पूर्व आश्रम में गोस्वामी तुलसीदास की आसक्ति प्रसिद्ध है। उन्होंने स्वयं भी स्वीकार किया है और जीवनीकारों ने विस्तार से लिखा है कि तुलसीदास अपनी पत्नी के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते थे। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो गई, एक वैष्णव संन्यासी ने उन्हें पाला-पोसा और वीतराग गुरु से जितना स्नेह-दुलार मिल सकता है, उतना ही पाया। रामकथा कहने लगे, तो पंडितों-विद्वानों ने भी उनका तिरस्कार ही किया। जीवन में प्रेम कभी मिला ही नहीं। विवाह हुआ और संस्कारवान् स्त्री रत्नावली उनकी जीवनसंगिनी बनी, तो जैसे अब तक की सारी रिक्तता भर गई। पत्नी से मिला प्रेम और दुलार तुलसीदास को अवश्य निर्भर बना गया। यह स्थिति बन आई कि रत्नावली के बिना एक दिन भी रहना मुश्किल हो गया।
किंवदंती है या सत्य, लेकिन घटना महत्त्वपूर्ण है। एक दिन रत्नावली अपने मायके चली गई तुलसी उस समय आसपास ही कहीं रामकथा करने गए थे, लौटने में विलंब था। रत्नावली का कुशल-क्षेम पूछने भाई आया, तो सोचा एकाध दिन माता-पिता के पास ही हो आया जाए। कुछ ऐसी स्थिति बनी कि कथा निर्धारित समय से पहले ही पूरी हो गई और तुलसीदास घर लौट आए। देखा पत्नी घर पर नहीं है। उलटे पैर ससुराल दौड़े गए। बरसात के दिन थे, नदी में बाढ़ आ रही थी, तैरना ठीक से आता नहीं था। अँधेरे में कोई चीज तैरती दिखाई दी, उसी का सहारा लेकर उस पार पहुँचे। किनारे लगते वक्त सहारे को ठिकाने लगाया, बादल गरजे और बिजली चमकी तो उसकी रोशनी में देखा कि जिसे सहारा समझा था, वह वृक्ष का तना या लकड़ी का पाट नहीं, एक मुरदा था। कुछ देर के लिए सकपकाए और फिर सँभल गए। ससुर के घर की ओर सरपट दौड़े।
ससुराल में दरवाजा बंद था। चौकीदार रखने का रिवाज उन दिनों नहीं था। परकोटे के भीतर रहने की जगह बनी हुई थी। कुँडी खटखटाई, दरवाजा बजाया और आवाजें भी लगाईं। बरसात का मौसम था, आँधी-तूफान में किसी को सुनाई नहीं दिया। घर के चारों तरफ घूम गए। पीछे की तरफ देखा। छज्जे पर कुछ लटक रहा था। उसे पकड़कर ऊपर चढ़ गए। कहते हैं उसे रस्सी समझा था, असल में वह साँप था। तर्क कहता है कि साँप को पकड़कर कोई झूल नहीं सकता। वह डंस लेगा, हाथ फिसल जाएगा या सांप का शरीर भी टूट सकता है। लेकिन यहाँ तर्क की आवश्यकता नहीं है। तथ्य और संदेश महत्त्वपूर्ण हैं। तथ्य यह है कि तुलसीदास विरह-वेदना से दग्ध थे। साँप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए। रत्नावली तक पहुँचे। पत्नी अपने पति के अनुराग को समझती थी, लेकिन इतने दीवाने होंगे, यह सोचा नहीं था। देखकर प्रसन्न हुई और साथ ही उलाहना भी दिया कि मेरे प्रति इतना राग है। यही प्रीति कदाचित् भगवान् के प्रति होती, तो संसार का भी भला होता व उनका अपना भी। रत्नावली के ये भाव एक दोहे के रूप में प्रसिद्ध हैं-
