राजा रघु ने लोकमंगल के लिए एक बार सर्वमेध यज्ञ किया। जो कुछ भी राजसंपत्ति थी उन्होंने प्रजा के हित के लिए लगा दी। सब कुछ दान कर देने के बाद संपत्ति के नाम पर एक मिट्टी का जलपात्र और कुश का आसन शेष बचा। ऋषि कौत्स तक राजा की दानशीलता का समाचार पहुँचा। उन्हें गुरुदक्षिणा चुकाने के लिए धन की आवश्यकता थी। धन की आकाँक्षा लेकर ऋषि रघु के पास पहुँचे।
वहाँ दृश्य दूसरा ही था। राजा सब कुछ दान कर चुके थे। स्थिति विपरीत देखकर ऋषि कौत्स ने बिना कुछ कहे वापस लौट आना उचित समझा, किंतु राजा को समझते देन न लगी कि ऋषि किसी विशेष प्रयोजन से आए हैं। राजा ने ऋषि को वापस बुला लिया और आश्वासन दिया कि आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, धन की व्यवस्था हो जाएगी। कौत्स ठहर गए। रघु ने कुबेर को संदेश भेजा। कुबेर ने स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि कर दी। राजा ने कौत्स को अभीप्सित धन देकर संतुष्ट किया।
कौत्स ने आश्चर्यान्वित हो तनिक-सी याचना पर राजा को इतना धन मिल जाने का रहस्य जानना चाहा। कुबेर ने कहा, ऋषिवर ! धर्म के प्रति आस्थावान व्यक्ति परमार्थ प्रयोजन के लिए जो प्रयत्न करते हैं उन्हें यदि संपन्न व्यक्तियों द्वारा सहायता न दी जाए तो धनपति और धन दोनों कलंकित होने लगेंगे।