अपनों से अपनी बात-1 - विराट् महाकुँभ छोड़ गया अमिट स्मृतियाँ

January 2001

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विगत अंक में परिजन-पाठक उन पूर्व तैयारियों के विषय में पढ़ चुके हैं, जिनकी परिणतिस्वरूप एक विराट् महापूर्णाहुति आयोजन सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ के रूप में भारत की आध्यात्मिक राजधानी कुँभनगरी हरिद्वार में संपन्न हुआ। 6 से 11 नवंबर तक संपन्न हुए इस महापुरुषार्थ का पूरा विवरण तो परिजन प्रज्ञा अभियान पाक्षिक में भी पढ़ सकते हैं, पर ‘अखण्ड ज्योति’ के पाठकों के लिए चार रंगीन पृष्ठों सहित शेष सारा विवरण इस अंक में दिया जा रहा है।

पूर्व तैयारी संबंधी कुछ झलकियाँ

सुरुचि एवं सौंदर्य अध्यात्म की परिधि में आता है। इसके जुड़ जाने से जड़ प्रकृति में भी एक अनुपम शोभा दृष्टिगोचर होने लगती है। महापूर्णाहुति नगर की सबसे महत्त्वपूर्ण विलक्षणता थी, चाहे वे आवास हों अथवा कार्यालय, प्रदर्शनी अथवा चिकित्सालय, सभी को परिजन भाई-बहिनों ने गोबर से लीपकर रंगोलियों से, क्यारियों से, पौधों से सजाया था। मात्र सात दिन के लिए बने, प्रयोग में आने वाले इस नगर का सौंदर्य दर्शनीय था। ऐसा लगता था मानो देवशिल्पी विश्वकर्मा स्वयं कार्य करने धरती पर आ खड़े हुए हों।

कुल 30 नगर एवं पंद्रह भोजनालयों का निर्माण किया गया था। प्रभारी अभियंताओं ने बनाते समय ध्यान रखा था कि मुख्य पहुँच मार्ग कम-से-कम सत्तर फीट चौड़ा हो एवं सभी रास्ते सीधे हों। ऐसी व्यवस्था रखी गई थी कि फायर बिग्रेड की गाड़ी हर टेंट तक पहुँच सके। ठेकेदारों के लगाए टेंटों में सुविधा, सुव्यवस्था स्वयंसेवकों के कौशल से जुड़ गई।

रेलगाड़ी के टैंकरों के आकार के कैप्सूलनुमा पीपे (पौण्टून्स) जल के ऊपर (गंगा नदी की मुख्य जलधारा) तैराकर स्टीलतार के अठारह मोटे रस्सों से बाँधे गए थे। लगभग डेढ़ सौ मीटर के इस पुल को बनाने के लिए पच्चीस पौण्टून्स क्रेन के मानवी सहयोग से उतारे गए थे। 31 अक्टूबर को जिलाधिकारी श्री हरीशचंद्र जोशी द्वारा उसका उद्घाटन किया गया। इस पुल के बनने से लालजीवाला एवं गौरीशंकर द्वीप के बीच की दूरी बहुत कम हो गई। प्रातः 3 बजे से रात्रि 11 तक उस पुल पर सतत खचाखच लोग चलते रहे।

समूचे महापूर्णाहुति नगर में इस बार फ्लश वाले शौचालयों की व्यवस्था की गई थी। मोरबी के किरीट भाई ने इसके लिए निःशुल्क हजारों सीटें उपलब्ध कराईं। इसी आधार पर गंगानदी व पूरी तीर्थनगरी की पवित्रता संभव बनी।

पूरे महापूर्णाहुति नगर में एक बार में सभी स्थानों पर नियुक्त स्वयंसेवकों की संख्या प्रायः एक लाख थी। जब भी कोई कार्यक्रम में जाता, उसका स्थान लेने की प्रतिस्पर्द्धा-सी मच जाती। आवास, कार्यालयों, प्रदर्शनी, मल्टीमीडिया, लोककलामंच, चिकित्सालय, यज्ञशाला, संस्कारशाला, सभी नगरों, सभी भोजनालयों, पी.सी.ओ तथा प्रशासकीय कार्यालयों में मुस्तैदी से स्वयंसेवक ड्यूटी देते रहे।

सभी की एक ही अपेक्षा थी, चाहे वे तीर्थयात्रियों के जत्थे हों अथवा नगरवासी कि यह पवित्रता का वातावरण जो बना है, क्या किसी तरह स्थायी बना रह सकता है। यदि ऐसा हो सका, तो नवगठित राज्य उत्तराँचल जहाँ देवात्मा हिमालय स्थित है, एक नमूना सारे भारत के समक्ष बन सकेगा। चुनौती गायत्री परिजनों ने स्वीकार की है व इसका परीक्षण 2004 के अर्द्ध कुँभ में करने का निर्णय लिया है।

