एक भिक्षुक किसी सद्गृहस्थ के दरवाजे पर भिक्षा की याचना कर रहा था। पुत्रवधू ने उसे यत्किंचित् देते हुए कहा, हमारे पास कुछ कमाई नहीं है, दे कहाँ से ? भिक्षुक ने कहा, फिर आप लोग खाते क्या हैं ? वासी--बूसा जो भी पड़ा है, उसी को खा-पीकर काम चलाते हैं। भिक्षुक ने कहा, जब यह वासी-बुसा समाप्त हो जाएगा, तो क्या करोगे ? पुत्रवधू बोली, तब हम लोग आप की तरह मांगेंगे-खाएँगे। भीतर बैठा श्वसुर सब सुन रहा था। वधू पर बहुत क्रोध किया और कहा, भिक्षुक के सम्मुख हमारी बदनामी कराती है।
पुत्रवधू बड़ी शीलवान थी। उसने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, घर में जो-जो संपदा है, वो आपके पूर्व संचित पुण्यों के फलस्वरूप है। उसी को पूरा परिवार खा रहा है। यह वासी-बुसा नहीं है तो क्या है ? नया पुण्य न करने के बाद में हमें भिक्षुक की तरह माँगना खाना पड़ेगा। श्वसुर की आंखें खुल गई। उसने दान पुण्य करके भविष्य उज्ज्वल बनाने की नीति अपनाई।