काल के आयाम से जुड़ी अलौकिकताएँ

January 2001

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देह और चेतना एक-दूसरे से इस प्रकार गुँथी हुई हैं कि साधारण स्थिति में उन दोनों का पृथक्करण प्रायः असंभव बना रहता है, पर कई बार असाधारण परिस्थितियों में जब काया का बंधन ढीला होता है, तो आत्मचेतना वर्तमान कालखंड से किसी दूसरे में प्रवेश कर वहाँ की गतिविधियों, घटनाओं, व्यक्तियों को ठीक उसी प्रकार देखती है, मानो सब कुछ अपनी आँखों के आगे घटित हो रहा हो, जबकि सचाई यह है कि वह वर्षों पूर्व का प्रसंग होता है। विज्ञानवेत्ताओं ने इस प्रक्रिया को ‘टाइम स्लीप-काल सर्पण’ की संज्ञा दी है।

ऐसी ही एक घटना का उल्लेख काँलिन विल्सन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘बियोण्ड दि अकल्ट’ में किया है। ‘डाउन दि रैबिट हाँल’ नामक अध्याय में इसकी चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि उक्त प्रकरण मूर्द्धन्य इतिहासकार आरनोल्ड टायनबी के साथ उस समय घटित हुआ, जब वे 10 जनवरी सन् 1912 को ग्रीस के एक किले की मुँडेर पर बैठे सामने के मैदान पर दृष्टिपात कर रहे थे और 197 वर्ष ईसा पूर्व हुए युद्ध के बारे में सोच रहे थे। अचानक उनकी आँखों के आगे का दृश्य बदलने लगा। वहाँ बिखरी धूप के बदले अब धुँध दिखाई पड़ने लगी। आमने-सामने दो सेनाएँ आक्रमण-प्रत्याक्रमण के घात-प्रतिघात में मुस्तैद थीं। एक ओर की पहाड़ी पर रोमन सेनाएँ मोरचा सँभाले हुए थीं, जबकि प्रतिपक्ष में मैसोडोनिया के फिलिप्स पंचम् की सेनाएँ थीं। दोनों में जबरदस्त भिड़ंत चल रही थी। वे एक-दूसरे को परास्त कर आगे बढ़ जाने के लिए उतावली थीं। इसी बीच कुहरा छँटा। रोमन सेनाएँ कमजोर पड़ने लगीं और अंत में आत्मसमर्पण कर दिया। मैसोडोनियन सेना का एक जत्था रोमन टुकड़ी को पहाड़ी के नीचे की ओर ले जाता दिखलाई पड़ा। ऐसा करते समय उन दोनों के बीच एक खतरनाक फासला पैदा हो गया, जिसका लाभ उठाकर रोमन अधिकारियों ने पीछे मुड़कर उन पर आक्रमण कर दिया। इस समय अधिकाँश रोमन सिपाही निहत्थे थे। वे अपने हथियार समर्पण के समय फेंक चुके थे, किंतु इस बार शत्रु सेनाओं ने उन्हें नहीं बख्शा और गाजर-मूली की तरह काट दिया। दृश्य इतना स्पष्ट था कि टायनबी विचलित हो उठे। वे उस कत्लेआम को और अधिक देखने का साहस नहीं जुटा सके और दृष्टि फेर ली। दूसरी ओर उन्हें कुछ अश्वारोही सिपाही दीख पड़े। वे सैकड़ों वर्ष पूर्व पहनी जाने वाली मैसोडोनियन पोशाक में थे। इस मध्य पुनः एक बार परिदृश्य बदला। अब वहाँ केवल सपाट मैदान था, जिसमें प्रखर धूप खिली हुई थी। वहाँ न कोई लाश थी, न युद्ध का कोई चिह्न। स्पष्ट है, टायनबी विगत के कालखंड में प्रवेश कर वहाँ हुई लड़ाई की झाँकी देख रहे थे।

