प्रथम मानव जन्मा था देवात्मा हिमालय में

July 2000

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सर्वप्रथम मानव की सृष्टि कहाँ हुई ? उसका मूल स्थान कहाँ है ? उसके आदि देश का नाम क्या है ? ये ज्वलंत प्रश्न आज इतिहासविदों से लेकर नृतत्वशास्त्रियों के बीच शोध का विषय बने हुए है। इस विषय में अनेकों मत-मताँतर हैं। कुछ विद्वान इसका समाधान विदेशी भूमि में ढूंढ़ते हैं, तो कुछ इसके लिए एशिया महाद्वीप एवं हिमालय की ओर संकेत करते हैं। इस संबंध में जो भी साक्ष्य-प्रमाण उपलब्ध हैं, उन्हें देखते हुए यही तर्कसंगत प्रतीत होता है कि मानव की उत्पत्ति हिमालय-क्षेत्र में हुई।

सर्वप्रथम मानव हिमालय में पैदा हुआ। नृतत्वविज्ञानियों एवं इतिहासवेत्ताओं ने इसके लिए अनेकों प्रमाण दिए है। उनका कहना है कि हिमालय पर फल, अन्न और शाक आदि सभी खाद्यपदार्थ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। स्वभावतः मानव का मूल आहार यही है। प्रसिद्ध समाज विज्ञानी कालचेंटर के अनुसार, मनुष्य प्राकृतिक रूप से फल और अनाज पर निर्भर करता है। अतः हिमालय का क्षेत्र ही मानव की स्वाभाविक जन्मस्थली है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं, यहाँ जीवाश्म का पाया जाना, जो विश्व में अन्य जगहों पर पाए गए दूसरे सभी जीवाश्मों की अपेक्षा कहीं ज्यादा पुराना है।

नृविज्ञानियों का मानना है कि विश्वभर में मानव की चार मुख्य जातियाँ पाई जाती है। ये जातियाँ - 1. श्वेत-काकेशस, 2. पीले-मंगोलियन, 3. काले-नाग्रो, 4. लाल, रेड इंडियन-अमेरिकन। इन चारों के अलावा एक पाँचवीं जाति हैं, जो भारतीयों की है। इस जाति में उपर्युक्त चारों जातियों का मिश्रण है। ये भारतीय संकर नहीं हैं, अपितु यह इनकी मौलिकता है। इन भारतीयों में उपर्युक्त सभी विशेषताएँ पाई जाती है। भारत की संरचना एवं बनावट ऐसी है, जहाँ नित्य छहों ऋतुएँ विद्यमान रहती है। इसी भूमि में सब रंग-रूप के आदमी निवास करते हैं। ये सारे लक्षण भारतवर्ष में स्थित हिमालय के निवासियों में पाए जाते हैं। जिससे यह सिद्ध होता है कि मानव ने हिमालय में जन्म लिया और समूचे देश में अपना विस्तार किया।

इस आदिमानव ने कालक्रम में अपने व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास किया। इसी की संतति आर्यों के नाम से समूचे विश्व में जानी गई। संस्कृति में आर्य शब्द का अर्थ हैं, श्रेष्ठ-पवित्र विकसित मन, विशाल हृदय व आध्यात्मिक मूल्यों से संपन्न मनुष्य। वैदिक संस्कृति में यही आयै का अभिप्राय हैं आर्य जिस क्षेत्र में बसते थे, उसे उनका आवर्त अर्थात् कहा जाता था। आर्यों का आदि देश यही आर्यावर्त क्षेत्र है।

इस आर्यावर्त में सरस्वती, गंगा आदि सप्तसिंधु की समस्त सरिताएँ प्रवाहित होती थी। आर्यावर्त का आर्य जगत् में आध्यात्मिक महत्व था, जो आज भी विद्यमान है। सप्तम जलप्लावन तक आर्यावर्त के अस्तित्व में आने से पूर्व आर्य इसी सप्तसिंधु एवं ब्रह्मावर्त में रहते थे। जलप्लावन के अवसर पर प्राकृतिक आपदा आई, जिससे तराई-भाभर के समुद्र खुल गए और पाँचाल आदि देश पृथ्वी के गर्भ से ऊपर निकल आए। यह समूचा क्षेत्र आर्यावर्त कहलाता है। यहाँ प्राचीन सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए है। सुविख्यात नृतत्वविज्ञानी कनिंघम ने भी इसकी पुष्टि की है। ऋग्वेद में भी आर्यों के इस आदि देश का ऐसा ही वर्ण मिलता है। ऋग्वेद के अनुसार, आर्यों का आदि देश शीतप्रधान था। वहाँ दस महीने सरदी तथा दो महीने गरमी पड़ती थी। वैवस्वत मनु उस शीतप्रधान प्रदेश के प्रथम नरेश थे।

