कहीं ऐसा न हो कि गंगा विलुप्त ही हो जाए

July 2000

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गंगा प्राचीनकाल से ही करोड़ों लोगों की आस्था, भक्ति एवं प्रेरणा का स्त्रोत रही है। ऋषियों, मुनियों एवं तपस्वियों को अपने अध्यात्मचिंतन और तप-साधना के लिए सदैव इसी का तट अभीष्ट रहा है। इसी के किनारे साँसारिक ताप से पीड़ित, मानवता को शाँति-मुक्ति देने वाले प्रमुख तीर्थों का निर्माण हुआ इसी के आँचल में देव-संस्कृति का विकास हुआ और सभ्यताएँ फली-फूली। इसके जल को अमृत की संज्ञा दी गई। सुविख्यात वैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों से इसकी अलौकिक विशेषता की पुष्टि की। भारतवासियों के साथ विदेशियों ने भी इसकी श्रेष्ठता को आश्चर्य विभोर होकर स्वीकारा। भारतीय संस्कारों, इतिहास एवं संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ी गंगा ऋग्वेद से लेकर गंगालहरी तक हर ग्रंथ में महिमान्वित होती आई है। लेकिन आज प्रगति की अंधी दौड़ में अपने संस्कारों से च्युत, अपनी संस्कृति से भूली-भटकी संतानों ने गंगा मैया को जिस दुर्दशाजन्य स्थिति में ला फेंका है, वह न केवल गंगा नदी के अस्तित्वजन्य खतरे का संकेत दे रही है, बल्कि भारतीय संस्कृति के लिए भी खतरे का संकेत दे रही है।

पौराणिक आख्यान के अनुसार स्वर्ग से गंगा का धरती पर अवतरण विशेष प्रयोजन से हुआ था। इस आख्यान के अनुसार गजा सगर के साठ हजार पुत्र अपने कुकर्मों की आग में जल रहे थे। उनकी कष्टनिवृत्ति गंगाजल से ही हो सकती थी। सगर के वंशज भगीरथ के कार तप एवं पुरुषार्थ से गंगा धरती पर आई। सगरपुत्र इसके शीतल अभिसिंचन से ताप मुक्त हुए, साथ ही असंख्यों के लिए गंगा जीवनदायिनी माँ बनी। अपनी इस अनुपम महिमा के कारण गीता, गायत्री, गौ एवं हिमालय की ही तरह गाँग भी भारतीय संस्कृति के आधारस्तंभों में से एक है। इसके बिना भारतीय संस्कृति एवं इतिहास की कल्पना दुष्कर है। महाभारत की कहानी गंगामाता से आरंभ होती है। गंगा वट पर स्थित बिठूर में रहकर महर्षि वाल्मीकि ने महाग्रंथ रामायण की रचना की थी। सम्राट अशोक, विक्रमादित्य, हर्षवर्धन से लेकर तात्याटोपे आदि के जीवन की अनेकों ऐतिहासिक घटनाएँ गंगातट से जुड़ी रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता एवं एक के बाद एक राजवंश बदलने के बावजूद गंगा किनारे बसे शहर व्यापार, शिल्प एवं संस्कृति के लिए विश्वविख्यात रहे हैं।

गंगा का धार्मिक महत्व जितना है, विश्व में शायद किसी भी नदी का नहीं है। यही विश्व की एकमात्र नदी है, जिसे माता के नाम से पुकारा जाता है। गीता में भगवान् श्रीराम ने ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवी’ अर्थात् जल स्रोतों में मैं जाह्नवी (गंगा) हूँ, कहकर इसे अपना स्वरूप बताया है। गंगा का महिमागान करते हुए शास्त्र कहते है-

गंगा गंगेति यो ब्रूयात, योजनाम् शनैरपि। मुन्यते सर्वपापेभ्यो, विष्णुलोके सः गच्छति॥

अर्थात् “जो गंगा का सैंकड़ों योजन दूर से भी स्मरण करता है, उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।”

धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्ता के अतिरिक्त गंगा के किनारे अनेक सुरम्य स्थल है। कृषि की सिंचाई के साथ देश की आर्थिक समृद्धि में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। भारतवर्ष में बहने वाली नदियों में तो यह सबसे बड़ी उद्गम गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक यह 2071 कि.मी. का सफर तय करती है। इसका प्रवाह क्षेत्र 471502 वर्ग कि.मी. में फैला है। देश की सिंचित भूमि का 40 प्रतिशत इसी से सिंचित है। 37 प्रतिशत जनता इसके बेसिन में निवास करती है।

