आत्मिक प्रगति का ककहरा - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

July 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मित्रों ! संयम ही जीवन है। संयम चार तरह के हैं। पहला है, इंद्रिय संयम। इंद्रिय संयम से मतलब है, जीभ का संयम, जिसने आपका पेट खराब कर दिया और आप बीमार रहने लगे। जरूरत से ज्यादा आप खाते चले गए और शरीर में जहर फैल गया। आप ठीक हो सकते हैं, बशर्ते आप अपने पेट पर कृपा कीजिए, जरूरत से ज्यादा मत खाइए।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम शारदा था। वे उन्हें भरपूर प्यार करते थे, परंतु कोई जरूरी नहीं कि एक-दूसरे के शरीर को बरबाद किया जाए। एक-दूसरे के शरीर में बीमारी को प्रवेश करा दिया जाए। क्या इसी से आपका प्यार होता है ? क्या मतलब है आपका प्यार से। मदर औरत को खाएगा और औरत मर्द को खाएगी, क्या यही अर्थ है विवाह का ? गाँधी जी ने एक किताब लिखी है, ‘संयम की राह पर’। उसमें लिखा है कि स्त्री और पुरुष बहन-भाई की तरह भी रह सकते हैं। आप पशुओं से भी कुछ सीखिए। साँड गायों के झुँड में रहता है, परंतु बिना गाय की आवश्यकता के वह गायों की तरफ देखता भी नहीं है वह भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। जब पशु संयम से रह सकते हैं, तो आप क्यों नहीं रह सकते ?

मित्रो ! आप अपनी जीभ को बुरे वचन बोलने और अभक्ष्य खाने से रोकिए, क्योंकि इन दोनों से ही जीभ जलती है। जली हुई जीभ से भगवान् का भजन नहीं किया जा सकता। “जैसा खाए अन्न-वैसा बने मन”-आपकी यही नियति बन गई है। अतः आप संयम का आरंभ जीभ से करिए। उससे कहिए कि हम आपको भगवान् की पूजा के लायक बनाना चाहते हैं। स्वाद के लिए हम कोई भी ऐसी चीज नहीं खाएँगे जो हमारे शरीर के लिए हानिकारक हो। हम किसी से ऐसे शब्द नहीं बोलेंगे, जो दूसरों को गुमराह करने वाले हों, दूसरों को पतन के मार्ग पर ले जाने वाले हो। आप संयम जीभ से शुरू कीजिए, फिर देखिए कि आपकी वाणी में चमत्कार कैसे पैदा होता है ?

आप इस संबंध में हमसे पूछते हैं कि गुरु जी ! आपने अपनी वाणी को कैसे शुद्ध बनाया ? बेटे! हमने संयम किया है। चौबीस वर्षों तक जौ की रोटी और छाछ का सेवन किया। इससे हमारी जीभ इस योग्य हुई। नमक हमने बिल्कुल नहीं खाया। इस्लाम धर्म के संस्थापक बिना पढ़ थे, परंतु जीभ के संयम से उन्होंने अपने अंदर अपनी बात मनवाने का गुण पैदा किया। ऋषियों की जीभ से निकले हुए वचन भी मंत्र थे। उन्होंने भी संयम किया था, इसलिए आपको भी उनके बताए मार्ग पर चलना चाहिए। आप भी अपने जीवन के उचित लक्ष्य को प्राप्त कीजिए। धनुष की प्रत्यंचा जितनी खींची जाएगी, तीर उतना ही तेज चलेगा। धनुष से तात्पर्य है, हमारी जीभ से, जो मंत्र उच्चारण के लिए है। ऋषियों की जीभ से निकले हुए मंत्रों ने राजा दशरथ के चार बच्चों को जन्म दिया था। लोमश ऋषि ने राज परीक्षित को शाप दिया था कि जा तुझे सातवें दिन साँप काट खाएगा। उनका शाप इसलिए था, क्योंकि ऋषि संयमशील थे। अक्षरों में कोई ताकत नहीं है। ताकत तो वाणी के संयम से आती है। शक्ति का स्त्रोत संयम ही है।

