टेलीपैथी का तात्पर्य है-संप्रेषण। इस संप्रेषण की प्रक्रिया से विचारों और भावनाओं को दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। इसके द्वारा सुदूर बैठे व्यक्ति को नीरोग एवं स्वस्थ करना भी संभव है। इन दिनों टेलीपैथी द्वारा रोगों के उपचार पर काफी गहन अनुसंधान हो रहा है। उपचार की इस प्रणाली में शरीर के अलावा मन भी प्रभावित होता है। आधुनिक चिकित्साविज्ञानी भी इसके वैज्ञानिकता को मान्यता देने लगे है।
प्राचीन भारत में यह पद्धति काफी लोकप्रिय थी। ऋषि-महर्षिगण इस प्रणाली से एक स्थान पर बैठे हुए व्यापक क्षेत्र में लोकसेवा किया करते थे। अन्य दूसरे देशों में भी इसका प्रमाण मिलता है। अफ्रीका के आदिवासियों में ‘वुडू’ ना की एक प्रथा है। ‘वूडू’ के द्वारा किसी दूरस्थ व्यक्ति को मौत की नींद सुलाया जा सकता है। इसके द्वारा किसी को नीरोग किया जाना भी संभव है। अमेरिकी मनोरोग विशेषज्ञों ने ‘वुडू’ को टेलीपैथी के समान एक प्रक्रिया माना है।
विशेषज्ञों का मानना है मनुष्य में दृश्य स्थूलशरीर के अलावा विचारों के पुँज के रूप में सूक्ष्मशरीर एवं भावना प्रधान कारणशरीर का भी अस्तित्व है। विचार और भावना की पवित्रता एवं प्रखरता पर इन शरीरों की क्रियाशीलता निर्भर करती है। सामान्यता टेलीपैथी मन के द्वारा ही संचालित एवं नियंत्रित होती है। मन ही शरीर को संचालित करता है। अतः टेलीपैथी में मन की आवृत्ति को संबंधित एवं दूरस्थ व्यक्ति तक संप्रेषित किया जाता है और इसमें वाँछित सफलता भी मिलती है।
विश्व की विख्यात टेलीपैथी विशेषज्ञ बेट्टी राइन ने अपनी रचना ‘माइंड वैव्स’ में इस संदर्भ में विस्तृत विवेचना की है। वे स्वयं इस प्रक्रिया में प्रवीण हैं। उन्होंने इन प्रयोगों को निरापद एवं अद्भुत बताया है। वे अपने कमरे में बैठे हुए दूरस्थ व्यक्ति का सफलतापूर्वक उपचार करती है। उन्होंने इसी माध्यम से अलेक्स नाम के लड़के का सफलतापूर्वक उपचार किया। यह लड़का लंदन के एक अस्पताल में ब्रेन वाइरस नाम के रोग से पीड़ित था तथा वह अपने इस रोग की वजह से जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था। अलेक्स का स्थान बेट्टी राइन के निवास से 50 कि.मी. दूर था। प्रारंभिक अवस्था में राइन ने अलेक्स को अपने पास बुलाया एवं परीक्षण किया। चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया था, क्योंकि रोग असाध्य था और शरीर का तापमान भी 105 डिग्री को पार कर गया था। राइन ने अपनी उपचार-प्रक्रिया से उसे रोग को नियं.ण में किया और उसे अपने घर वापस भेज दिया। इसके पश्चात् राइन ने अलेक्स के पिता जेरेमी से टेलीपैथी संपर्क स्थापित किया। जेरेमी इस पद्धति पर विश्वास नहीं करता था, परंतु जब उसने इसी रीति से अपने पुत्र को पूर्णतया स्वस्थ होते हुए देखा तो उसे इसके आश्चर्यजनक प्रभावों को मानना पड़ा।