अस्थि चर्ममय देह, तामैं ऐसी प्रीति। होति जो श्रीराम महँ, तो काहे की भव भीति॥
कहते हैं कि इन पंक्तियों ने तुलसीदास को जगा दिया। वे उलटे पाँव लौटे और फिर कभी गृहस्थ की ओर मुड़कर नहीं देखा। वाराणसी में जब वे कुटिया बनाकर रहने लगे थे, तो रत्नावली भी वहाँ आई थी। उनके द्वार पर ही शेष जीवन व्यतीत कर दिया। पति के सामने ही शरीर छोड़ा। जितने समय वहाँ रहीं, अपने आपको धन्य अनुभव करती रहीं कि संसार को भक्तिभाव में डूबने का संदेश देने वाला पति मिला। पति ने भले ही पीछे मुड़कर नहीं देखा हो, पर पत्नी भावनाएँ भगवान् में ही केंद्रित कर देने वाले पति को दूर से देखकर भी कृतकृत्य हो जाया करती थी।
भावनाओं का केंद्र हृदय माना गया है। वह हृदय नहीं जो सीने के मध्य भाग में धड़कता हुआ एक माँसपिंड है और पूरे शरीर में रक्त फेंकता है। जिस हृदय को भावनाओं का केंद्र बताया गया है। उसे योगशास्त्रों में ऊर्जा के एक भँवर की तरह निरूपित किया गया है। इस भँवर में उलझकर मनुष्य अपना व्यक्तित्व खो देता है। बुद्धि और विचार वहाँ मौन हो जाते हैं, युक्ति और तर्क का कोई महत्त्व नहीं रह जाता और दूसरों को दो कौड़ी की दिखाई देने वाली चीजें भी संसार में सब से ज्यादा मूल्यवान् दिखाई देने लगती हैं। देश, समाज, उद्देश्य, इष्ट, प्रियपात्र और अनुकूल विषयों में मन जब रमने लगता है, तो कितना ही विचार और तर्क करें, वह विमुख होता ही नहीं। विचार की दृष्टि से देखें, तो देश, समाज या किसी बड़े उद्देश्य के लिए मर मिटने में कोई समझदारी नहीं दीखती। फिर भी लोग अपने सुख विलास को छोड़कर आगे आते हैं, अपना उत्सर्ग कर देते हैं, खुशी-खुशी मर मिटते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने एक जिज्ञासु का समाधान करते हुए साधकों की कक्षा में कहा था, “सावधान! भाव संपदा को लौकिक प्रयोजनों या प्रपंचों में बरबाद मत करना। यह संपदा सिर्फ भगवान् के लिए ही है।” लोग सिर्फ इसलिए दुःखी होते हैं कि भगवान् के प्रति समर्पण का भाव उठने पर विचार और तर्क करने लगते हैं, जबकि वहाँ भावना से काम लेना चाहिए। दूसरी तरफ लौकिक प्रपंचों में भावुक हो उठते हैं, जबकि वहाँ समझ और विवेक का उपयोग करना चाहिए। प्रश्न यह था कि निजी जीवन में भावशून्य दिखाई देने वाले भजन-कीर्तन में .... क्यों हो उठते हैं? भावुकता प्रायः दुःख का कारण बनती है। ईश्वर के प्रति वह जागती है, तो भी क्लेश ही होता है। क्या यह स्थिति से बचा नहीं जा सकता?
