प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना।
दूसरों की प्रशंसा करना। उनके गुणों और सत्कार्यों को सराहना।
परिग्रह का सामान्य अर्थ है, ‘रोकना’। धन, विभूति, ज्ञान, वैभव, समय, साधन आदि की गति में अवरोध उत्पन्न किया जाता है, तो परिग्रह का पाप होने लगता है, बहते हुए जल को रोक ले तो वह सड़ने और सूखने लगता है, हवाओं को कैद करने की कोशिश में घर के द्वार और रोशनदान बंद कर लें तो जीवन देने वाली वायु दम घोंटने लगती है। समय को रोकने की कोशिश करें, काम को टालते जाने की नीति अपनाएँ, तो एक स्थिति ऐसी आती है जब कुछ करते नहीं बनता। इन उदाहरणों से मनीषियों ने एक यही तथ्य समझाया है कि प्रकृति ने जो अनुदान दिए हैं, उन्हें अपने प्रवाह के अनुसार चलते रहने दें। उन्हें रोकें नहीं।
परिग्रह के ठीक विपरीत है अपरिग्रह। रूढ़ अर्थ में इसकी परिभाषा धन-संपदा का संचय नहीं करने के रूप में की जाती है। इसी अर्थ में ग्रहण कर लें तो दुनिया में समृद्धि आ ही नहीं सकेगी। उद्योग, व्यापार और प्रतिष्ठान चलाने के लिए विपुल मात्रा में धन चाहिए। वह संचय करने से इकट्ठा होता है। अपरिग्रह का अर्थ संग्रह मात्र का त्याग मान लें, तो न संपदा संचित होगी और न ही वैभव-विकास का प्रयोजन सिद्ध होगा।
श्री अरविंद ने लिखा है कि अध्यात्म दर्शन में धन संपदा को गर्हित, त्याज्य और निंदित मानने की एक गलत प्रवृत्ति चल पड़ी। इससे हमने समृद्धि पर ध्यान देना बंद कर दिया। प्राचीन दर्शन में ऐसा नहीं था। धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की निंदा कर प्रसन्न और सुखी नहीं रहा जा सकता। सत्य प्रधान लोगों ने, साधकों और अध्यात्म रुचि रखने वाली प्रतिभाओं ने धन की निंदा कर लक्ष्मी का अपमान किया। परिणाम यह हुआ कि जगत् का पालन-पोषण करने वाली देवसत्ता विष्णु की शक्ति लक्ष्मी का कृपाप्रसाद असुरों के हाथ में चला गया। असुरों ने उसका उद्धत उपभोग किया और उनके कारण जगत् में त्रास ही फैला। आज यदि धन उद्धत प्रदर्शन और दूसरों के उत्पीड़न का कारण बना हुआ है, तो वह सत्पुरुषों के पाप का ही परिणाम है। उस पाप का जिसने संपदा को निंदित और त्याज्य बताया गया।
क्या किया जाए? श्री अरविंद का उत्तर है कि धन को आसुरी प्रभाव से मुक्त करो। सत्पुरुष और देववृत्ति के लोग उद्यमी बनें, संपदा कमाएँ और अपने उपार्जन को दैवी प्रयोजनों में लगाएँ। दैवी प्रयोजन अर्थात् समाज को सुखी-समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने वाले क्रिया-कलाप। नीति की कमाई दैवी कार्यों में लगेगी, तो सत्परिणाम आएँगे ही। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की संभावनाएँ भी उसी उपार्जन से साकार हो सकेंगी, अन्यथा महाभारत में अश्वमेध यज्ञ के बाद उस स्थान की धूलि में लौटने और निराश हो जाने वाले नेवले की तरह दैवी प्रवृत्तियों को भी निराश होना पड़ेगा।