आर्यों का आदि देश आर्यावर्त ही था, इस संबंध में और भी कई तथ्य मिलते हैं। वैदिक वाङ्मय में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जो आर्य जाति के बाहर से आकर यहाँ भारत में बसने की कल्पना की पुष्टि कर सके। इसके विपरीत इस साहित्य में ऐसे अनेकों प्रमाण उपलब्ध हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि आर्यजनों का मूल स्थान आर्यावर्त ही है। आर्य संस्कृति के भाषा-परिवार की भाषाओं की शब्दावली में सबसे अधिक शब्द वैदिक संस्कृति और उनसे निकली भारतीय भाषाओं के मिलते हैं। यदि आर्य जाति का मूल स्थान यूरोप आदि देशों में होता तो वहाँ की भाषाओं के कुछ शब्द अवश्य आर्यों की भाषाओं में मिलते।

हालाँकि इतिहासविदों ने आर्यों के संबंध में जो खोज की है, उनके मतों की समीक्षा भी यहाँ आवश्यक है। इतिहासविदों के निष्कर्ष को इन पाँच बिंदुओं के अंतर्गत जाना जा सकता है- 1. यूरोप का उत्तरी मैदान, 2. मध्य एशिया, 3. उत्तरी ध्रुव, 4. सप्तसिंधु (पंजाब), 5. सरस्वती के काठें अर्थात् मध्य एशिया में बद्रिकाश्रम के निकट सरस्वती नदी का तटवर्ती क्षेत्र, जिसका प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त, हिमवंत, कैलास, सुमेरु, स्वर्ग, गंधमादन, केदाखंड एवं वर्तमान गढ़वाल है।

विलियम जोंस के अनुसार, यूरोप में यूराल पर्वत से उत्तर जर्मनी होते हुए अंधमहासागर तक फैला हुआ मैदान आर्यों का आदि देश था। कुछ इतिहासकार केस्पियन सागर के पास आर्य जाति का मूल स्थान मानते हैं। लोकमान्य तिलक ने ‘अवर आर्कटिक होम इन द वेदाज’ में उल्लेख किया है कि आर्य उत्तरी ध्रुव में रहते थे। वहाँ से भयंकर हिमपात के कारण वे इस भूभाग को छोड़कर अन्यत्र चले गए। श्री नारायण पावगी ने ‘फ्राम द क्रेडल टु द कालोनीज’ में आर्यों का सप्तसिंधु से उत्तरी ध्रुव की ओर जाने का उल्लेख किया है।

महर्षि दयानंद ने सुमेरु-कैलास के निकट त्रिविष्टप (तिब्बत) को आर्यों की जन्मभूमि माना है। उनके अनुसार तिब्बत में मनुष्य की आदि सृष्टि हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात तिब्बत से सीधे आकर इस प्रदेश में बसे थे। प्रोफेसर बैनफे इससे सहमत है। वे लिखते हैं कि आर्य कुछ समय तिब्बत में रहे और बाद में गढ़वाल, कुमायूँ की उपत्यिकाओं से होकर भारत में आए। हर्नले और प्रो. बेकर ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है। एटकिन्सन ने अपने ग्रंथ ‘हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स’ में ऋग्वैदिक गढ़वाल का महत्व स्वीकारा है। वे इस ग्रंथ में स्पष्टतः लिखते हैं कि वेदों में जो संस्मरण आए हैं, वे पूर्णतः गढ़वाल पर लागू होते हैं।

इतिहासकार अलबरूनी ने हिमालय को आर्यों का आदि देश माना है। सुविख्यात मनीषी भगतदत्त ने अपनी कृति ‘वैदिक वाङ्मय का इतिहास’ में विश्व की भिन्न-भिन्न जातियों को आर्यों के मूल स्थान हिमालय के ही प्रवासीजनों के रूप में माना है। उनकी यह भी मान्यता है कि आर्य हिमालय से सीधे भारत में बसे। मध्य एशियावाद के समर्थक मैक्डोनाल्ड भी ‘इंडिया व्हाट इट कैन गिव अस’ के अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि आर्यावर्त ही आर्यों का प्राचीन देश है और भारत भूमि ही मानवजाति की माता और विश्व की समस्त परंपराओं की उद्गम स्थल है।

