पुत्र हो।” बस इतना ही। मात्र भारद्वाज ने ही उनकी अवतार रूप में पूजा की थी। श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी अर्जुन उन्हें भगवान् के रूप में नहीं जान सके, जब उनकी कृपा हुई, दिव्य चक्षु मिले तभी पता चला कि श्रीकृष्ण का असली स्वरूप क्या है।
हममें से कितने लोग जान पाए, यह तत्त्व आत्मसात कर पाए कि हमारे गुरु स्वयं ईश्वर रूप हैं। कहते तो हम रहे, गीत भी हम लिखते एवं गाते रहे, फिर हमारे अंदर अवतारी सत्ता के सहचर होने के गुण क्यों नहीं आ सके, संभवतः इसलिए कि हम ही संशय से भरे थे। न अपने को जान पाए न अपने गुरु को। जो जान पाए, वे तर गए, तर रहे हैं व तर जाएँगे। हमारा स्वयं का अहं बार-बार बाधक बन जाता है एवं कर्तृत्व का श्रेय लेने हेतु आतुर हो जाता है। सम्मान थोड़ा-सा भी हमें नहीं पच पाता एवं वह अजीर्ण हमारे व्यवहार-वाणी में निकलता रहता है। अवतारवाद के मर्म को समझकर हम अपनी गुरुनिष्ठा को ही नहीं मजबूत करते, वस्तुतः अपनी मुक्ति का, लोभ-मोह-अहं के बंधनों से मुक्ति पाने का, त्याग में प्रतिष्ठित हो इसी जीवन में जीवन्मुक्त बनने का पथ ही तो प्रशस्त करते हैं। इसीलिए बड़ा जरूरी है चौथे अध्याय का अवतारवाद का यह ककहरा।
श्रीरामकृष्ण देव ने कहा है, “जब अवतार आते हैं, तो सैकड़ों व्यक्तियों को अपने आश्रय से तारने के लिए आते हैं। रेल का इंजन खुद चलता है और भारी-भारी माल से लदी गाड़ियों को भी खींच लेता है। अवतार भी इसी प्रकार हजारों मनुष्यों को ईश्वर के पास ले जाते हैं। अवतार को सब लोग नहीं पहचान पाते। देह धारण करने से रोग, क्लेश, क्षुधा और तृष्णा लगी रहती है। लगता है, वे भी हमारे ही समान हैं। राम सीता के शोक में रोए थे। वे तो नर-लीला करते हैं। मनुष्य रूप में स्वयं अवतीर्ण होते हैं, किंतु उन्हें जानने के लिए उनसे प्रेम करना जरूरी है। उन्हें पहचानने के लिए साधना करना जरूरी है। उनकी कृपा मिल गई, तो फिर कुछ भी नहीं चाहिए।”
साधारणतया प्रारब्धवश ही मनुष्य का जन्म होता है। क्या श्री भगवान् का ऐसा कोई प्रारब्ध था, जिस कारण उन्हें अपनी महिमा से च्युत होकर साधारण मानव के रूप में जन्म लेना पड़ रहा है। इस शंका के समाधान हेतु ही भगवान् ने अर्जुन व इसके माध्यम से हम सबको अपना स्वरूप दिखाने हेतु यह संदेश कहा है। थोड़ा-सा इस संबंध में भगवान् ने अर्जुन को भूमिका रूप में तब कहा था, जब उन्होंने कर्म करते हुए भी कर्मों से न बँधने के प्रसंग में अपना दिव्य दृष्टांत तीसरे अध्याय में सामने रखा था।
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ 3/22
“मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म करने में ही विश्वास करता हूँ।”
वहाँ मात्र एक झलक रखी थी अपने दिव्य अवतारी स्वरूप की। पर अब वे अपने आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते हैं।
पुनर्जन्म की बात भी अनायास ही भगवान् कह जाते हैं। पुनर्जन्म की प्रारंभिक सभी खोजें भारतवर्ष में हुईं। बाद में पश्चिम में भी जिज्ञासा जगी एवं ढेरों प्रमाण उन्हें मिलने लगे, उस मुस्लिम व ईसाई धर्म में भी, जहाँ पुनर्जन्म की मान्यता ही नहीं है। जातक कथाओं में ऐसे उदाहरण काफी मिलते हैं। इनके अनुसार अंतिम अवतार भगवान् का महात्मा बुद्ध के रूप में हुआ था। अवतारी चेतना किस तरह से बारंबार आती है, उसका नमूना हैं ये कथाएँ। एक कथा परमपूज्य गुरुदेव अक्सर सुनाया करते थे। यह घटना भगवान् बुद्ध के सिद्धार्थ से बुद्ध बनने की प्रक्रिया के दौरान घटी व संबंधित है एक अनाम ऐसी लड़की से, जिसे भगवान् ने उसके उत्तर जन्म में अहसास कराया कि वह कौन है एवं वे कौन हैं।