भावना है तो वे जागेंगी ही। उन्हें रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण अनिवार्य रूप से आते हैं, जब भावों का ज्वार उमड़ने लगता है। कुछ लोग उन्हें व्यक्त कर लेते हैं और कुछ भीतर-ही-भीतर पी जाते हैं। कुछ लोग एक सुँदर फूल देखते हैं, उसे समझते और बौद्धिक स्तर पर स्वीकार भी करते हैं, लेकिन मन में उससे कोई स्फुरणा नहीं आती। सुहानी सुबह, प्रकृति का रम्य वातावरण, मासूम बच्चे, कला-कौशल का प्रदर्शन, सुँदर और स्निग्ध व्यक्तित्व, अनुकरण करने योग्य सत्कार्य देखकर उनमें उल्लास नहीं जगता। कारण यह नहीं है कि वे भावशून्य होते हैं, बल्कि कारण यह है कि उनका हृदय द्वार बंद रहता है और जब मुस्कराने का अवसर आता है, तो वे उसके लाभ-हानि का हिसाब लगाने बैठ जाते हैं।
एक अन्य स्थिति में साधारण अप्रिय प्रसंगों पर भी लोगों के मन में रोष, विषाद, हताशा और उन्मत्त भाव प्रकट होने लगते हैं। कष्ट के समय वे इतने विचलित हो जाते हैं कि उसके निवारण का उपाय सोचने के बजाय विलाप करने लगते हैं। ऐसे लोगों को भावनात्मक दृष्टि से दुर्बल कहा गया है। भावशून्यता और भाव दौर्बल्य दोनों ही दोष हैं। उनके निवारण का एक ही उपाय है कि जहाँ बुद्धि का उपयोग किया जाना चाहिए, वहाँ भाव संपदा को नहीं लगाएँ, जहाँ भावनाएँ समर्पित करनी चाहिए, वहाँ बुद्धि का प्रयोग न करें।
बुद्धि का उपयोग कहाँ आवश्यक नहीं है? भगवान् के प्रति अपने आपको खोलते हुए विचार और तर्क में नहीं उलझना चाहिए। ध्यान, प्रार्थना, भजन, कीर्तन और सत्संग आदि साधनों में जिस किसी का भी अभ्यास हो, बुद्धि का उपयोग व्यर्थ मालूम देगा। ईश्वर के सामने स्वयं को किसी भी रूप में प्रस्तुत करते हुए श्रद्धाभाव की ही अपेक्षा की गई है। बौद्धिक स्तर पर ईश्वरीय सत्ता, उसकी प्रेरणा, संसार और सिद्धाँतों का विवेचन किया जा सकता है, लेकिन जब साधना क्षेत्र में उतरना हो तो बौद्धिक ऊहापोह को एक तरफ छोड़ दिया जाता है, भावनाएँ ही नियोजित की जाती हैं।
ध्यान और भजन के समय भावनाएँ आपने आप उमड़ने लगती हैं। देखा गया है कि इन प्रक्रियाओं को अपनाने पर साधकों की आँखें अपने आप सजल हो उठती हैं। कितनी ही दमित भावनाएँ उभर आती हैं। भावशून्य और तर्क या विचार के सहारे चलने वाले व्यक्ति सत्संग में अथवा गुरुसत्ता के सामने उपस्थित होने पर भावनाओं का विस्फोट होता अनुभव करते हैं। ध्यान आँदोलन के प्रचार में वर्षों से जुटी संस्था विवेक आश्रम के संयोजक स्वामी अनंतानंद ने अपने अनुभव लिखे हैं। उनके अनुसार ध्यान-सत्संग में आने वाले साधकों को वर्णनातीत आनंद की अनुभूति होती है। उनकी दमित भावनाएँ हिलोरें लेने लगती हैं। खासतौर पर कीर्तन में और ध्यान के सामूहिक अभ्यासों के समय लोग अपने आप को रोक नहीं पाते। वे सुबकते हैं, चीखते हैं, शरीर थरथराने लगता है और कई साधक गिर जाते हैं। सामान्य क्रम में यह स्थिति पीड़ा और भय का कारण बनती है, लेकिन साधना के क्षेत्र में यह तीव्र आवेग मात्र है। जब भावनाओं का ज्वार उठता है, तो मूलाधार चक्र सक्रिय हो जाता है अथवा किसी और नाड़ी में ऊर्जा प्रवाह दौड़ने लगता है।