गंगा की विशिष्टता एवं इसके प्रति आस्था केवल भारत तक ही सीमित रही हो, ऐसी बात नहीं है। वर्जिल व दाँते जैसे महान् पश्चिमी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में गंगा का उल्लेख किया है। सिकंदर महान् तो गंगा के सम्मोहन में बंध ही गया था। अमेरिका को खोजने वाला कोलंबस गंगा की तलाश में भटकते हुए मार्ग में खो बैठा था। प्रख्यात इतिहास लेखक अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘आइने अकबरी’ में लिखा है कि बादशाह अकबर पीने के लिए गंगाजल ही प्रयोग में लाते थे। इस जल को वह अमृत कहते थे। हिमालय विजेता एडमंड हिलेरी ने गंगासार से गंगोत्री तक के धरती से सागर तक अभियान की देव-प्रयाग में समाप्ति पर गंगा को ‘तपस्विनी’ संज्ञा दी थी। उसने कहा था कि गंगाजल मात्र साधारण जल नहीं है। इतिहासकार ‘शारदा रानी’ ने मंगोलया यात्रा राजा का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहाँ के निवासियों ने उन्हें गंगादेश से आई हुई महिला कहकर साष्टाँग प्रणाम किया।

अगणित जनों की श्रद्धा का केंद्र होने के साथ देश को समृद्धि एवं वैभव प्रदान करने वाली गंगामाता अपनी संतानों का पाप धोते-धोते स्वयं विषैली होती जा रही है। जिसका जल कभी उद्गम स्थल से सागरपर्यंत शुद्ध एवं निर्मल रहता था, आज मार्ग के प्राथमिक पड़ावों में ही प्रदूषित हो रहा है। जिसके औषधीय गुण एवं शोधक-क्षमता को देखकर वैज्ञानिकों से लेकर विदेशी तक आश्चर्य करते थे, उसी का जल आज पीने लायक भी नहीं रह गया है।

स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ मना चुके राष्ट्र के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि जिस गंगाजल को अब पीने योग्य भी नहीं माना जाता, पच्चीस वर्ष पूर्व तक विश्वभर के वैज्ञानिक यह देखकर हैरान थे कि गंगाजल, जल नहीं अमृत है। विश्व में इतना पवित्र जल केवल उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव में खोजा गया। हालाँकि वैज्ञानिक यह देखकर आश्चर्यचकित हुए कि ध्रुवों के अछूते जल में भी एक वर्ष बाद कृमि दिखाई देने लगे, जबकि सौ साल बाद गंगाजल उन्हें उसी तरह शुद्ध नजर आया।

फ्राँस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. हैरेन ने गंगाजल पर वर्षों अनुसंधान करके अपने प्रयोगों का विवरण शोधपत्रों के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने आंत्रशोध व हैजे से मरे अज्ञात लोगों के शवों को गंगाजल में ऐसे स्थान पर डाल दिया, जहाँ कीटाणु तेजी से पनप सकते थे। डॉ. हैरेन को आश्चर्य हुआ कि कुछ दिनों के बाद इन शवों से आँत्रशोध व हैजे के ही नहीं अन्य कीटाणु भी गायब हो गए। उन्होंने गंगाजल से ‘बैक्टीरियोफेज’ नामक एक घटक निकाला, जिसमें औषधीय गुण हैं। इंग्लैंड के जाने-माने चिकित्सक सी.ई. नेल्सन ने गंगाजल पर अन्वेषण करते हुए लिखा कि इस जल में सड़ने वाले बैक्टीरिया ही नहीं होते। उन्होंने महर्षि चरक को उद्धृत करते हुए लिखा कि गंगाजल सही मायने में पथ्य है। रूसी वैज्ञानिकों ने हरिद्वार एवं काशी में स्नान के उपराँत 1950 में कहा था कि उन्हें स्नान के उपराँत ही ज्ञात हो पाया कि भारतीय गंगा को इतना पवित्र क्यों मानते हैं।

गंगाजल की पाचकता के बारे में ओरियंटल इंस्टीट्यूट में हस्तलिखित आलेख रखे है। कनाडा के मैकिलन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. एम. सी. हेमिल्टन ने गंगा की शक्त को स्वीकारते हुए कहा कि वे नहीं जानते कि इस जल में अपूर्व गुण कहाँ से और कैसे आए। सही तो यह है कि चमत्कृत हेमिल्टन वस्तुतः समझ ही नहीं पाए कि गंगा की औषधीय गुणवत्ता को किस तरह प्रकट किया जाए। आयुर्वेदाचार्य गणनाथ सेन, विदेशी यात्री इब्नबतूता बर्नियर, अंग्रेज सेना के कैप्टन मूर, विज्ञानवेत्ता डॉ. रिचर्डसन आदि सभी ने गंगा पर शोध करके यही निष्कर्ष दिया कि यह नदी अपूर्व है।

लेकिन इसे नियति की विडंबना के सिवा और क्या कहें कि गंगाजल की स्वयं शुद्ध होते रहने की अद्भुत क्षमता के बावजूद आज गंगा भारत की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। नेशनल एन्वायरन्मेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के दो वैज्ञानिकों ने अपने परीक्षण के उपराँत घोषणा की कि वैज्ञानिक दृष्टि से ऋषिकेश एवं हरिद्वार का गंगाजल भी पीने के योग्य नहीं रह गया है। उनके अनुसार इस पानी में अब अनेकों रोगाणु पनप चुके है। उन्होंने इसका कारण गंगा में बड़ी मात्रा में औद्योगिक इकाइयों द्वारा छोड़े गए रासायनिक अवशेषों तथा बढ़ती आबादी के कारण हुए प्रदूषण को माना है।