आप दोनों में से कोई भी चीज ले लीजिए, भौतिक या आध्यात्मिक। दोनों में ही संयम की आवश्यकता है। अतः आप इंद्रियों का संयम कीजिए। इंद्रियों के संयम का अर्थ है कि आपने अपने जीवन में जो चार सूराख कर रखे हैं, उनमें से एक-एक को बंद करना। अगर आपने एक भी सूराख को बंद किया तो आप में ताकत आती चली जाएगी। सूराख बंद करते ही आप यह महसूस कर सकते हैं कि आप में ताकत आनी शुरू हो गई। आपको इसके चमत्कार अच्छे स्वास्थ्य के रूप में, दीर्घजीवन के रूप में दिखाई देने लगेंगे।

आप तो हर समय पराई पत्तल ही चाटने की कोशिश करते हैं। आप अपने ऊपर विश्वास करना सीखिए। अपनी ताकत को पहचानिए संयम की शक्ति का अंदाजा लगाइए। संयम को हम तप कहते हैं। आप खाना खाएँ चाहे न खाएँ। शरीर को धूप में खड़ा रखने से भी कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, अनेकों ऋषि धूप में खड़े रहते हैं, परंतु उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ संयम के कारण ही मिलती हैं, अन्यथा धूप में खड़े रहने कोई फर्क नहीं पड़ता।

दूसरा संयम है, मन का संयम, विचारों का संयम। यह इस तरह से है जिस तरह से आवारा लड़के मारे-मारे फिरते हैं। यह भी इसी तरीके का है। आपके मन में हमेशा बेकार के विचार आते रहते हैं। यदि आप थोड़ा भी संयम विचार को एकत्र करने में लगाएँ तो आप देखेंगे कि आपके विचार क्या से क्या बन जाएँगे। साहित्यकार एवं वैज्ञानिकों में क्या विशेषता होती है ? कुछ भी नहीं। बस ये विचारों को एकत्र करते हैं मन की शक्ति से। सर्कस में काम करने वाली लड़कियों में बस एकाग्रता की शक्ति होती है। वे अपने मन को भागने से रोके रखती है तभी तो वे ऊँये झूले से झूलकर जाल में कूद पड़ती है और उनको जरा भी चोट नहीं आती। आप यदि एक काम पर पूरा विचार करना सीख जाएँ तो आप क्या बन सकते हैं ? हमने अपने जीवन में स्वाध्याय का नियमित समय एक घंटे के हिसाब से रखा। पंद्रह वर्ष की उम्र से सत्तर वर्ष की उम्र तक हमने सत्तर लाख पन्ने पढ़े हैं। ये सब विचारों का संयम है।

आप रात को पिक्चर देखकर आते हैं और हीरोइनों के सपने देखने लगते हैं। हीरोइनों के फोटो खरीदकर लाते हैं। पहले आप यह बताइए कि आपका वेतन कितना है ? महाराज जी तीन सौ रुपये। अरे ! तीन सौ रुपये तो एक हीरोइन अपने सैंट पर खर्च कर देती है। आप इसी बल पर हीरोइन से दोस्ती करने की सोच रहे थे। अपने विचारों पर संयम करना सीखो। अपने विचारों को समाज-सुधार के लिए अच्छी दिशा दो। आपके दिमाग व शरीर की शक्ति आपको कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है।

मित्रो ! एक और संयम है और वह है समय का संयम। आपने जितनी अधिक समय की बर्बादी की है, यह उसी का परिणाम है कि आप दुखी जीवन जी रहे है। समय भगवान् ने आपको इसलिए दिया है कि समय की कीमत से आप दुनिया की कीमती से कीमती वस्तु खरीद सकते हैं। आप चाहें तो समय की कीमत से लोकसेवी बन सकते हैं, साहित्यकार बन सकते हैं। समाज-सुधाकर बन सकते हैं, परंतु आपने समय के मूल्य को नहीं पहचाना। आपने अपने जीवन का सारा समय वैसे ही व्यर्थ में नष्ट कर दिया। जिन लोगों ने समय का उपयोग किया है, वे उन्नति के ऊँचे शिखर पर चढ़ते चले गए। चमार, धोबी, मोची, भंगी भी रात्रि पाठशाला में जाकर दो घंटे प्रतिदिन के हिसाब से पढ़कर ऊँचे पद पर तरक्की कर जाते हैं। समय का सदुपयोग करने के कारण ही आज वे अनेकों संस्थाओं में कार्यरत है। लेकिन आप तो कहते हैं कि क्या करें साहब ! हमारे पिताजी मर गए थे, इसलिए हम प्राइमरी तक ही पढ़ पाए। तो क्या पिताजी आपने साथ आपका शरीर ले गए ? मित्रो आपने समय की कीमत नहीं पहचानी।