कुछ समय के आवेग के बाद भावनाओं का विरेचन हो जाता है और वे संतुलित होने लगती हैं। भक्तों के जीवन में इनका आवेग प्रायः देखा गया है, लेकिन उनमें लय और संतुलन होता है। मीरा के अंतर्जगत् में भक्ति का आवेग होता था, तो वे नृत्य करने लगती थीं। उनके कंठ से गीत निकलने लगते थे। वे कोई बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन उनके रचे पद साहित्य में उच्च कोटि का स्थान रखते हैं। उनके लौकिक जीवन में, पारिवारिक या सामाजिक जीवन में भाव संवेदनाएँ शायद ही व्यक्त हुई हैं, लेकिन कृष्ण का नाम सुनते ही वे विभोर हो उठती थीं।
मीरा स्वभाव से ही कृष्ण के प्रति समर्पण भाव से भावित थीं। तुलसीदास के जीवन में भगवान् के प्रति समर्पित होने की घटना एक साधारण घटना से आई। वे भगवद्भाव से आविष्ट हो गए, तो जीवन के सब दुःख, कष्ट और अभाव जाते रहे। कठिन परिस्थितियों में भी उनके मन में दैन्य की भावना नहीं आई। सूरदास को कुछ लोग जन्माँध मानते हैं, लेकिन बहुत से समीक्षकों की मान्यता है कि उनके नेत्रों की ज्योति बाद में गई। अपनी रचनाओं में उन्होंने भावों और लौकिक क्रियाओं की जैसी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की है, वह जन्म से अंधा व्यक्ति कर ही नहीं सकता। उदाहरण के लिए, मक्खी के गुड़ में लिपट जाने और किसी स्थान पर बैठ जाने के बाद पीछे के दो पाँव उठाकर रगड़ने की बारीकी बिना देखे समझी ही नहीं जा सकती। सूरदास जन्म से अंधे नहीं रहे होंगे। जीवनीकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि एक स्त्री के प्रति आकर्षित होने और उसकी तीव्र लताड़ सुनने के बाद वे क्षुब्ध हो गए थे। उस दुत्कार में भगवान् के प्रति उन्मुख होने का संकेत था। सूरदास ने क्षुब्ध होकर किया होगा, लेकिन वस्तुतः उनके जीवन में क्राँति आई। उन्होंने इस निश्चय के साथ अपनी आँखें फोड़ लीं कि अब दृष्टि सिर्फ अपने भीतर बैठे भगवान् की रूप-माधुरी का रसपान ही करेगी।
लौकिक जीवन में भावनाओं को लेकर प्रौढ़-परिपक्व रहना चाहिए। श्रीकृष्ण भावामृत संघ (इस्कान) के संस्थापक स्वामी भक्ति वेदाँत ने अपना अनुभव लिखा है, “प्रारंभ से ही मुझ पर भावनाओं की प्रतिक्रिया नहीं के बराबर होती है। अपने किसी घनिष्ठ संबंधी की मृत्यु होने पर दुःख नहीं होता। उसके संबंधियों को संवेदना का एक पत्र लिख देता हूँ, जिसमें दुःखी नहीं होने का अनुरोध रहता है। बहुत से साधक हैं, जो किसी भी विपत्ति या दुर्घटना से विचलित नहीं होते। परिस्थितियों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन वे लोग भगवत्कथा सुनते हुए कुछ प्रसंग आने पर फूट-फूटकर रोने लगते हैं। कथा-प्रसंगों में मैं स्वयं भी अपनी भावनाओं को हिलोरें लेने से रोक नहीं पाता। उस अवसर का रुदन और विलाप भी शाँति प्रदान करता है।”