संग्रह नहीं करने, धन-संपत्ति में ममत्व बुद्धि त्यागने, लोभ-लालच से बचने और सब कुछ भगवान् का समझने वाली आस्था लक्ष्य है। वह संपूर्ण त्याग और स्पृहा का निताँत अभाव बताते रहने से विकसित नहीं होती, पर नियमों को साधना के रूप में अपनाना है, तो एक प्रस्थान बिंदु नियत करना पड़ेगा। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि व्रतों की तरह अपरिग्रह का अभ्यास भी एक छोटे-से नियम से शुरू किया जा सकता है। नियम यह है कि प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करते रहा जाए। विद्या-विभूति से सेवा करने, दूसरों के कष्ट दूर करने में अपनी प्रतिभा का अंश लगाने या कर्त्तव्य में उत्कृष्ट भाव का समावेश करने के अभ्यास आगे के हैं। अपरिग्रह का आदर्श धन-संपत्ति के मोह से मुक्त होने के लिए निश्चित किया गया है, तो दान का आरंभ भी धन से ही करना चाहिए।
भिक्षावृत्ति इन दिनों व्यवसाय का रूप ले चुकी है। फिर भी कुछ परिवारों या मनस्वियों ने नियम बना रखा है कि याचक जब भी आएगा, उसे मना नहीं करेंगे। इस व्रत का दूसरे लोग दुरुपयोग ही करते हैं, लेकिन जिसने व्रत धारण किया है, वह देते रहने के सुख को जानता है। धन संसार में सबसे प्रिय वस्तु है। लोग इसके लिए पद, प्रभाव और परिवार का भी त्याग कर देते हैं। जल्दी धनवान बनने के लिए पद-प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर अनुचित साधन अपनाए जाते हैं, तो वह एक किस्म का त्याग ही है। भगवद्गीता की परिभाषा में इसे तामसी त्याग कहा गया है, लेकिन है तो वह त्याग ही। धन के लिए अपने संबंध, स्वास्थ्य और परिवार को भी दाँव पर लगा देने की प्रवृत्ति खुलेआम देखी जाती है। इसका अर्थ है कि धन हमेशा से और अब भी सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
कंजूसी, छीन-झपट, बेईमानी, चोरी और भ्रष्टाचार जैसे मानसिक-सामाजिक अपराध भी धन की लालसा में ही किए जाते हैं। उस धन का एक अंश अहैतुक भाव से याचक को दिया जाता है, तो उसे अपरिग्रह की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम समझना चाहिए।
लोकमंगल के लिए अपनी आय का एक अंश लगाना दान का अगला चरण है, लेकिन जरूरतमंद लोगों को सीधे सहायता करना और इस नियम से पीछे नहीं हटने की निष्ठा फिर भी बनी रहनी चाहिए। उसमें कोई रुकावट नहीं आए। याचना करने वाले किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं जाने देने का नियम इस व्रत की पराकाष्ठा है। उस स्थिति तक क्रमशः ही पहुँचा जा सकता है। नहीं पहुँच पाए, तो भी कोई बात नहीं, प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करने का नियम भी पर्याप्त है। देते समय पाने वाले की पात्रता और आवश्यकता का विचार किया जा सकता है। कुपात्र को नहीं दिया जाए, क्योंकि उससे दिए गए अंश के दुरुपयोग और प्रकाराँतर से आसुरी शक्तियों को ही पुष्टि मिलती है।
जरूरी नहीं कि सत्पात्र और जरूरतमंद व्यक्ति हर दिन मिल ही जाएँ। जिस दिन नहीं मिलें, उस दिन का अंश सुरक्षित रखा जाए और अगले दिनों उसका उपयोग कर लिया जाए। पूछा जा सकता है कि इस एक साधारण नियम से अपरिग्रह का आदर्श कैसे प्राप्त किया जाए। योगदर्शन में इस नियम की सिद्धि-परिणति समस्त वैभव को प्रकट होने के रूप बताई गई है। महर्षि पतंजलि ने कहा कि परिपूर्ण अवस्था में साधक के सामने समस्त संपदाएँ प्रकट होने लगती हैं। प्रश्न किया जा सकता है कि एक साधारण नियम से यह चमत्कार कैसे संभव है। उसी का उत्तर पतंजलि ने यह कहते हुए दिया है कि सिद्धियों के प्रलोभन में व्रत-नियमों का पालन नहीं किया जाए, न ही उनके प्राप्त होने पर ठहर जाया जाए।