इस रीति से मनुष्य के अलावा जानवरों का भी सफलतापूर्वक उपचार किया गया है। यह प्रयोग प्रायः अंधी हो चुकी एक बिल्ली पर किया गया। किसी कारणवश उसकी आँखों की रोशनी चली गई थी। यह बिल्ली प्रयोग-स्थल से लगभग 75 कि.मी. दूर थी। टेलीपैथिक हीलिंग से वह बिल्ली स्वस्थ हो गई। उसे स्वस्थ होने में एक सप्ताह का समय लगा, जबकि उस पर वर्षों की दवा कारगर नहीं हो पाई थी।
बेट्टी राइन ने अपनी पुस्तक में साइकिक सर्जरी पर भी विशद विवेचन किया है। उनके अनुसार जीवन एक शक्तिपुँज है। शरीर के माध्यम से इसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति रोगी, नीरोगी एवं ऊर्जावान बनता है। शरीर के बाहर विकसित इस अतिसूक्ष्म ऊर्जा को आभामंडल कहते हैं। इसी आभामंडल के माध्यम से बेट्टी राइन साइकिक सर्जरी के माध्यम से पित्त की थैली के पत्थरों का ऑपरेशन करने में भी सफलता पाई है। अनेक प्रख्यात चिकित्साविदों ने उनके प्रयोग की सफलता की पुष्टि की है।
अपनी वैज्ञानिकता सिद्ध कर चुके इस आध्यात्मिक प्रयोग की सामर्थ्य का रहस्य मानव-मन में है। पवित्र एवं ऊर्जावान मन से कुछ भी संभव है। समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का केंद्रबिंदु भी मन को पवित्र एवं ऊर्ध्वगामी बनाए रखना है। ऐसे प्रखर साधनावान व्यक्ति अपने मन की अपरिमित शक्ति से भी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। टेलीपैथी उपचार प्रक्रिया भी इन्हीं में से एक है। जैक्विटा हाँक्स, जो ब्रिटेन महोत्सव के लिए पुरातत्व परामर्शदात्री थी एवं प्रीस्टले भी उसमें सहयोगी थे।
एक अन्य प्रसंग का वर्णन करते हुए प्रीस्टले लिखते हैं कि एक व्यक्ति बस में बैठकर जब कभी एक नियत मकान के सामने से गुजरता, तो उसे बड़ी विचित्र अनुभूति होती थी। उसे यह पता न था कि उसमें कौन रहता है; पर यह आभास अवश्य होता था कि किसी भी प्रकार उस मकान एवं स्वयं के बीच संबंध अवश्य है। बाद में वह उस महिला से मिला, तो उसने अचानक की विवाह प्रस्ताव रख दिया, जिसे उसको स्वीकारना पड़ा। जल्दी ही दोनों विवाहबंधन में बंध गए। पीछे इसी ने समय-समय पर पड़ने वाले स्नायविक आघातों से उसे बचाया था। शायद भावी पति-पत्नी के इसी संबंध के रण उसे उक्त मकान के सामने से होकर गुजरने में यह विलक्षण अनुभव होता था।
प्रीस्टले ने इन घटनाओं को पूर्वाभास की एक विशेष श्रेणी में रखा है तथा उनको एफ.आई.पी. (फ्यूचर इन्फ्ल्यूएन्सिंग दि प्रेजेण्ट) नाम दिया है। उनका मानना है कि जीवन की बहुत सारी घटनाएँ भविष्य से प्रभावित होती है। एक उदाहरण द्वारा उन्होंने इसे और स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं कि एक व्यक्ति हमेशा मिचली तथा उलटी से पीड़ित रहता था। इस दशा में वह अक्सर सिर दर्द की शिकायत करता तथा एक अंधेरे कमरे में पड़ा रहता। इसके अतिरिक्त रोग के हर दौरे के साथ उसे लाल, नीले, हरे और बैंगनी रंग का तीक्ष्ण प्रकाश दिखाई पड़ता। पीछे