स्वामी भक्ति वेदाँत के ही एक शिष्य स्वामी राधारमणदास ने लिख है कि साधन-भजन के अलावा सभी अवसरों पर केवल बुद्धि का प्रयोग करें, तो पाएँगे कि जीवन की हर परिस्थिति से निपट सकोगे। वहाँ भावनाओं का प्रयोग व्यर्थ और अपव्ययमूलक है। एक छोटी-सी स्थिति की कल्पना कीजिए कि रसोईघर में एक चूहा उपद्रव कर रहा है। उससे छुटकारा पाना चाहते हैं। क्या आप उसे मारने के लिए मशीनगन का प्रयोग करेंगे। नहीं .... एक मामूली-सा पिंजड़ा लाकर रख देंगे, उसमें रोटी का टुकड़ा लटका देंगे, युक्ति लगाएँगे और इस तरह चूहे से छुटकारा पा लेंगे। यही बात साँसारिक प्रपंचों पर भी लागू होगी। उनके लिए भावुक होना समझदारी नहीं है। साँसारिक संबंध अनित्य हैं। व्यवहार भी आते-जाते रहते हैं। उन्हें इतना घनिष्ठ या स्थायी मत बनाइए कि वे भावनाओं तक पहुँच जाएँ। यह दिव्य संपदा सिर्फ ईश्वर भक्ति और उच्च आध्यात्मिक अनुभवों के लिए ही सुरक्षित रखो। उस दशा में जब भी अवसर आएगा, तो भावनाएँ दिव्य अनुभवों के लिए वाहन और यंत्र का काम करेंगी। वे उच्च आध्यात्मिक शक्तियों को मार्ग देंगी।
कुछ साधकों को शिकायत रहती है कि वे बहुत परिश्रम करते हैं, फिर भी उन्हें अनुभूति नहीं होती। इसका एक ही कारण है। अनुभूति का क्षेत्र भावलोक है। वह क्षुद्र प्रयोजनों या लौकिक व्यवहार में ही व्यस्त है। जिस क्षेत्र में भागवत् भाव उतरना चाहिए, उसे लौकिक भीड़ से घेर रखा है और भगवान् के लिए दूसरा क्षेत्र छोड़ दिया है। जिस क्षेत्र में अवतरण होना है, वह खाली ही नहीं है। विमानतल पर मोटरगाड़ियाँ खड़ी कर दी जाएँ और हवाई जहाज बस अड्डों पर उतारने की कोशिश करें, तो यह कभी संभव नहीं होगा। एक अन्य उदाहरण से यों भी समझाया गया है कि गलत पता लिखा हुआ लिफाफा सही व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता। सही पता यह है कि भावनाएँ सिर्फ भगवान् के लिए और बुद्धि व्यवहार क्षेत्र के लिए। भाव जगत् में कूड़ा-कबाड़ इकट्ठा कर लिया है, तो साधना के क्षेत्र में हताशा, उदासी, खिन्न भाव और अंत में अरुचि ही हाथ लगेगी। बुद्धि का प्रयोग करने पर बहुत हुआ, तो ईश्वर के प्रति कुछ विचित्र और हास्यास्पद लगने वाली धारणाएँ बन जाएँगी, वे धारणाएँ बनती-बिगड़ती रहेंगी। आती-जाती रहने वाली छायाओं की तरह वे कोई प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकेंगी। एक दिन साधन-भजन छोड़कर आप भगवान् की खिल्ली उड़ाते देखे जाएँगे।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि साँसारिक घटनाओं के संबंध में प्रतिक्रियाओं से शून्य और शाँत रहा जाए। भजन-साधन में वह सारी क्षमता झोंक दी जाए। निर्दोष शिशु की तरह भागवत् कार्यों में हिस्सा लें। वहाँ से संसार में लौटें तो नेतृत्व बुद्धि के हाथों सौंप दें। भावनाओं को पीछे बैठा रहने दें। मंदिरों में लोग नंगे पाँव खुद चलकर जाते हैं। पूजा-पाठ, सेवा, समर्पण, दक्षिणा, प्रसाद आदि कृत्य अपने ही हाथों से संपन्न करते हैं। मंदिर से बाहर आते ही वे आवश्यक कार्य दूसरों के भरोसे या सेवकों के जिम्मे छोड़ देते हैं, अपने अस्तित्व को भावप्रधान बनाएँ तो भगवान् के कार्यों में उसे ही नेतृत्व करने दें। बुद्धि सेवक सहायक है। उसे दुनिया के लिए ही रहने दें।