एक बार एक मित्र ने सर जान हर्शल नामक प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान से प्रश्न किया, “आपको सृष्टि में सर्वोत्तम वस्तु कौन-सी लगी?” तो उन्होंने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “भाँति-भाँति के संयोग-वियोग आए, पर वह दृढ़तापूर्वक मेरे साथ जीवन के सुख और आनंद का झरना बना रहे। मेरे खिलाफ हवा चले, लोग मुझे बुरा कहें, धिक्कारें, रास्ता रोकें, उस समय मुझे बेपरवाह बना दें। जीवन में दुःखों से मेरी ढाल बन जाए। ईश्वर से प्रार्थना करने का अवसर मुझे मिले, तो मैं निवेदन करूंगा, हे प्रभु! मुझे विद्या पढ़ते रहने की रुचि दें। ज्ञान के धार्मिक महत्त्व को घटाए बिना यहाँ मैंने केवल उसके साँसारिक लाभ बताए हैं। विद्या की अभिरुचि कैसी आनंददायिनी है, संतोष का कैसा उन्मुक्त साधन है, इतना ही मैंने यहाँ स्पष्ट किया है।”
स्वर्गलोक में हलचल मच गई। स्वर्ग की शासन-व्यवस्था लड़खड़ा रही थी। विष्णु भगवान् हिरण्याक्ष वध के लिए वाराह रूप बनाकर धरती पर आए। प्रयोजन भी पूरा किया, किंतु यहीं रम गए, वापस लौटे नहीं। एक-एक करके देवता आए और वापस चलने का अनुरोध करने लगे, किंतु वाराह को कीचड़ में लोटना और परिवार के साथ रहना इतना सुहाया कि वे स्वर्ग लौटने को सहमत न हुए। बारी-बारी आए देवताओं को निराश होकर लौटना पड़ा। व्यवस्था बिगड़ते देखकर क्रुद्ध शिवजी ने वापस लाने का जिम्मा उठाया। वे आए और वाराह से लौटने और निर्धारित उत्तरदायित्व को निभाने की बात कहने लगे। इसका भी उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। क्रुद्ध रुद्र ने त्रिशूल से वाराह का पेट फाड़ डाला और लाश को कंधे पर लादकर स्वर्ग सिंहासन पर पटक दिया।
विष्णु असली रूप में लौटे और देवताओं से बोले, “मोह बड़ा प्रबल है। वह भगवान् की भी दुर्गति करा सकता है। आप लोग उसके कुचक्र में न फँसना और अन्यान्यों को कड़ुए-मीठे उपायों से इसी प्रकार उबारना जैसे कि शिव ने मुझे छुड़ाया।”