एक ड्राईंग मास्टर थे। साठ वर्ष की आयु में वे रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद उन्होंने संस्कृत पढ़ना शुरू किया। संस्कृत पढ़कर वे वेदों के भाष्यकार कहलाए। उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने संस्कृत में भी बहुत साहित्य लिखा है। आप क्या करते हैं रिटायर्ड होकर ? हमारा बेटा कमाकर लाता है और हम बेकार बैठे रहते हैं। बताइए हम क्या करें ? बेकार बैठे रहना भगवान् की दी हुई संपदा का तिरस्कार करना है। उसके नियमों की अवहेलना करना है। आदमी जब तक श्रमशील नहीं होगा, तब तक उन्नतिशील नहीं हो सकता। आप अपने श्रम का उपयोग समाज की उन्नति के लिए कीजिए, जिससे हमारा समाज अच्छा और सुँदर बनें।

रावण की कथा है। रावण ने एक दिन काल को पकड़ लिया। पकड़कर पाटी से बाँध लिया और फिर काल की पिटाई लगाई। काल चीखने-चिल्लाने लगा। रावण ने कहा कि काल तू मुझे धन दे और विद्या दे। काल ने डर के मरे लंका को सोने की बना दिया और रावण को विद्वान बना दिया। काल का क्या अर्थ है ? आप तो काल को भूत-प्रेत या देवता मानते हैं, परंतु वास्तव में काल समय को कहते हैं। इसका जो सदुपयोग करते हैं वे महान् उपलब्धियों के स्वामी बनते हैं।

बिहार में हजारी नाम का एक किसान था। उसने अपना सारा समय आम के बगीचे लगाने में लगाया। बिहार में उसने एक हजार बाग लगाए। हजार बागों की वजह से उस जिले का नाम ‘हजारी बाग’ रखा गया। आप तो अपना समय गप्पे हाँकने में लगाते हैं। समय की कीमत समझिए। आप अपने समय को आध्यात्मिक उन्नति में लगाइए। जिससे आपका जीवन सफल हो जाए। आप समय की दिनचर्या बनाइए।

साथियों ! आपकी दौलत चार तरह की है। पहली है-इंद्रिय संयम। इसे अपने जीवन में महत्व दीजिए। इंद्रियों का संयम न करने से आप अपने आप को तबाह करते जाते हैं। आप अपने विचारो की संपदा को किन्हीं उपयोगी कार्यों में लगाना सीखिए। यदि आप ने विचारों का संयम करना आरंभ कर दिया तो आपका दिमाग जिसे हम ब्रह्मलोक कहते हैं, सद्विचारों का भंडार हो जाएगा। यही अतींद्रिय क्षमता का मालिक है, आपकी शालीनता का, सुख-समृद्धि का स्वामी है। यह दिमाग एक कंप्यूटर की तरह से है, जिसकी क्षमता असीम है। तीसरा संयम-समय का संयम है। इसके लिए आप अपनी दिनचर्या बनाकर चलिए। गाँधी जी ने देश के लिए अनेकों कार्य किए। अपने समय की दिनचर्या उन्होंने बनाकर रखा थी। सब कार्य वे नियत संयम करवाते थे। समय को बिल्कुल भी व्यर्थ नहीं गंवाते थे। उन्होंने बहुत सारा साहित्य लिखा।