प्रसारण तंत्र की महती भूमिका

इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंटमीडिया दोनों ने ही इस महायज्ञ में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाचार पत्र तो विराट् विभूति ज्ञानयज्ञ (नई दिल्ली) से ही सारे भारतवर्ष में पूर्व तैयारियों का विवरण भेज रहे थे, साथ ही शाँतिकुँज की न्यूज फीचर सेवा ने भी ‘सृजन संदेश’ समाचार सेवा आरंभ कर दी थी, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी पीछे नहीं रहा। ‘आस्था चैनेल’ ने न केवल पूरे कार्यक्रम का लाइव कह्वरेज बैंकाक से किया, विराट् विभूति महायज्ञ की झलकियाँ तीन दिन पूर्व से ही दिखाना आरंभ कर दीं। आस्था चैनेल के द्वारा प्रसारण को कैबल टी.वी. ने हाथों-हाथ लिया एवं जहाँ-जहाँ जिन नगरों में यह उपलब्ध था, वहाँ सभी को जानने को मिला कि इतना विराट् आयोजन एक महान् उद्देश्य को लेकर हो रहा है। दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनेल डी.डी. 1, लखनऊ, बरेली व दिल्ली की प्रादेशिक सेवाओं, सी.बी.सी तथा जर्मन टी.वी. ने भी प्रसारण सेवा से जन-जन तक संदेश पहुँचाया। दिल्ली की ‘थर्ड आई कम्यूनिकेशन’ संस्था ने कार्यक्रम के पूर्व से ही आकर आठ बीटाकैम कैमरे सारे महायज्ञ नगर में कैबल्स की सेटिंग तथा मल्टीमीडिया सेंटर की स्थापना कर दी। प्रभाकर तिवारी एवं अतुल गुप्ता के नेतृत्व में आई टीम का मार्गदर्शन गजाधर भारद्वाज जी, सुभाष रंथ (‘मंथन’ के निर्देशक), संदीप श्रीवास्तव तथा दिव्येश व्यास, अभय श्रीवास्तव ने किया। शाँतिकुँज के कार्यकर्त्ताओं के युवा बालकों के दल ने अलग-अलग जोन्स का कार्य सँभालकर असंभव को भी संभव बना दिया। प्रतिदिन के कार्यक्रम की छह घंटे की एडीटिंग की हुई कैसेट दिल्ली होकर बैंकॉक जाती व दो दिन बाद उसे दो खंडों में डेढ़ सौ देशों में आस्था चैनेल द्वारा प्रसारित किया जाता। यह कार्य समर्पण भाव से जिस तरह संपन्न होता रहा, सभी ने उसे देखकर भूरि-भूरि सराहना की। इस परिश्रम का ही परिणाम है कि छह कैसेटों का एक महापूर्णाहुति वीडियो सेट उन सभी के लिए आज उपलब्ध है, जो किसी कारणवश कार्यक्रम देख नहीं पाए।

विराट् कलश यात्रा में भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति की झलक

कार्यक्रम का शुभारंभ 6 नवंबर को विराट् कलश यात्रा के लिए रखे ग्यारह हजार कलशों के संस्कारशाला (शाँतिकुँज के सामने सप्तर्षि क्षेत्र में) में पूजन से संपन्न हुआ। छह नवंबर की प्रातः से ही सारे नगरों के परिजनों का रुख शाँतिकुँज की ओर ही था। पीत वस्त्रधारी बहनों ने हजारों की संख्या में कलशों में जल भरा एवं निर्धारित समय से पूर्व ही यज्ञशाला (लालजीवाला) की ओर की अपनी पैदल यात्रा (प्रायः पंद्रह किलोमीटर लंबी) आरंभ कर दी। कलशधारी महिलाओं एवं प्रायः सत्तर झाँकियों के साथ चल रहे कार्यकर्त्ताओं का आठ किलोमीटर लंबा जुलूस अद्भुत था। चारों ओर से नारे गूँज रहे थे। बैंड भक्तिगीतों की वंदना गा रहे थे। सारा नगर इस दृश्य से अभिभूत था। शाँतिकुँज की ब्रह्मवादिनी कन्याओं द्वारा प्रस्तुत गीत के साथ ही प्रातः 8 बजे यात्रा आरंभ हो गई एवं हाथी, घोड़े, ऊँट, बैंड मिशन के विभिन्न कार्यक्रमों एवं भारत की विविधता में एकता एवं विराट्ता की झलक दिखाने वाली झांकियों, भजन मंडलियों, नृत्य करती विभिन्न क्षेत्रों की टोलियों के जत्थे चल पड़े।

