जन-जन की भागीदारी ही बचाएगी पर्यावरण को

July 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य ने जब से अपने को सृष्टि का मुकुटमणि मानकर वनस्पति एवं प्राणिजगत का जिस तेजी से विनाश करना आरंभ किया है, इसे देखते हुए मनीषियों का चिंतित होना स्वाभाविक है। विनाश का क्रम यदि यही रहा तो वह कहाँ जा पहुँचेगा, कहा नहीं जा सकता। इस संदर्भ में विश्वविख्यात तत्वचिंतक बरट्राँड रसेल ने अपनी कृति ‘दी साइंटिफिक आउटलुक’ में लिखा है कि विज्ञान के विकास से पूर्व मनुष्य प्राकृतिक तत्वों, जैसे-वर्षा, आँधी, तूफान, भूकंप अकाल आदि की अधीनता स्वीकारने में अभ्यस्त था। लेकिन विज्ञान के माध्यम से इस अधीनता से छुटकारा पा लेने के बाद वह उन कमजोरियों को प्रदर्शित करने लगा है, जो गुलाम से मालिक बनने वाला व्यक्ति दर्शाता है और अंततः औंधे मुँह खाई-खड्डे में जा गिरता है। अतः अब एक नए नैतिक दृष्टिकोण को विकसित करने की आवश्यकता दृष्टिगोचर होने लगी है, जिससे प्राकृतिक तत्वों की दासता के स्थान पर मानवेत्तर सृष्टि के प्रति मानव के अंतःकरण में निहित उत्कृष्टता के प्रति आदर का प्रतिष्ठापन हो। वैज्ञानिक तकनीकी विकास के साथ आज इसी सद्गुण की कमी पाई जाती है।

वनस्पति जगत् को ही लें तो मनुष्य के प्रति उसके अनेकों अनुदान हैं, जैसे कि अपने लिए खाद्यान्न, पालतू जानवरों के लिए घास चारा, वन्यपशुओं से रक्षा हेतु निवास आदि, ईंधन, औषधियाँ, सौंदर्य-प्रसाधन के विभिन्न पदार्थ और धार्मिक कर्मकाँडों के लिए आवश्यक हव्य-सामग्री आदि वनस्पति जगत् से ही उपलब्ध होती है। यही कारण है कि प्रकृति के प्रति आदर की भावना प्राचीनकाल से ही देखी जाती है। इस संबंध में विख्यात प्रकृति प्रेमी और वृक्ष-वनस्पतियों से प्रेमभरा व्यवहार कर विपुल मात्रा में फसल एवं फल-फूल आदि प्राप्त करने वाले वैज्ञानिक जेइम्स फरगुसन ने अपनी पुस्तक ‘ट्री एँड सर्पेंट वरशीप’ में विस्तृत विवरण प्रकाशित किया है। उनका कहना है कि हम अपनी धार्मिक मान्यताओं से संपर्क करने में वहाँ भूल करते हैं, जब हम यह प्रश्न करते हैं कि किसी के लिए यह आशा करना कैसे संभव है कि एक वृक्ष के प्रति की हुई प्रार्थना का उत्तर कैसे मिलेगा ? या फिर किसी वृक्ष की पूजा करने से उसकी संतुष्टि कैसे होगी ? वस्तुतः वृक्ष आदि के पूजन के पीछे उसमें निहित चेतनसत्ता के प्रति आभार या कृतज्ञता प्रकट करना होता है, जो अपना सर्वस्व लुटाकर भी हमारी हर तरह से सहायता करते हैं।

