जीवन भर कर्म में विश्वास रखने वाले बाल गंगाधर तिलक को जब अँग्रेजों द्वारा जेल में बंद कर दिया गया, तो उनने वहाँ भी ‘गीता रहस्य’ लिख डाला। परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी ज्ञान व भक्ति की समन्वित धारा पर ऐसी विस्तृत समीक्षा युक्त विवेचना जेल में लिखी जाना उनकी आँतरिक परिपक्वता का ही चिह्न है।
अंतः से जब प्रभु के प्रति समर्पण का उल्लास फूटता है, तो वह यह स्वरूप भी ले लेता है और जब देशभक्ति के रूप में निकलता है, तो भगतसिंह आजाद जैसे फाँसी पर चढ़ जाने वाले वीर-बलिदानियों के त्याग-उत्सर्ग का स्वरूप ले लेता है। हैं ये सब विकास के क्रमिक सोपान व उनकी बाह्य अभिव्यक्तियाँ ही।