आज साधु तो बहुत हैं, पर साधना नहीं है। साधन के बिना साधुता कागज के फूलों की तरह है। जिनमें बहुरंगी आकर्षण तो भरपूर है, लेकिन सुगंध का एकदम अभाव है। सब तरफ आज ऐसे ही कागज के फूल दिखाई देते हैं। इसी वजह से धर्म की प्रखरता-तेजस्विता मंद पड़ गई है। साधन के अभाव में धर्म असंभव है।
धर्म की जड़े साधना में हैं। साधना के अभाव में साधु का जीवन या तो मात्र अभिनय हो सकता है या फिर दमन हो सकता है। ये दोनों ही बातें शुभ नहीं है। तप-साधना का मिथ्या अभिनय पाखंड है। जबकि कोरा दमन और भी महाघातक है। उसमें संघर्ष की यातना तो है, पर उपलब्धि कुछ भी नहीं। जिसे दबाया जाता है, मरता नहीं, बल्कि और गहरी परतों में सरक जाता है। साधनाविहीन साधु को एक ओर वासना की पीड़ाएँ सताती है; उनकी ज्वालाओं में उसका जीवन तपता-झुलसता रहता है; तृष्णा की दुष्पूर दौड़ उसे हर पल दुःख देती रहती है; दूसरी ओर उसे दमन और आत्म उत्पीड़न की अग्निशिखाएँ जलाती है। एक ओर कुआं है तो दूसरी ओर खाई। सच्ची साधन के बिना इन दोनों में से किसी एक में गिरना ही पड़ता है।
सच्ची साधना न तो भोग में है और न दमन में। यह तो आत्मजागरण में है। इन दोनों अतियों के द्वंद्व में से उबरने और परमेश्वर में स्वयं को विसर्जित करने में है। साधना वेश-विन्यास की विविधता या कौतुक भरे प्रदर्शन का नाम नहीं है। यह नर से नारायण बनने की अंतर्यात्रा है, जो पशु-भाव का दमन करके नहीं, उसे सर्वथा छोड़कर परमात्मा-भाव में प्रतिष्ठित होने में ही संपन्न होती है।
सच्ची साधना का अर्थ किसी को पकड़ना नहीं है, वरन् सारी पकड़ को एक साथ छोड़ना है। सारी अतियों से, सभी द्वंद्वों से ऊपर उठना-उबरना है। इस सच्ची साधना से जो अपनी चेतना की लौ को द्वंद्वों की आँधियों से मुक्त कर लेते हैं, वे उस कुँजी को पा लेते हैं, जिससे सत्य का द्वार खुलता है और तभी वह साधुता प्रकट होती है, जिसकी अलौकिक सुगंध से अनेकों दूसरी सुप्त और मुरझाई आत्माएँ भी जाग्रत होकर मुस्कराने लगती है।