अपने देश में जो प्रकृति के प्रतीकों की पूजा प्राचीन काल से प्रचलित हैं, उसमें उपयोगिता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का समन्वय किया गया है। भारत में वृक्ष-वनस्पतियों आदि में देवी-देवताओं का निवासस्थान माना गया है। इस मान्यता के साथ इनमें संरक्षात्मक शक्ति की भी कल्पना की गई है। यह मान्यता भी परंपरा से चली आ रही है और इस शक्ति का अतिक्रमण करने से वही संरक्षात्मक शक्ति विषाक्तता, प्रदूषण आदि के रूप में घातक भी हो सकती है। इस तथ्य की जानकारी ऋषि-मनीषियों को प्राचीनकाल से ही थी। अथर्ववेद के काँड-4, सूक्त-3 के प्रथम श्लोक में बताया गया है कि प्रकृति की जीव सृष्टि का विनाश करने वाले व्याघ्र, चोर और भेड़ियों से हमारी रक्षा हो। वन्यप्रदेश, झरने एवं वायु को प्रदूषित करने वालों से हम सुरक्षित रहें। वृहदारण्यकोपनिषद् के अध्याय-3, ब्राह्मण-9, मंत्र-28 में तो मनुष्य और वृक्ष के विभिन्न अंगों की तुलना इस प्रकार से की गई है-

“मनुष्य की तरह वृक्षों का राजा है। मनुष्य के बाल उसके पत्ते हैं। उसकी त्वचा वृक्ष की बाह्य छाल है। जिस प्रकार मनुष्य की त्वचा से रक्त निकलता है, उसी प्रकार वृक्ष की छाल से रस निकलता है। घायल मानव के अंग से रक्तस्राव होता है, इसी तरह वृक्ष को काटने से रस बहने लगता है। मानव माँसपेशियों की तुलना वृक्ष के काष्ठ के साथ की जा सकती है। नसों की तुलना वृक्षों की अंतःछाल से की जा सकती है। मजबूत हड्डियों की तुलना काष्ठ के अंतःसार भाग से की जा सकती है। मानवी मज्जा की तुलना वृक्ष के गूदे से की जा सकती है।”

इस संदर्भ में उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी के चार्ल्स डार्विन, जगदीशचंद्र बसु एवं राउल फ्राँस जैसे विश्वविख्यात अनुसंधानकर्त्ताओं ने वनस्पति एवं प्राणिजगत का गहन अध्ययन करके जो जानकारियाँ प्राप्त की थी, वे सभी जानकारियाँ ऋषि-मुनियों को प्राचीनकाल से ही थी। मूर्द्धन्य मनीषी एफ. डब्ल्यू. विलसन ने इस संबंध में ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ के दूसरे खंड में लिखा है कि वे वृक्ष-वनस्पतियों आदि के अंतः और बाह्य गुण, धर्म, संरचना आदि के अति सूक्ष्म ज्ञान से अवगत थे। इतना ही नहीं इनकी विशेषताओं से, औषधीय गुणों से एवं अन्य उपयोगों से भी पूरी तरह अवगत थे। उन दिनों पेड़-पौधों का जंगलों का आज की तरह विनाश करके वातावरण को विषाक्तता से भरकर पारिस्थितिकीय संतुलन को बिगाड़ा नहीं जाता था। इतिहास के पन्ने-पन्ने पर इस बात के प्रमाण भरे पड़े है।

‘भारतीय कला’ नामक अपनी कृति में श्री वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस संबंध में बताया है कि सिंधु घाटी सभ्यता के समय की जो मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, इनमें वृक्ष-वनस्पतियों की विभिन्न प्रकार की नक्काशी पाई जाती है। हड़प्पा संस्कृति की एक मुद्रा पर एक वृक्ष-लता एवं एक नारी बनाई गई है, जो उर्वरता एवं हरीतिमा संवर्द्धन की प्रतीक है। चरक संहिता के विमान स्थान 3/11 में बताया गया है कि वनों का विनाश या जंगलों का कटते जाना राष्ट्र के लिए सर्वाधिक भयावह है, विशेषकर मानव-स्वास्थ्य के लिए। महाभारत के सोलहवें पर्व-राजधर्म, अनुशासन पर्व में स्पष्ट उल्लेख है कि पर्यावरण प्रदूषण के कारण मनुष्य दो प्रकार के रोगों का शिकार होते हैं। इनमें से एक रोग शरीर से संबंधित है तो दूसरा मन से। वस्तुतः ये दोनों तंत्र परस्पर घनिष्ठता से जुड़े हुए है। एक के बाद दूसरा अवश्य रुग्ण बना जाता है।

