भिक्षु पूर्ण तथागत से जन-समाज में धर्मोपदेश करने की आज्ञा माँगी। भगवान् बुद्ध ने शिष्य से कहा, “वत्स ! वहाँ के लोग बड़े कठोर हैं, तुम्हें गालियाँ देंगे।” शिष्य ने कहा- “भगवन् फिर भी अच्छा है कि वे मारेंगे तो नहीं।” “और यदि मारने ही लगें तो ?” “तो क्या हुआ भगवन् ! वे मेरे प्राण तो न ले लेंगे।” “कदाचित् ऐसा ही हो गया तो ?” बुद्ध ने पूछा। “भगवन् ! यह शरीर परोपकार में नष्ट हो जाए तो यह जीवन सार्थक ही होगा।” पूर्ण का उत्तर सुनकर भगवान बुद्ध बहुत प्रसन्न हुए। बोले, “जाओ वत्स ! धर्म तुम्हारी अवश्य ही रक्षा करेगा।” लोकसेवी में ऐसा ही सत्साहस होना चाहिए।
प्रतापभानु कैकय देश के राजा श्वेतकेतु के पुत्र थे। उन्होंने अपने समस्त शत्रुओं को पराजित कर वैभव बटोरा और संपन्नता को सारे राज्य के नागरिकों हेतु बिखेर दिया। इस सीमा पर पहुँचकर उन्हें अपने कीर्तिवान-यशस्वी होने का अहंकार हो गया। चिंतन की यही विकृति उन्हें ले डूबी। उनका शत्रु कालकेतु व अन्य राजा कपट से उन्हें अपने वश में कर ब्राह्मणों का श्राप दिलाने में सफल हो गए और उन्हें अगले जन्म में रावण बनना पड़ा। उनने मंत्री व छोटे भाई ने कुँभकरण व विभीषण के रूप में जन्म लिया। लगभग सभी असुरों का इतिहास यही बताता है कि उन्हें चिंतन व चरित्र की विकृतियों ने ही गिराया है। देवगणों ने इस विभूति को खोया नहीं, अतः जब भी वे संगठित हुए, विजयी हुए।