परिपूर्ण समर्पण

January 2001

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वह हरी-भरी खेती से लहलहाते हुए पंजाब के एक इलाके का रहने वाला था। प्रकृति और वर्षा की उसके इलाके पर असीम कृपा थी। उसका कुल जितना उच्च था, परिवार उतना ही समृद्ध एवं वैभवशाली था। वह स्वयं भी स्वस्थ, सुँदर एवं शिष्ट था। इन बाहरी विभूतियों के साथ उसका आँतरिक जीवन भी उज्ज्वल था। गुरुनानक देव के सान्निध्य से इसमें नित्य-प्रति नया निखार आता जा रहा था।

गुरु ने साधना की जो विधियाँ बताई थीं, वह पूरी श्रद्धा से उन्हें नियमित किया करता था। वह तप कर रहा था, साधना के मार्ग पर बढ़ता जा रहा था। इसी प्रवाह में दिन बीते, महीने बीते और चार वर्षों की लंबी अवधि भी अतीत की गहन गुफा में विलीन हो गई। पता ही नहीं चला कि समय इतनी शीघ्रता से कैसे भागता चला गया।

एक रात अपने घर पर सोते हुए उसने स्वप्न में गुरुनानक देव को देखा। इस स्वप्नदर्शन ने उसमें गुरुदर्शन की अपूर्व व्याकुलता उत्पन्न कर दी। सुबह उठते ही उसने गुरु आश्रम चलने की तैयारियाँ शुरू कर दीं। उन दिनों नमक का बड़ा अभाव रहता था। वह जमाना ही ऐसा था, जब नमक के आवागमन पर बड़ा कड़ा नियंत्रण था। आश्रमवासी नमक के बिना बड़ा कष्ट भोगते थे। उसने सवा मन नमक का प्रबंध किया और उसे सिर पर लादकर गुरुधाम की ओर रवाना हो गया।

गुरुनानक देव का यह आश्रम उसके घर से पूरे सोलह कोस दूर था। भादों का महीना था। धूप निकलती तो सुई के समान चुभती। आकाश में बादल छा जाते, तो उमस बढ़ जाती। उसकी वेषभूषा भी देखने लायक थी। बगुले के पंख के समान उजली धोती, उस पर रेशम का नया कुर्ता, माथे पर रेशमी साफा, गौर वर्ण, उन्नत ललाट, विशाल आँखें, बलिष्ठ भुजाएँ, चौड़ी छाती, पर मुख पर नवनीत के समान कोमलता, आँखों में किसी सपने की परछाई और कदमों में मंजिल तलाशने की जल्दबाजी। इस अपरुप के साथ सिर पर नमक की बोरी का कोई ताल-मेल नहीं था, पर गुरुभक्ति में पगा पथिक मस्ती में चला जा रहा था।

न खाना खाने की परवाह, न पानी पीने की चिंता और न विश्राम करने की इच्छा। वह मंजिल पाकर ही रुकना चाहता था। अपने मन में कभी वह गुरुवाणी का पाठ करता, कभी उसे संगीत के स्वर में साधता और कभी गुरुनानक देव के ध्यान में इतना मग्न हो जाता कि मार्ग की बीहड़ता का उसे पता ही नहीं चल रहा था। उसके मन में मस्ती थी, भावों में अद्भुत ...., वह तो बस अपनी धुन में चला जा रहा था।

बीस वर्ष का रूपवान् यह युवक अपने घर से मुँह अँधेरे ही साढ़े चार बजे चला था और सूर्य पश्चिमी क्षितिज की ओट लेने लगा कि आश्रम पर पहुँच गया। पहुँचते ही उसने गुरुमाता को दंडवत् किया। उन्होंने मस्तक पर आशीर्वाद का हाथ फेरा। उसने व्याकुलता से गुरु के बारे में पूछा, तो पता चला कि वे खेत पर हैं। बस वह सीधे भागता हुआ खेत पर पहुँच गया।

खेत में गुरुनानक देव की उपस्थिति उसे कृतार्थ कर गई। भावाकुल नेत्रों से उसने अगले आदेश की याचना की। उसे खेत की घास-पात उखाड़ने का आदेश मिला। आदेशानुसार उसने कीचड़ सनी घास उखाड़ी और उसके ढेर को सिर पर लादकर चल पड़ा। कीचड़ युक्त पानी उसके शरीर और कपड़ों को गंदा व बदरंग बना रहे थे, पर उसके सामने तो एक ही मकसद था, गुरु की आज्ञा पालन करना।