आयुर्वेद के महान् व्याख्याता महर्षि चरक ने अपनी संहिता के विमान स्थान के तीसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में विस्तारपूर्वक बतलाया है कि पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण ऋतुएँ अपने शीत, ग्रीष्म, वर्षा आदि धर्म से च्युत होने लगेंगी। पृथ्वी के रस सूखने लगेंगे, जिससे औषधीय पौधे अपने प्रभाव से वंचित होने लगेंगे और भिन्न-भिन्न प्रकार की नवीन बीमारियों से मनुष्य ग्रसित होता जाएगा। पदार्थ, मिट्टी आदि अपने सामान्य गुण, धर्म, रंग, गंध, स्वाद, स्पर्श आदि से विपरीत पाए जाएँगे। आवश्यकता से अधिक नमी पाई जाएगी। हानिकारक प्राणियों, जीव-जंतुओं-विषाणुओं की अभिवृद्धि से प्राणी तथा वनस्पति जगत् नए-नए प्रकार की बीमारियों से त्रस्त रहेंगे।

इस तरह महाभारत के अठारहवें पर्व के दसवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में उल्लेख है कि वृक्ष-वनस्पतियों पर प्रदूषित वातावरण का प्रभाव पड़ने से वे मुरझा जाते हैं। परिणामस्वरूप विषाक्तता की अधिकता वातावरण में चहुँओर भरती जाती है। पेड़-पौधों की अधिकता न केवल आरोग्यकर शुद्ध वायु वितरित करके स्वास्थ्य-संवर्द्धन में सहायक होती है, वरन् जलवृष्टि का संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होती है। शाँतिप्रदायक यज्ञों की सुगंधित वायु इसमें चार चाँद लगा देती है।

अमेरिका में केनेडा के गुलेप विश्वविद्यालय में कार्यरत सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर ओ.पी. द्विवेदी ने अपनी कृति ‘एनवायरनमेंटल क्राइसिसि एँड हिंदू रिलीजन’ में कहा है कि वर्तमानकाल में प्राकृतिक पदार्थों, वनस्पति एवं जीवजगत के अंधाधुँध शोषण के कारण ही पर्यावरण का इस हद तक अपकर्ष हो रहा है, जो स्वयं मानवी अस्तित्व के लिए एक भयावह संकट बन गया है। उनने इसके मूल में मनुष्य की पर्यावरणीय नीति में अतीव लापरवाही बरतना और समाज के लिए नए मानदंडों की रचना करने में विफलता को माना है।

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन निवासियों को जल एवं वातावरण प्रदूषण की पूरी जानकारी थी और नागरिक स्वास्थ्यरक्षा के लिए हर प्रकार के प्रबंध की व्यवस्था थी। भारतीय साहित्य में रामायणकाल से लेकर कुमारगुप्त एवं सम्राट अशोक के काल में नागरिक स्वास्थ्यरक्षा प्रत्येक का कर्त्तव्य माना गया था और लापरवाही के लिए अपराध संहिता थी। कौटिल्य अर्थशास्त्र के दूसरे अध्याय में वातावरण प्रदूषित करने वालों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों के लिए दंड विधान निर्धारित था। इतना ही नहीं नगरों को प्रदूषण से बचाने के लिए विभिन्न स्थानों में पेड़ विशेष लगाने का प्रावधान था। आज के पर्यावरण में प्रदूषण से बचने का उपाय कुछ इसी तरह के प्रावधानों को अपनाने से हो सकता है, जिसमें जन-जन की भागीदारी हो। केवल सरकारी प्रयत्नों से यह संभव नहीं है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118