मित्रो ! हम मशीन की तरह से जीते हैं। आठ बजे का समय हमारा सोने का है। मित्र आते हैं और कहते हैं कि हमसे बात कीजिए। हम कहते हैं कि हम नहीं करेंगे आप से बात, यदि आप नाराज होते हैं तो हो जाइए हमारी बला से। हम प्रतिदिन चार घंटे लेखन करते हैं। नौ अखबारों का हम संपादन करते हैं, अखण्ड-ज्योति का संपादन करते हैं, अपने मनोयोग और तन के सहयोग से। हम दोनों काम इसलिए कर लेते हैं कि हमारा अपना मन और तन दोनों एक साथ लगते हैं, परंतु आपकी कभी ‘तन डोले’ तो ‘कभी मन डोले’ वाली स्थिति रहती है। इसलिए आप काम में अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

गुरु जी ! आपकी उन्नति में कौन-कौन सहायक हुआ है ? बेटे ! आध्यात्मिक दृष्टि से गायत्री मंत्र हुआ है, किंतु इन सबके पीछे जो चमत्कार आपको दिखाई देता है, उसका कारण है, संयम। हम समय के गुलाम हैं। हमारी प्रेमिका कौन है, जिसे देखे बिना हमें चैन नहीं पड़ता ? वह है हमारी घड़ी, जो हर समय हमारी मेज पर रखी रहती है। हमारी दृष्टि में हर समय घड़ी की सुइयाँ ही रहती है। आपके पास भी है घड़ी ? हाँ साहब ! हमारे पास और हमारी पत्नी-दोनों के पास घड़ी है। तब तो आपकी पत्नी ने एम.ए. पास कर लिया होगा ? नहीं साहब, उसे तो घर के कामों से ही समय नहीं मिलता है। तो दिखाइए अपनी घड़ी और बताइए कि कितने बज रहे हैं ? साहब, इसमें तो साढ़े उनतीस बज रहे है। समय देखना आता नहीं और घड़ी लिए फिरते हैं।

चौथा एक और महत्वपूर्ण संयम है। उसका नाम है-अर्थसंयम। अर्थ संयम का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। “सादा जीवन-उच्च विचार” उन आदमियों का जीवन है, जिन्होंने अपना जीवन पहले चरण के हिसाब जिया है। जो आदमी जमीन को चूमते हैं, आसमान को चूमते हैं, वे आदमी बेईमान होते हैं, कर्जदार होते हैं। जिन्होंने अध्यात्म में प्रवेश किया है और पैसे की दृष्टि से सामंजस्य नहीं रखा, उन्हें आगे चलकर बहुत कठिनाई उठानी पड़ सकती है। मित्रो ! उन्हें जीवन की उन्नति के लिए कोई रास्ता नहीं मिलेगा। बच्चों की शिक्षा व पालन-पोषण का वे उचित प्रबंध नहीं कर सकेंगे। हमेशा उनके ऊपर फिजूलखर्ची छाई रहेगी। आध्यात्मिक दृष्टि से फिजूलखर्ची एक गुनाह है। कानून चाहे आपके ऊपर मुकदमा चलाए या न चलाए, लेकिन अध्यात्म आपके ऊपर मुकदमा जरूर चलाएगा। जिस देश व समाज में आप पैदा हुए है, उसके औसत के हिसाब से आप खर्च कीजिए। आप कमा तो सकते हैं, लेकिन अपनी कमाई को खर्च नहीं कर सकते। आप अपनी कमाई में से कुछ बचत कीजिए।

अर्थसंयम के बारे में मैं अक्सर ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम लेता हूँ। उनको पाँच सौ रुपये वेतन मिला था। उन्होंने अपने घरवालों को बुलाया और कहा कि ये लीजिए पचास रुपये। हिंदुस्तान का व्यक्ति इससे ज्यादा खर्च नहीं कर सकता। जो रुपये हमारे पास बच जाते हैं, इसकी हम विद्यार्थियों के लिए खर्च करेंगे। हमारा देश बहुत गरीब है। विद्यार्थियों की भीड़ उनके दरवाजे पर लगी रहती थी। आप तो जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं। आपने अपने जीवन में बेकार की जरूरतों को पाल रखा है। फिजूलखर्ची बंद कीजिए।