महान् पर्वतारोही फ्रैंक एल. स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘दि माउंटेन विजन’ में ऐसी एक विवरण प्रस्तुत किया है। वे एक बार दिन के समय मोरविक से लोकडुइक तक स्कोटिश पहाड़ियों को पार कर रहे थे। धूप प्रखर थी। दूरस्थ सागर का नीला जल और पर्वतमालाओं की हरियाली दोनों मिलकर ऐसा लुभावना दृश्य उपस्थित कर रहे थे, जो मन को मोहने वाला था। वे चले जा रहे थे, तभी उन्हें कुछ असाधारण अनुभव हुआ। उन्हें लगा जैसे यहाँ का आभामंडल सामान्य नहीं, विकारयुक्त है। उसमें कुछ ऐसे अनिष्टकारी तत्त्व घुले हुए हैं, जो मनुष्य को, उसके चिंतन और व्यवहार को गहरे प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे वातावरण में रुकना उचित नहीं, यह सोचकर पहले तो वे वहाँ से तुरंत प्रस्थान करने का मन बनाने लगे। पीछे उनने इसकी सत्यता परखनी चाही और वहाँ के निषेधात्मक आभा की तीक्ष्णता का अनुमान लगाने के लिए रुक गए। उन्हें ऐसी क्षमता प्राप्त थी कि वे शीघ्र ही एकाग्रचित होकर अतींद्रिय स्थिति में पहुँच जाते थे। उनने मस्तिष्क को पूरी तरह विचार शून्य किया और सामने की ओर देखने लगे। वहाँ एक लोमहर्षक दृश्य फिल्म की तरह प्रकट हुआ। लगभग बीस स्त्री, पुरुष और बच्चे परस्पर संघर्ष कर रहे थे। उनके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था, जैसे वे बहुत थके हुए हों। लंबी यात्रा के उपराँत सब वहाँ पहुँचे तथा किसी कारण को लेकर भिड़ पड़े। देखते-ही-देखते सभी ने एक-दूसरे के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्र उठा लिए। भाले, बरछे, बल्लमों के प्रहार से वहाँ की धरती रक्तरंजित हो उठी। इस संघर्ष में कोई भी जीवित न बचा और संपूर्ण युद्धस्थल शवों से पट गया। इस हृदय-विदारक दृश्य को देखकर उनका मन विचलित हो उठा। वे वहाँ से चल पड़े।

बाद में ‘स्काँट्समैन’ नामक पत्रिका में उनकी उक्त पुस्तक की समालोचना के साथ एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उनने दो और ऐसी ही घटनाओं का वर्णन किया था। एक अलौकिक दर्शन सन् 1715 में ग्लीन ग्लोमेक के निकट सड़क पर हुआ तथा दूसरा सन् 1745 में। दोनों ही दृश्य संघर्ष के थे।

ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा करते हुए आरनोल्ड टायनबी अपनी रचना ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ भाग दस में लिखते हैं कि जब वे एफीसस के एक नाट्यगृह के खंडहर में बैठे हुए थे, तो अचानक ही खाली नाट्यशाला में दर्शकों की भारी भीड़ दिखाई पड़ने लगी। लोग तेजी से इधर-से-उधर आ-जा रहे थे। उनमें आपस में बातें भी हो रही थीं। उनके पहनावे वर्तमानकालीन नहीं थे। उनने जो टोपियाँ पहन रखी थीं, वे लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व प्रचलन में थीं। उनकी बात-चीत उन्हें स्पष्ट कर्णगोचर हो रही थीं, पर वह शैली आज की नहीं थी। उसमें स्फुट परिवर्तन प्रतीत हो रहा था। सामने सुसज्जित मंच था। उसके एक किनारे कुछ वाद्य यंत्र रखे थे। कुछ व्यक्ति उनसे छेड़छाड़ करते दीख रहे थे। शायद वे उन्हें स्वरों से मिला रहे थे। तभी अचानक परदा गिर गया। कुछ क्षण पश्चात् जब वह दुबारा उठा, तो नाट्य मंच पर एक नृत्याँगना विराजमान थी। पहले उसने दर्शकों से कुछ कहा, जो टायनबी को सुनाई नहीं पड़ा। बाद में उसने आगे-पीछे, दायें-बायें घूमकर एक विशिष्ट मुद्रा में हाथ फैलाए। कदाचित् कार्यक्रम शुरू करने से पूर्व तब की यह कोई परंपरा थी। तत्पश्चात् नृत्य प्रारंभ हुआ। उसने जो लास्य प्रस्तुत किया, वह आकर्षक और मनमोहक था। उसके पाँवों की थिरकन और अंगों की लोच-लचक दर्शनीय थी। नृत्य और संगीत का वह संगम इतना अद्भुत था कि सभी मंत्रमुग्ध हो उसे देख रहे थे, तभी नेपथ्य में शोरगुल सुनाई पड़ा। वहाँ से आग की लपटें उठ रही थीं। लोग चीखते-चिल्लाते इधर-उधर दौड़ रहे थे। दर्शकों में भी भगदड़ मच गई। इसी समय टायनबी की तंद्रा टूटी। उनने इतस्ततः देखा। वहाँ न तो आग थी, न दर्शक। वे एफीसस के भग्नावशेष के मध पूर्ववत् बैठे हुए थे। बाद में वहाँ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि उक्त नाट्यशाला की तबाही में कार्यक्रम के दौरान लगी आग की ही भूमिका थी। वे उस जीवंत दृश्य को सैकड़ों वर्ष बाद भी ज्यों-का-त्यों घटित होते देख रहे थे। ऐसा ‘टाइम स्लीप’ के कारण ही संभव हो सका।

उसी ग्रंथ में एक अन्य घटना का बखान करते हुए वे लिखते हैं कि तब वे ग्रीस भ्रमण पर थे, तब उनकी आयु मात्र तेईस वर्ष की थी। उन्हें इतिहास संबंधी जानकारियों में उन दिनों गहरी रुचि थी, इसलिए वे सनक स्तर पर यहाँ-वहाँ घूमा करते थे। इस क्रम में एक बार वे क्रीट स्थित एक पर्व शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ ‘वारुकविला’ का भग्नावशेष मौजूद था। उसका निर्माण तीन शताब्दी पूर्व वेनिस के गवर्नर के लिए शायद किया गया था। उसे खड़े-खड़े अभी निहार ही रहे थे कि उन्हें रोमाँच होने लगा और वे अर्द्ध चेतना जैसी स्थिति में पहुँच गए। अब वहाँ एक भव्य महल दीख रहा था। भवन के दरबान पहरेदारी में मुस्तैद थे। अंदर चहल-पहल थी। कई अभिजात्य लोग परस्पर, बातचीत में संलग्न थे। ऐसा लग रहा था, मानो कोई समारोह हो। इसी बीच वहाँ एक दुर्घटना घट गई। प्रहरी के पेट में एक आगंतुक ने किसी शस्त्र से प्रहार कर दिया। वह गिर पड़ा। रक्त का फव्वारा फूट निकला। कुछ ही देर में उसकी मृत्यु हो गई। दृश्य इतना भयावह था कि टायनबी की अर्द्ध मूर्च्छा भंग हो गई। सामने वही भग्न भवन खड़ा था। इसके अतिरिक्त वहाँ कोई भी न था।

यह तो किन्हीं-किन्हीं के साथ यदा-कदा घटने वाली आकस्मिक घटनाएँ हैं। इन्हें साधारण नहीं कहा जा सकता। साधारण वह है, जो सर्वसुलभ हो, जिसे हर एक सफलतापूर्वक संपन्न कर सके। इस स्थिति को योग विज्ञान द्वारा ही उपलब्ध किया जा सकता है। इससे जब चेतना को परिमार्जित-परिष्कृत करके प्रखर बनाया जाता है, तब वह इससे भी अनेक गुना अधिक विस्मयकारी परिणाम प्रस्तुत करती है, इसलिए प्रत्येक को इस परिमार्जन की ओर ही ध्यान देना चाहिए। इतने से ही उस अलौकिकता को हस्तगत किया जा सकता है, जिसे साधारण स्थिति और अवस्था में चमत्कार कहकर पुकारते भर रहते हैं।


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