भूगर्भशास्त्री मेडलीकट ने ‘मैन्युअल ऑफ इंडियन जियोलाजी’ में स्पष्ट किया है कि कुमायूँ के उत्तर में ‘सिलूरियन फासिल्स’ पर्याप्त मात्रा में पाए गए है। ये फासिल्स भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार पृथ्वी के शीतल एवं जीवन के पोषण योग्य हो जाने के पश्चात् सर्वप्रथम मध्य हिमालय के इस समशीतोष्ण शिवालिक पर्वत क्षेत्र में प्रवाहित सरस्वती खेत्र मानव-जीवन का उत्पत्ति स्थल है। स्व. जयचन्द्र विद्यालंकर अपने ग्रंथ ‘इतिहास प्रवेश’ में उद्धृत कर कहते हैं, भारतीय वाङ्मय में कहीं भी किसी स्थान पर कोई उल्लेख नहीं मिलता कि आर्य उत्तर-पश्चिम से भारत आए, बल्कि इस सत्य का स्पष्टतः उल्लेख है कि आर्यजन सरस्वती क्षेत्र से भारत के अन्य भागों की तरह उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़े।

कैलास-मानसरोवर प्रदेश और मध्य हिमालय के स्थानों का वर्णन भारतीय आर्यों की प्राचीन जनश्रुतियों में है, परंतु उत्तर भारत में बसने के बाद उन प्रदेशों की ओर फैलने का कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों की एक शाखा पूर्वी मध्य एशिया से नए चरागाहों की खोज करती हुई पश्चिमी तिब्बत की ओर बढ़ी और उसके दक्षिण छोर तक पहुँचने के बाद 3000 ई. पूर्व हिमालय के नीचे उत्तरगंगा, यमुना तथा सरस्वती काँठे से आई। बाद में वे लोग अलकनंदा से गढ़वाल हिमालय ओर कश्मीर तक फैल गए।

लार्ड एलफिंस्टन ने अपनी पुस्तक ‘भारत का इतिहास’ में आर्यों की उत्पत्ति भारत से बाहर होने की बात को पूरी तरह से अस्वीकार किया है। उनके अनुसार, आर्य बाहर से भारत आए, यह विचार तथ्यहीन है। सर वाल्टर रेले ने ‘हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड’ में स्पष्ट संकेत किया है कि जलप्रलय के अनंतर भारतवर्ष में ही मनुष्य, वृक्ष एवं लताओं की उत्पत्ति हुई। यह भी पूरी तरह से प्रमाणित है कि मानव से पूर्व वनस्पति की उत्पत्ति एवं विकास हुआ। मेडलीकट और बलंफडे ने ‘मेनुअल ऑफ इंडियन थियोलाँजी’ में इस बात को स्पष्ट किया है कि भारत भूमि में प्राचीनकाल से समशीतोष्ण तापक्रम के चिन्ह मिलते हैं। अतः यहाँ सर्वप्रथम जीवन के आरंभ की पुष्टि होती है। विख्यात अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टाड ने ‘एनेल्स ऑफ राजस्थान’ में आर्यावर्त को ही आर्यों का आदि देश माना है।

तथ्य और प्रमाण यही बताते हैं कि देवात्मा हिमालय की गोद में ही मानव जन्मा और विकसित हुआ। उसने अपनी इस विकास प्रक्रिया और परंपरा से जो सभ्यता एवं संस्कृति विकसित की, वही आर्य सभ्यता एवं भारतीय संस्कृति कहलाई। इसी का प्रचार-प्रसार करके भारत चक्रवर्ती एवं विश्वगुरु बना। आज परिस्थितियाँ भिन्न है। पराई संस्कृति के मोह में हम अपने अतीत को, उसके गौरव को भूल चुके है। वर्तमान में हमें न तो उस वसीयत की याद है, जो हमारे पूर्वज वैदिक महर्षियों ने वैदिक वाङ्मय के रूप में हमारे लिए लिखी थी और न ही उस विरासत को हम समझ पाते हैं, जो उन्होंने हमारे लिए छोड़ी।

यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन देशों और जातियों ने अपने पूर्वजों की वसीयत एवं विरासत की उपेक्षा की है, वे कभी भी आगे नहीं बढ़ सकी है। इक्कीसवीं सदी में यदि हम उज्ज्वल भविष्य को साकार करना चाहते हैं तो हमें इस सत्य को समझना होगा और इसे तथ्य के रूप में प्रमाणित करना होगा। हम भारतवासियों का कर्त्तव्य है कि देवात्मा हिमालय का गौरव केवल इतिहास के पन्नों में ही न बंद रहे, हम सबके जीवन में भी प्रकाशित हो। इसी के साथ हमारा देश जो मानव सभ्यता की आदि भूमि है, वर्तमान में भी उसकी महिमा समूचे विश्व में संव्याप्त हो यह सब तभी संभव है जब हम भारत जननी की श्रेष्ठ संतान बनें, जैसे कि हमारे पूर्वज थे।


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