वह बिखरकर अदृश्य हो जाता। तत्पश्चात उसे उल्टियां होती और फिर धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो जाता। अनेक उपचारों के उपराँत भी उसकी यह अनोखी बीमारी ठीक न हो सकी। इसके वर्षों बाद द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ। तब यह व्यक्ति मलाया में था। एक दिन जापानी फौजों ने इसके काफिले पर हमला कर दिया और तोप के गोले बरसाने लगी। वह एक छोटी खंदक में कूद पड़ा।तभी एक बम विस्फोट हुआ, जिसमें से लाल, नीली, हरी तथा बैंगनी रंग की लपटें निकल पड़ी। इसके बाद वह गंभीर रूप से बीमार हो गया और इसके साथ ही मिचली और उलटी की उसकी शिकायत सदा के लिए समाप्त हो गई।
पीटर ट्रेडमैन अपनी पुस्तक ‘दी सिरियल यूनीवर्स’ में एक घटना का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि जिन दिनों वे लक्समबर्ग में थे, उन दिनों अक्सर जैबोज हारवलिक नामक एक भौतिकविद् उनके पास आया करते थे। उनसे घंटों विज्ञान, परामनोविज्ञान, दूरश्रवण, दूरबोध जैसे विषयों पर गंभीर चर्चाएँ होती। इसी क्रम में एक दिन उनने पूर्वाभास की एक विचित्र घटना सुनाई।
अनेक वर्षों तक वे अमेरिकी सेना में सलाहकार के पद पर कार्य कर चुके थे। जब वे वहाँ नियुक्त थे, तब कार्यालय के कार्य से उन्हें वाशिंगटन के निकटवर्ती क्षेत्रों का प्रायः दौरा करना पड़ता था। ऐसे ही एक दौरे के दौरान उन्हें एक बार शहर के बाहरी हिस्से में जाना पड़ा। वहाँ एक छोटा सा मैदान था। आसपास कोई मकान नहीं था। दूर-दूर पर बिखरे हुए इक्के-दुक्के भवन थे। उस मैदान के निकट पहुँचते ही उनको एक विलक्षण आकर्षण का अनुभव हुआ। काफी देर तक वे उस मैदान के एक छोर से दूसरे छोर तक आते-जाते रहे। यों प्रत्यक्ष रूप में उस भूमि से लगाव का कोई कारण नहीं था। वहाँ कोई बहुत आकर्षक पेड़-पौधों से आच्छादित भूखंड भी नहीं था। उसमें जगह-जगह जंगली झाड़-झंखाड़ उगे हुए थे, फिर भी उनका मन वहाँ से जाने को क्यों नहीं हो रहा था, यह स्वयं उनकी भी समझ से परे था। कई वर्ष पश्चात् निजी मकान बनाने हेतु उन्हें जमीन के टुकड़े की आवश्यकता पड़ी। वह शहरी कोलाहल से दूर रहना चाहते थे, इसलिए उन्हें ऐसे भूखंड की तलाश थी, जो शहर से बाहर हो। इसे संयोग कहें या अदृश्य का निर्धारण, उनके पास उसी जमीन का प्रस्ताव आया, वह उनने खरीद ली। अब उनकी समझ में आया कि क्यों उस रोज उसके प्रति ऐसा विचित्र खिंचाव महसूस हो रहा था। वास्तव में यह एक प्रकार का पूर्वाभास ही था, जो परोक्ष में उन्हें जबर्दस्त आकर्षण के रूप में खींच रहा था।
इस प्रकार के घटनाक्रम यह साबित करते हैं कि चेतना का आकस्मिक उभार जब पूर्वाभास जैसे प्रसंगों को जन्म दे सकता है, तो यदि उसे सुनियोजित ढंग से जगाया, उभारा और परिमार्जित-परिष्कृत किया जा सके, तो वह कितनी विस्मयकारी सिद्ध होगी, यह बोलने-बखानने की नहीं, कर गुजरने और अनुभव करने की बात है।