दो भागों में बँटी इस विशाल कलश यात्रा में एक ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान भारत माता मंदिर की ओर से व दूसरा नीतिपास-बद्रीनाथ-दिल्ली राजमार्ग से चले जत्थे दूधाधारी मंदिर पर एक हो गए। यहाँ से खड़खड़ी, भीमगोड़, हर की पौड़ी, अपर मार्केट, देवपुरा, डैम कोठी, बाईपास मार्ग से लौटकर गंगा के किनारे-किनारे चलकर चार पटा पुलों द्वारा इस यात्रा ने ठीक ढाई बजे अपराह्न यज्ञशाला में प्रवेश किया। लगभग पाँच सौ वाहन इसमें थे तथा पूरी यात्रा के सुसंचालन हेतु लगभग डेढ़ हजार स्वयंसेवक जुटे थे। पचास मोबाइल फोनों की सेवाओं ने यात्रा को सुव्यवस्थित बनाए रखा। श्री श्याम बिहारी दुबे के मार्गदर्शन में सारे स्वयंसेवकों ने अद्भुत अनुशासन का प्रदर्शन किया। कलश यात्रा के दोनों ओर साथ चल रही बहनों-भाइयों-झाँकियों पर रास्ते भर पुष्पवर्षा गायत्री परिजनों तथा नगरवासियों द्वारा होती रही।

इस कलश यात्रा में पहली बार पूज्यवर द्वारा प्रज्वलित, परमवंदनीया माताजी द्वारा संरक्षित अखण्ड दीपक भी यात्रा की अगवानी करता साथ चला। लोककला मंच के कलाकार भी कलश यात्रा में अपने क्षेत्र की संस्कृति का दिग्दर्शन कराते साथ चल रहे थे। स्थान-स्थान पर नगरवासी जल-शरबत, मूँगफली, मिश्री, फलों के थाल लिए खड़े थे एवं देवसत्ताओं के प्रतीक रूपी कलशयात्रियों को देते चले जा रहे थे। प्रवासी भारतीयों का जत्था भी अपने बैनर्स लिए साथ चल रहा था। लगभग तीन बजे यज्ञशाला में पहुँचने पर भावभरे गीतों एवं ऋषिसत्ता के संदेशवाहकों द्वारा दिए गए पावन संदेशों ने शीतलता व प्रेरणा दी तथा फिर कलशों की आरती उतारकर प्रसाद वितरण कर इस यात्रा का विसर्जन कर दिया गया।

नवयुगदर्शन प्रदर्शनी, चिकित्सा नगर एवं लोककला मंच

छह नवंबर संध्या को ही लगभग 36000 वर्ग फीट क्षेत्र में फैली चार भागों में बँटी प्रदर्शनी, सत्तर बिस्तरों व आधुनिक उपकरणों सहित पचास चिकित्सकों से युक्त चिकित्सा नगर एवं टूरिस्ट बैंगलो के पास बने विराट् लोककला मंच का उद्घाटन संस्था प्रमुख शैलबाला पण्ड्या द्वारा दीप-प्रज्वलन कर किया गया। इसके साथ ही यह सेवाएँ सबके लिए खोल दी गईं।

नवयुगदर्शन प्रदर्शनी का निर्माण मात्र एक महीने की अल्प अवधि में गंगाधर के समानाँतर हर की पौड़ी के सामने रोड़ी बेलवाला में पैंसठ शिल्पियों, मूर्तिकारों, चित्रकारों सहित उनके तीन सौ सहयोगियों द्वारा किया गया था। इस कार्य में श्री गंगाधर चौधरी एवं सुधीर भारद्वाज के मार्गदर्शन में सभी भाई-बहन जुटे हुए थे। चौबीस पंखुड़ी वाले कमल से युक्त देवसंस्कृति फव्वारा, विराट् मशाल, महाकाल की घूमती प्रतिमा, चरक ऋषि के आश्रम के साथ नवग्रह वाटिका, विभिन्न मूर्तियों के माध्यम से गुरुसत्ता का जीवनदर्शन, अवतारों की परंपरा, ऋषि परंपरा सभी कुछ इतना मनमोहक था कि उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। सप्तक्राँतियों के जीवन स्वरूप को प्रदर्शनी में लोगों ने देखा व प्रेरणा ली। सारे परिसर में विशाल होर्डिंग्स जगह-जगह लगे थे। इन्हें श्री बाबू भाई सतवारा (मुँबई) एवं संजय पटेल के समर्पित साथियों तथा राजस्थान के श्री महेन्द्र सिंह आदि ने तैयार किया था। इसके साथ ही आयुर्वेद का दिग्दर्शन कराती एक भव्य प्रदर्शनी भी उसी दिन आरंभ हुई। साथ ही ग्रामोत्थान-ग्रामतीर्थ निर्माण, गौ संवर्द्धन आँदोलन पर आधारित प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया गया। शाँतिकुँज के रचनात्मक प्रकोष्ठ की बहनों ने श्री अगमवीर सिंह जी एवं के सी त्यागी के मार्गदर्शन में इसे तैयार किया था। आयुर्वेद प्रदर्शनी डॉ. रामप्रकाश पाण्डेय के मार्गदर्शन में ऋषिकुल-गुरुकुल के समर्पित छात्र-छात्राओं द्वारा बनाई गई थी। एक आदर्श ग्राम का मॉडल भी बनाया गया था।