यह एक तथ्य है कि भगवत्सत्ता के अंशरूप में जन्मे महापुरुष भी मुमुक्षत्व प्राप्त करने के लिए कई जन्मों तक तप करते हैं, तब कहीं भगवान् की सत्ता उनमें अवतरित होती है। सिद्धार्थ के रूप में जन्म लेने से पूर्व सत्य की खोज, निर्वाण-प्राप्ति के उपाय की दिशा में महात्मा बुद्ध का तप चल रहा था। उस तपश्चर्या के दौरान जंगल में एक लड़की उन्हें भोजन दे जाती थी। पूछती कि आप क्यों कठोर तप कर रहे हैं? भगवान् कहते, निर्वाण की प्राप्ति के उपाय खोजने एवं जन-जन को बताने के लिए। लड़की कहती, आपको भूख नहीं लगती? यह तो हम आपको कंद-मूल दे जाते हैं, तो आप खा लेते हैं। यह निर्वाण है क्या, जिसके लिए आप तप कर रहे हैं। भगवान् बोले, “जिस दिन मिल जाएगा, सबसे पहले तुझे ही बताएँगे। तूने हमारी बड़ी सेवा की है।” लड़की हँसकर चली जाती। सिद्धार्थ पुनः जन्मे, तप किया एवं आत्मबोध प्राप्त किया, निर्वाण प्राप्ति का उपाय उन्हें दिखाई देने लगा। उधर वह लड़की भी फिर जन्मी, पर न उसे विगत जन्म की स्मृति थी, न यह मालूम कि यह बुद्ध कौन हैं?
भगवान् बुद्ध का प्रथम उपदेश होना था। पाँच ब्राह्मण पहले उनके शिष्य बने थे। उनमें पहले थे काश्यप। प्रसेनजित, बिंबसार भी उनसे जुड़ चुके थे। काश्यप से वे बोले, “मैं पहला अपना प्रवचन करूंगा।” सभी के मन में जिज्ञासा थी कि कहाँ पहला उपदेश देंगे प्रभु। बिंबसार के यहाँ प्रसेनजित के यहाँ या कहीं और। भगवान् बोले “कहीं नहीं! मैं पंचशाला गाँव में रहने वाली एक कुम्हार की लड़की को पहला प्रवचन दूँगा। मुझे मेरे पिछले जन्मों की स्मृति है। मेरा वायदा है उस लड़की से। पहला प्रवचन उसी को सुनाया जाएगा। फिर और लोग सुनेंगे।” जिज्ञासु शिष्यगण देखने गए कि कौन-सी लड़की है वह? पंचशाला गाँव में एक लड़की बारह वर्ष की कुम्हार के घर दिए बना रही थी, मिट्टी कूट रही थी। उसे कहा गया कि स्वामी जी प्रवचन हेतु बुला रहे हैं। वह बोली, ‘मैं’ नहीं जानती उन्हें। मुझे मिट्टी कूटनी है, ढेरों काम करने हैं। भगवान् बोले, हम इंतजार कर लेंगे। वह आएगी जरूर। तीन दिन तक प्रतीक्षा चलती रही। जब लोगों ने कहा कि वह नहीं आ रही, तो भगवान् बोले कि फिर मैं ही पहुँच जाता हूँ। भगवान् पहुँचे तो लड़की बोली, पहले आप हमारा काम करा दें, फिर हम आप जो भी कहेंगे, वह सुन लेंगे। पहले हमारे साथ मिट्टी कूट दें। दिनभर बुद्ध ने उस लड़की के साथ मिट्टी कूटी। लड़की ने कहा, आपने हमारा इतना काम किया तो हम भी आपके प्रवचन में बैठ जाएँगे। हमें कुछ आता-जाता नहीं है, पर हम सुन लेंगे। प्रवचन में भगवान बुद्ध ने वह रहस्य खोला कि इसी लड़की ने हमारी सेवा की थी पूर्व जन्म में। हमने निर्वाण का पहला उपदेश इसे सुनाने का वायदा किया था, इसलिए हम इसे ही सुना रहे हैं। आप सभी उसके साथ हैं, अतः लाभ आपको भी मिल रहा है। लड़की वह सब सुनने के बाद देवत्व को प्राप्त हो गई। उसके जीवन की दिशा बदल गई व शीघ्र ही उसने भी आत्मबोध को प्राप्त किया।