स्वामी शिवानंद ने लिखा है कि सिद्धियाँ साधक के विकास में बाधा पहुँचाती हैं। उनके प्रति ललक नहीं रखें। वे मिलें तो भी मुँह फेर लें। जहाँ तक छोटी-सी शुरुआत के बड़े परिणाम मिलने का प्रश्न है, उस संबंध में सचाई यही है कि वे निश्चित ही प्राप्त होते हैं। लक्ष्य कितना ही बड़ा और दूर तक हो, उस तक पहुँचने के लिए आरंभ दो छोटे-से कदम बढ़ाते हुए किया जाता है। अपरिग्रह यदि कोई बहुत बड़ा आदर्श है, तो उस दिशा में पहला कदम प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना है।
दूसरा कदम? यह कदम अपने आसपास के लोगों की सराहना के रूप में है। नियम बना लिया जाए कि जहाँ तक होगा, दूसरों की प्रशंसा करेंगे। मनुष्य गुण-दोषों के मिश्रण से मिलकर बना है। अगर किसी पर ध्यान देने की जरूरत हो तो गुणों पर ही केंद्रित किया जाए। उन्हीं की सराहना करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि दोषों का समर्थन करें, उन्हें भी गुण मानकर सराहें। अपितु व्यावहारिक पक्ष यही है कि दोषों को अनदेखा करें। ध्यान में रखें, सावधानी भी बरतें, उनके प्रभाव से अपना बचाव करें, सिर्फ व्यवहार में उन्हें रेखाँकित नहीं करें। उपेक्षा कर दें।
जिन गुणों की सराहना की जाती है, व्यक्ति उनके विकास के लिए प्रेरित होता है। जिसकी उपेक्षा की जाती है, व्यक्ति स्वयं भी उसे निरर्थक मानकर उनसे छूटने लगता है। कम-से-कम उनके प्रति आकृष्ट होना छोड़ देता है। प्रशंसा से दूसरों में सद्गुणों का विकास उत्कृष्टता के संवर्द्धन की, लोकमंगल साधना का ही हिस्सा है। दोहरा लाभ यह है कि प्रशंसा द्वारा हम अपने आप में भी इन गुणों का विकास करने लगते हैं। दूसरों के प्रति स्नेह-सद्भाव से भर उठते हैं। कम-से-कम परनिंदा और उसके कारण उत्पन्न होने वाले कलुष से तो बच ही जाते हैं। अपरिग्रह के शुद्ध अर्थों में यह नियम सद्गुणों का प्रवाह अविरल करने में सहायक है।
कहा गया है कि परिग्रह पाप नहीं है। आध्यात्मिक अपराध उसमें ममत्व बुद्धि धन-संपदा में ही नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं और विचारों में भी होती है। जिस वस्तु, व्यक्ति या विचार से मोह-ममता का संबंध जोड़ लिया जाता है, व्यक्ति धीरे-धीरे अपना आपा खोकर उसी के अनुरूप होने लगता है। कीट भृंगी, भौंरा पतंगा बनने लगता है और अपना स्वरूप खो बैठता है। मनुष्य का अपना स्वरूप जड़ या स्थावर नहीं है। वह चेतन है। जड़ पदार्थों से मोह-ममता जोड़ लेने के बाद आँतरिक स्थिति भी बदलने लगती है। धन-संपत्ति या अन्य वस्तुओं के प्रति मोहाविष्ट जनों में जीवन के दूसरे पक्ष गौण होने लगते हैं। उसके विकास की संभावनाएँ घटने-सिमटने लगती हैं। उदाहरण के लिए, पदलोलुप व्यक्तियों के मन में असुरक्षा, आशंका और आक्रामकता आ जाती है। उसमें विश्वास और सहिष्णुता का अभाव हो जाता है। धन के प्रति ममत्व बुद्धि रखने वालों का नैतिक, चारित्रिक विकास रुक जाता है। कृपण व्यक्तियों के लिए, मित्र-परिचितों और शुभचिंतकों की संख्या दिनोंदिन घटती जाती है। देखा तो यह भी गया है कि बेहद कंजूस लोगों के घर में संतानें नहीं होतीं। होती भी हैं तो उनकी योग्यता का विकास नहीं होता, क्योंकि उसकी आत्मा संचय और सुरक्षा की चिंता करते-करते कुँठित हो जाती है। दान, उदारता, सहिष्णुता और सराहना के भाव व्यक्ति की आत्मचेतना को विराट् बनाते हैं। फिर ईश्वर की यह समूची सृष्टि ही उसका आँगन और वैभव बन जाती है।