गोमुख से निकलने के बाद गंगा पर्वतों से उतरती हुई, मैदानों में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। मार्ग में इसके किनारे बसे छोटे-बड़े शहरों का जल-मल सीधा इसी में बहता है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार लगभग 200 करोड़ लीटर कचरा प्रतिदिन गंगा में गिरता है। अकेले वाराणसी में गिरने वाले कचरे की कुल मात्रा 95 करोड़ लीटर से अधिक है। जिन कारखानों का वर्ज्य पदार्थ गंगा में गिरता है, उनमें से कुछ तो बहुत ही खतरनाक किस्म के हैं। जैसे, चमड़ा, उद्योग, डिस्टीलरी उद्योग, थर्मल पावर एवं रासायनिक खादों के कारखाने है। इनके वर्ज्य पदार्थों के गंगा में गिराए जाने के परिणामस्वरूप गंगा के जलजंतुओं का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। कुल मिलाकर गंगा में प्रदूषण की स्थिति बड़ी विकराल है।

गंगाजल के प्रदूषण मापन का वैज्ञानिक सिलसिला सन् 1934 ई. से चला था। तब वाराणसी के घाटों पर गंगाजल निर्मल था व उसमें किसी भी तरह के हानिकारक बैक्टीरिया नहीं पाए गए थे। सन् 1966 में कानपुर के विभिन्न घाटों पर गंगाजल के नमूनों का परीक्षण किया गया। तब गंगाजल भैरव घाट तक संतोषजनक पाया गया, परंतु यह जलप्रवाह शहर से बाहर होते-होते इतना दूषित हो गया कि प्रयोग के काबिल नहीं रहा। सन् 1975 ई. में पुनः कानपुर के घटों का अध्ययन किया गया और तब पाया गया कि गंगाजल प्रदूषण की मानक सीमाओं को पार कर रहा है। सन् 1983 ई. में कानपुर, इलाहाबाद एवं वाराणसी के गंगाजल नमूनों की वैज्ञानिक जाँचे की गई। इसमें नाइट्रोजन की मात्रा सामान्य से कई गुना अधिक थी। साथ ही इसमें ई. कोलाई के रोगाणु तो प्रस्तावित संख्या से सैंकड़ों गुना अधिक थे।

प्रदूषित गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार ने गंगा एक्शन प्लान का क्रियान्वयन सन् 1985 ई. में किया था। जिसके तहत अरबों रुपये खर्च किए गए, किंतु योजना के उत्साहवर्द्धक परिणाम नहीं आए। जन-जागरुकता के अभाव एवं जनसहयोग के बिना यह योजना असफलप्राय सिद्ध हुई।

विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने पारिस्थितिकी तंत्र से जो खिलवाड़ किया है, उससे गंगा नदी का उद्गम स्थल भी अछूता नहीं रह गया है। गंगा का उद्गम आज से कई सौ साल पहले वर्तमान गंगोत्री मंदिर तक फैला था। जो आज 17 कि.मी. खिसक चुका है। जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सर्वेक्षण के अनुसार, गत पचास वर्षों में गंगा का गोमुख ग्लेशियर प्रतिवर्ष 10 से 30 मीटर की गति से सिकुड़ता है। स्थिति यही रही तो अब से 125 सालों बाद गंगा का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार गंगा के उद्गम पर प्रवाह जिस गति से घट रहा है, उसे देखते हुए अगले कुछ हजार वर्षों में इसके रुकने की संभावना है।

ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि देशवासी गंगा को माता का सम्मान दें, उसे प्रदूषित होने से बचाएँ। सच यही है कि विकास की अंधी दौड़ में भटकी गंगामाता की संतानों को विषाक्तता से तड़पती-कलपती गंगा मैया की पीड़ा को समझना होगा। इसमें से हर एक को व्रत लेना होगा कि वह अपने चिंतन व कर्म से गंगा माँ को प्रदूषित नहीं करेगा। तभी पतितपावनी गंगा मैया, इससे जुड़ी संस्कृति जीवित रह पाएगी। प्रदूषण के इस वर्तमान संकट के प्रति समय रहते हुए न चेते तो कहीं ऐसा न हो कि गंगा नदी भी एक दिन आर्यों की पावन सरस्वती नदी की तरह विलुप्त हो जाए।

भारतीय संस्कारों, इतिहास एवं संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ी गंगा ऋग्वेद से लेकर गंगालहरी तक हर ग्रंथ में महिमान्वित होती आई है। लेकिन आज प्रगति की अंधी दौड़ में अपने संस्कारों से च्युत, अपनी संस्कृति से भूली-भटकी संतानों ने गंगा मैया को जिस दुर्दशाजन्य स्थिति में ला फेंका है, वह न केवल गंगा नदी के अस्तित्वजन्य खतरे का संकेत दे रही है, बल्कि भारतीय संस्कृति के लिए भी खतरे का संकेत दे रही है।


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