यहाँ जो मर्म की बात है, वह है भगवान् का कथन कि “मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उनको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। ( तानि अहं वेद सर्वाणि )।” यह हमें समझ में आ जाए, तो हमें अहसास होगा कि कैसे हमें खोजते-खोजते हमारे सद्गुरु-हमारे ईश्वर हम तक पहुँच गए। परमपूज्य गुरुदेव का एक प्रवचन है, जिसमें उन्होंने कहा, “मुझे मालूम है, मुझसे जुड़ी श्रेष्ठ आत्माएँ कहाँ-कहाँ हैं? मैं उन्हें चुन-चुनकर एकत्र कर रहा हूँ, ताकि एक लड़ियों का हार बना सकूँ।” गायत्री परिवार उसी का नाम है। पूज्यवर ने कहा है, “यदि सन् 2000 के अंत तक तुमने मेरा साथ दिया, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ, तुम्हें पार कर दूँगा। भवबंधनों से भरे महासागर में से तुम्हारी नौका सकुशल खींचकर निकाल ले जाऊँगा। शर्त एक ही है कि बिना किसी माँग, अपेक्षा, यश की कामना के तुम मेरा काम करो। मेरे विचारों का विस्तार करो।”
परमपूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़ा एक संस्मरण बड़ा मर्मस्पर्शी है। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के समय 2400 तीर्थों की जल-रज की स्थापना वहाँ होनी थी। पूज्यवर के एक प्रियभक्त जो मरण तक यहीं शाँतिकुँज में रहे, श्री बद्रीप्रसाद पहाड़िया थे। उनके पास पूज्यवर की लिखी 1945-46 के जमाने की चिट्ठियाँ हैं। इससे ज्ञात होता है कि वे कितने पुराने समय से जुड़े थे। पूज्यवर ने उन्हें लिखा कि तुम्हारा बाँदा जिले के अमुक गाँव में 11 वर्ष की एक लड़की है। वह पूर्व जन्म की एक देवी है, सिद्ध है। बिना उसे इसके माता-पिता को बताए तुम उसके गाँव का जल ले आओ। पहाड़िया जी किसी तरह ले आए। उस जल को भी अन्यान्य रहस्यमय स्रोतों से आए पावन प्रतीकों के साथ वहाँ रखा गया। जो महात्मा बुद्ध के जीवन में घटा, लगभग वैसा ही पूज्यवर के साथ। यही महापुरुषों की लीला है।
भगवान् पाँचवे के साथ ही अगले श्लोक में कहते हैं,
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥ 4/6
“मैं जन्मरहित, अविनाशी, सभी प्राणियों का नियामक ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।”
भगवान् के इस योगमाला वाले रूप से आवरण हटने के बाद उन्हें पहचानना बड़ा जरूरी है। जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि भगवान् राम के समय ही ऋषिगण नहीं जानते थे कि वे भगवान् हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ऋषियों ने रामचंद्रजी से कहा, हम जानते हैं कि तुम दशरथ के लड़के हो। भारद्वाज ऋषि भले ही तुम्हारी अवतार रूप से पूजा करें, पर हम लोग तो अखंड सच्चिदानंद को चाहते हैं। इस बात को सुनकर रामचंद्रजी हँसकर चले गए। ठाकुर कहते हैं, “ऋषि लोग ज्ञानी थे, इस कारण वे अखंड सच्चिदानंद को चाहते थे। भक्त लोग तो भक्ति का स्वाद लेने के लिए अवतार को ही चाहते हैं।” श्रीरामकृष्ण के वचनों से अवतार तत्त्व बड़ी सुगमता से समझ में आ जाता है।
भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है, उसका कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है, किंतु वे तो अजन्मे हैं, साथ ही अव्ययात्मा (अविनश्वर स्वरूप) भी हैं। शुद्ध चैतन्य भाव से भरे-पूरे हैं। चैतन्य में न कभी विकार आता है, न परिवर्तन आता है। तो फिर वे प्रकट कैसे होते हैं? भगवान् कहते हैं, अपनी अंतर्निहित माया द्वारा। भगवान् अपनी इस माया के स्वामी हैं, अतः वे अवतरित हो जाते हैं। हम जीव अपनी उस माया-वासना समुच्चय के अधीन जीवन जीते हैं, यही हममें व उनमें अंतर है। भगवान् के अवतरण का हेतु, अवतार का प्रयोजन तथा उनके दिव्य जन्म-कर्म के बारे में चर्चा अगले अंक में करेंगे।
(क्रमशः)