लोककला मंच का शुभारंभ कलश यात्रा वाले दि नहीं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकार पं. श्याम दास मित्र के द्वारा सरस्वती वंदना एवं मैहर के संगीतज्ञ समूहों द्वारा वादन से हुआ। इसके बाद 10 नवंबर संध्या तक 2 से 4 अपराह्न एवं 8 से 11 सायं यह मंच सतत चलता रहा। सभी नगरों के परिजनों ने अपनी-अपनी सुविधानुसार भारत के सभी कोनों से आए कलाकारों की प्रतिभा को देखा-सराहा। लोकरंजन से लोकमंगल के अद्भुत इस प्रेरक प्रयोग की सभी ने प्रशंसा की। महेंद्र शर्मा जी के नेतृत्व में उमाकाँत व शशिकाँत सिंह तथा डॉ. रमन ने यहाँ की व्यवस्था सँभाली।

देवपूजन का विशिष्ट दिन-विशिष्ट प्रयोग

1501 कुँडी यज्ञशाला में 7 नवंबर को प्रातः 7 से सायं 4 तक देवपूजन का क्रम चला। इसका प्रसारण पूरे यज्ञनगर में एवं सिटी कैबल द्वारा पूरे हरिद्वार नगर में हुआ। साथ ही संस्कारशाला में भी यह क्रम चलता रहा। सौत्रामणी प्रयोग के साथ यह पूजन क्रम संपन्न हुआ। सौत्रामणी स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज के निर्माण के संकल्प का दिग्दर्शन कराने वाली एक वैदिक प्रक्रिया है। इसमें स्वस्थ शरीर हेतु अश्विनीकुमार, स्वच्छ मन हेतु कला की देवी सरस्वती तथा सभ्य समाज हेतु देवराज इंद्र को विशिष्ट आहुतियाँ दी जाती हैं। साथ ही पुरुषमेध के अधिष्ठाता देवता सविता देवता का विशेष पूजन भी संपन्न होता है।

ये सारे क्रम देवपूजन के क्रम में संपन्न किए गए। संस्था प्रमुख एवं गुरुसत्ता की प्रतिनिधि के रूप में श्रीमती शैलबाला पण्ड्या ने बारहवर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति के विधिवत् आरंभ होने की घोषणा की। विश्वकुँडलिनी जागरण द्वारा मानवी चेतना के विकास को समर्पित यह संकल्प सभी ने सुना। डॉ. प्रणव पण्ड्या एवं वीरेश्वर जी उपाध्याय ने इस महायज्ञ की महती भूमिका पर प्रकाश डाला। अग्नि आह्वान जब सूर्यकाँत मणि के माध्यम से सविता-देवता की किरणों से मनीषी पं. श्री वीरेश्वर जी उपाध्याय द्वारा किया गया, सारा वातावरण दिव्यता से भर गया। सौत्रामणी प्रयोग में गोदावरी नामक गाय एवं उसकी बछिया को मुख्य देवमार्ग से डॉ. प्रणव पण्ड्या, शैलजीजी देवपथ पर चलाकर लाए एवं ठीक मंच के सामने गौदुग्ध का दोहन किया, तो सारा वातावरण भाव-तरंगों से भर गया। यही दुग्ध फिर तीन देवसत्ताओं को समर्पित किया गया। इसी गौ माता को बाद में शुक्रताल के वीतराग स्वामी कल्याणदेव जी की गौशाला में गौ-वत्स दक्षिणाक्रम के अंतर्गत दान दे दिया गया।


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