मित्रो ! एक बार हमने आपको बताया था कि जब हमारे बाप-दादा करे थे तो जो पैसा हमें मिला था वो सारा हमने गायत्री तपोभूमि पर लगा दिया। हमने अपनी जमीन स्कूल के नाम कद दी। अपने लिए हमने कुछ नहीं बनाया। जब रो हम अखण्ड ज्योति में रहें, हम अपने परिवार में पाँच आदमियों का हमारा खर्च दो सौ रुपये मात्र रहा है। भारत के नागरिकों को बड़े ही किफायत से धन खर्च चाहिए। गाँधी जी ने बहुत कम धन में गुजारा किया।

अमेरिका के एक सज्जन थे। पुराने कपड़े पहनते थे। खाने में भी किफायत करते थे, लेकिन वे करोड़पति थे। उनके पास एक महिला आई और कहने लगी कि हम आप से विवाह करना चाहते हैं। उस सज्जन ने कहा कि विवाह तो हम कर लेंगे, परंतु आप हमें देंगी क्या ? क्या कमाएँगी हमारे लिए ? महिला ने कहा, इस कंजूस के साथ कोई शादी नहीं करेगा। उस व्यक्ति के बारे में विख्यात हो गया कि वह बड़ा कृपण है। एक बार एक विश्वविद्यालय को चंदे की आवश्यकता पड़ी। कमेटी के लोग कंजूस के पास गए और कहने लगे कि साइंस की एक प्रयोगशाला बनाई जा रही है। विद्यार्थियों के लिए आप कुछ धन दीजिए।

कहने को तो उसने नमस्ते कर लिया। उसकी मेज पर तीन मोमबत्तियाँ जल रही थी। उसने एक मोमबत्ती बुझा दी। लोग यह देखकर हँस पड़े। कंजूस ने पूछा कि आपको कितना पैसा चाहिए ? कमेट के लोगों ने डरते हुए कहा पाँच सौ रुपये। कंजूस ने तुरंत पचास हजार रुपये का चेक काट दिया। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कहने लगे हमने तो पाँच सौ रुपये माँगे थे और आपने इतना दे दिया। ये क्या किया आपने ? उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कंजूस व्यक्ति कहने लगा कि मैं अपने जीवनभर प्रयोगशाला बनाने का सपना देखता रहा, पर पूरा न कर सका। अच्छी बात है जो आप इस काम को करने जा रहे हैं। लीजिए यह पहली किश्त है। मैं आपके विश्वविद्यालय को देखने आऊँगा। अगर काम सही तरीके से हुआ तो आगे भी धन दूँगा। मैं अपनी सारी दौलत आपको देकर जाऊँगा ? मैं इसे रखकर क्या करूंगा ??

मित्रो ! हम व्यक्तिगत जीवन में भी किफायत कर सकते हैं। पैसा तो ऐसी चीज है कि जरा-सी मुट्ठी खुलते ही समाप्त हो जाता है। फिजूलखर्ची को ही चोरी कहते हैं। इससे कभी भी पूरा नहीं पड़ सकता। अतः आप संयमशील बनिए और उतना ही खर्च कीजिए, जिससे आपका शरीर जिंदा रह सके, परंतु अब तो आप शरीर के लिए कम तथा विलासिता के लिए अधिक खर्च करते हैं। हमारे चारों सूराखों में से हमारी उन्नति, अध्यात्म पुण्य और लक्ष्य टपक जाता है।

अध्यात्म-जीवन में संयम को तप कहते हैं। तप चार तरह के होते हैं। यदि आप चारों तरह के तप करना शुरू करेंगे तो तपस्वी को जो सिद्धियाँ मिलती हैं, वे सिद्धियाँ आपको प्राप्त हो जाएंगी। एक बार बाप फिर समझ लें कि तप माने इंद्रियनिग्रह, तप माने मनोनिग्रह, विचारों का निग्रह। तप माने समय का संयम और तप माने अर्थ का निग्रह।

