संकल्प-पुरुषार्थ की परिणति (kahani)

July 2000

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भरत ने राम-वनवास के समय उन्हीं की तरह साधुवेश बनाकर व्रतपूर्वक चौदह वर्ष काटे। इसका रहस्य बताते हुए सूत जी ने शौनक जी से कहा, “हे शौनक, चारों बालक जब छोटे थे तब मिल-जुलकर गेंद खेलते और दूसरी प्रतिद्वंद्विताओं द्वारा विनोद करते थे। राम बड़े थे और बलिष्ठ भी, तो भी उनका यह प्रयत्न रहता था कि भाइयों को जिताने हेतु स्वयं हारने का उपक्रम करें। उससे छोटों का साहस-उत्साह बढ़ता और उन्हें श्रेय मिलता था। भाइयों ने उनकी इस उदारता को ताड़ लिया और सच्चे भ्रातृ-भक्त बन गए। बड़े होने पर वही बीजाँकुर लक्ष्मण और भरत के आदर्श भाई के रूप में विकसित करने के निमित्त कारण बने और लक्ष्मण ने स्वेच्छापूर्वक वनवास लेकर उनका साथ दिया।”

गणेश एवं कार्तिकेय जैसे अजेब देवपुरुषों-अवतार शक्तियों को जन्म देने वाली माता पार्वती अपनी निष्ठा के बल पर, संकल्पशक्ति के कारण ही शिवजी को पा सकी। यह उनके धैर्य एवं तपश्चर्या की शक्ति है, जो असंभव को भी संभव कर दिखा सकी।

पार्वती जी ने शिव-विवाह के लिए कठोर तप किया। शिवजी का मन तो पसीजा, पर अपने उपयुक्त साथी होने, ने होने की बात जाँचने के लिए सप्त ऋषियों को परीक्षक के रूप में भेजा।

परीक्षकों ने शिव की बहुत निंदा की और हजार वर्ष में समाधि खुलने की बात भी कही। इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं के सौंदर्य तथा विपुल साधनों का वर्णन करते हुए कहा, “तुम उनमें से किसी को भी पसंद करो, तो हम सरलतापूर्वक विवाह करा देंगे।”

पार्वती जी ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने की बात कहते हुए यह कहा-

कोटि जनम लगि लगन हमारी। वरहुँ शंभु न तु रहहुँ कुमारी॥

ऐसी दृढ़प्रतिज्ञ और लंबे समय तक प्रतीक्षा करने के धैर्य को सुनकर शिवजी ने स्वीकृति दे दी और उनका विवाह पार्वती के साथ हो गया। इस संकल्प-पुरुषार्थ की परिणति स्वरूप ही शिव-पंचायतन के रूप में एक परिवार उभरकर आया।


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