कलकत्ता में जन्मे के.सी.डे की आँखें डेढ़ वर्ष की उम्र में चली गईं। पाँच वर्ष के थे तब पिता मर गए। विधवा माता ने उन्हें थोड़ा-बहुत स्वयं ही पढ़ाया। वे मजूरी करने जातीं, तो डे को साथ ले जातीं। वे बच्चे के भविष्य के बारे में चिंतित तो रहतीं, पर धैर्य नहीं खोया। उन्हें स्कूली शिक्षा के स्थान पर सुसंस्कारिता, स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया। संगीत में पुत्र की अभिरुचि को देखकर उन्होंने उसे वैसा ही शिक्षण देने की सुविधा जुटा दी। स्वयं मेहनत करके पुत्र के लिए साधन जुटातीं। अपने लिए वे सदैव ‘डे’ से कहा करतीं, “मेरे लिए चिंता न करो। अपने पैरों स्वयं ही खड़ा होने का प्रयास करो।” डे ने कई संगीतकारों से उनकी सेवा करते हुए शिक्षा पाई। युवा होने से पहले ही उन्होंने संगीत में प्रवीणता प्राप्त कर ली। टूटे-फूटे वाद्य यंत्रों के सहारे घर पर अभ्यास करते रहते।
कुछ दिनों में उनकी ख्याति सर्वत्र फैली। छोटे-छोटे संगीत सम्मेलनों के बाद उन्हें फिल्म कंपनियों ने बुलाया। अनवरत अभ्यास ने उनका कंठ भी निखार दिया था। एक-एक करके उनने प्रायः एक दर्जन गाने फिल्मों में पार्श्व गायक के रूप में गाए। कभी अभिनय करना पड़ा, तो अपनी सादी पोशाक में कैमरे के सामने आए थे। बनावट से उन्हें चिढ़ थी।
भारत के गायकों में फिल्म जगत् पर अपना आधिपत्य जमाने वाले एक ही थे, के.सी.डे। जिन फिल्मों के साथ उनका नाम जुड़ा होता, उसे देखने दर्शकों की भीड़ टूट पड़ती। वे सदैव इस यश का श्रेय अपनी माँ को देते रहे। अंतिम समय तक उनकी सेवा भी खूब की।