एक बात और, देवताओं के अनुग्रह की बात आप समझ लें। देवता नाम इसलिए रखा गया है कि वे दया करते हैं। देवता का अर्थ हैं, देने वाला। हम माँगते हैं और वे देते हैं। परंतु यहाँ यह विचार करना पड़ेगा कि देवता क्या देते हैं ? देवता के पास जो चीजें होंगी वही तो वह देगा। जिसके पास जो चीज नहीं होगी तो वह क्या देगा ? जो चीज बैंक में मिलती है वह है रुपया और कुछ नहीं मिलता है बैंक में। रुपये के बदले में आपको सब चीज मिल सकती है। रुपये में ताकत तो है, लेकिन देवता में चीज है-वह है- देवत्व। यही देवता हमें दे सकते हैं। देवत्व कहते है-गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता को। गुणों की दृष्टि से श्रेष्ठ, कर्मों की दृष्टि से श्रेष्ठ, स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ-इतना काम करने के बाद देवता निश्चित हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।

मित्रो ! दुनिया में सफलता एक चीज के माध्यम से मिलती है और वह है-उत्कृष्ट व्यक्तित्व। जिस व्यक्ति ने बिना मेहनत के कोई चीज प्राप्त कर ली है, उसे कहते हैं, तरकीब और तिकड़म। यदि इस तरीके से आपने कोई चीज प्राप्त कर ली है तो वह वस्तु आपके पास नहीं ठहरेगी। आप में हजम करने की ताकत हो तो ही आप सब चीज खा सकते हैं। दौलत को हजम करने का तरीका होना चाहिए। जैसे-जैसे आपके पास पैसा बढ़ता जाएगा तो आपके अंदर दोष बढ़ते जाएँगे। आप गरीबों से भी बुरे पड़ेंगे। जीवन में ऐसी विसंगतियाँ बढ़ती जाएँगी जो आपको दौलत का फायदा पहुँचाना तो दूर आपको नुकसान ही पहुँचाएँगी। यह दौलत आपको तबाह कर देगी। संतानें बिगड़ जाएँगी, इससे तो गरीबी अच्छी है।

दौलत को हजम करने की आपके शरीर में ताकत होनी चाहिए। अच्छे विचार मन में होने चाहिए। तब आप दौलत को हजम कर सकेंगे, नहीं तो आप बुरे कार्य करेंगे। हिम्मत से बुराइयों का मुकाबला कीजिए। आपका भीम के तरीके से बलवान् होना समाज के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। इसलिए आप अपनी ताकत को उचित कार्यों में लगाइए। मैं मानवता का पुजारी हूँ। दुनिया में तबाही पढ़े-लिखे लोगों ने ही मचाई है। तो क्या हम पढ़ना-लिखना छोड़ दे ? पढ़ाई छोड़ने से हमारे आगे वही हालात पैदा हो जाएँगे जैसे गाँवों में पहले एक ही आदम पढ़ा-लिखा होता था। बाकी सब निरक्षर रहते थे। हम आपसे बार-बार कहते हैं कि किताब वालों के पास जाइए स्वाध्याय करिए। उनके साथ सत्संग करिए।

मित्रो ! मेरा ख्याल है कि यदि सबके सब बिना पढ़े रह जाएँ तो दुनिया में शाँति कायम रह सकती है, क्योंकि तब आदमी की अक्ल का विस्तार सीमित होगा। वह सीमित क्षेत्र में ही बुराइयाँ करेगा, क्योंकि उसकी अक्ल का विस्तार नहीं हुआ है। तो क्या मैं शिक्षा विरोधी हूँ ? क्या मैं साक्षरता विरोधी हूँ ? नहीं, मैं शिक्षा का विरोधी नहीं हूँ, परंतु शिक्षा को अपने अंदर आत्मसात करने का गुण होना चाहिए। शिक्षा के साथ मनुष्य में जिम्मेदारी भी आनी चाहिए। इसका मैं हिमायती हूँ। बहुत सारी चीजें दुनिया में हैं। देवता आपको हजम करने की शक्ति देते हैं। दुनिया की दौलत को हजम करने की भी विशेषता आप में होनी चाहिए। यदि देवत्व आपको प्राप्त हो जाए तो आप संसार की समस्त वस्तुओं से लाभान्वित हो सकते हैं। इन्हीं सब बातों पर चलकर आप पूर्णमिद बन सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118