वह आश्रम पहुँचा। गुरुदेव भी पहुँचे। उसकी यह दशा देखकर गुरुमाता से नहीं रहा गया। वह नानकदेव पर बरस पड़ीं, मुँह अँधेरे सुबह चला है यह घर से और अब रात घनी होने को आई है। न तो इसने एक बूँद पानी पिया है और न अन्न का एक दाना खाया है। क्या दुर्गति बनाई है आपने इसकी, बेचारा कीचड़ से सन गया है। दया नहीं आती आपको इस पर।

गुरु शाँत भाव से मुस्कराते हुए बोले, मैं तो इसका कीचड़ उतार रहा हूँ। अपने इस सारगर्भित वाक्य के साथ उन्होंने उस युवक को एक अन्य आदेश दे डाला, मेरे सारे कपड़े मैले हो रहे हैं, जाओ इन्हें नदी में धो लाओ।

विचित्र गुरु और विचित्र उनका आदेश। रात का समय, अंधकार का साम्राज्य, उस पर रुक-रुककर होती बारिश, पर गुरुभक्त वह युवक तुरंत चल पड़ा। उसने एक-एक कपड़े को अच्छी तरह से धोया और उन्हें सुखाने के लिए घास पर फैला दिया। न जाने कहाँ से सूर्य उदय हुआ और कुछ ही काल में सारे कपड़े सूख भी गए। वह कपड़े समेटकर फिर से गुरुधाम जा पहुँचा।

गुरुनानक देव ने पूछा, सूख गए कपड़े?

जी हाँ गुरुदेव! इसी के साथ उस युवक ने आश्चर्यजनक रीति से सूर्य उगने की सारी घटना कह सुनाई।

गुरु रहस्यमय मुस्कान बिखेरते हुए बोले, पागल तो नहीं हो गया तू। देख ले जाकर, बाहर अभी भी घना अँधेरा है और बारिश हो रही है। तब? उस युवक शिष्य के मन में प्रश्न कौंध गया।

वह तेरी गुरु निष्ठा का सूर्य था। युवक को सारी बात समझ में आ गई। उसने मन-ही-मन कृपालु गुरुदेव को प्रणाम किया।

परंतु उसकी परीक्षा अभी शेष थी। अगले ही दिन गुरुदेव को किसी जमींदार भक्त का निमंत्रण मिला। वह अपने दोनों पुत्रों एवं उस युवक के साथ चले। भक्त के घर पहुँचने पर गुरु का स्वागत-सत्कार हुआ। भोजन आदि के पश्चात् जमींदार भक्त ने गुरुदेव को सोने के दो कटोरे भेंट किए। गुरु ने इन कटोरों को पास रख लिया और वापस घर की ओर चल पड़े।

रास्ते में गुरुदेव ने तीनों को दिखाकर वे दोनों कटोरे एक मल-मूत्र से भरे एक गहरे गड्ढे में फेंक दिए। इसके पश्चात् गुरुदेव अपने पुत्रों की ओर मुखातिब होते हुए बोले, जा बेटे कटोरे निकाल ला, परंतु जवाब में उनके दोनों ही पुत्र अन्यमनस्क बने रहे, जैसे उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।

इसके बाद उन्होंने उस युवक को संबोधित करते हुए कहा, लहना अब तेरी बारी है। गुरु का आदेश सुनते ही वह युवक लहना उस गड्ढे में कूद पड़ा और मल-मूत्र से सन गया, लेकिन उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। वह कटोरे लेकर बाहर आया। स्वयं भी नहाया, कटोरों को रगड़-रगड़कर धोया और लाकर गुरुदेव के चरणों में रख दिए।

गुरुनानक देव की आँखें खुशी से चमक गईं, पर उन्होंने कहा कुछ नहीं। उनके कदम अपने घर के रास्ते पर बढ़ते रहे। रास्ते भर पूरी शाँति थी। सब चुपचाप थे। फिर भी यह गहरा मौन ऐसा कुछ कहे जा रहा था, जिसे वाणी कहने में असमर्थ थी।

उसी रात गुरुनानक देव ने झोंपड़ी में सोए लहना को जगाया और अपने कक्ष में बुलाया। उस पर अपना असीम वात्सल्य उड़ेलते हुए बोले, अब यह शरीर जर्जर हो गया लहना। इसे छोड़ने से पहले मैं तुम्हें अपना समस्त योग बल दे रहा हूँ। यह कहते हुए उन्होंने अपनी सारी आत्मिक शक्ति उस गुरुभक्त युवक लहना को दे दी। युवक लहना को उसकी सारी परीक्षाओं का सुफल देकर गुरुनानक देव समाधि लीन हो गए। यह लहना ही कालाँतर में गुरु अंगद देव के रूप में पूजित-प्रतिष्ठित हुए।


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