अतींद्रिय सामर्थ्य से कोई वंचित नहीं

July 2000

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ऐसा अनुमान है कि कम-से-कम अस्सी प्रतिशत लोग भीतर अतींद्रिय क्षमता लिए होते हैं। उनमें आधे से ज्यादा ऐसे होंगे जा इन क्षमताओं का जाने-अनजाने में उपयोग कर लेते हैं। पूर्ण योग के प्रखर साधक और श्री अरविंद के निकट सहयोगी रहे नीरोदबरन ने तो यहाँ तक कहा है कि अतींद्रिय क्षमताओं से संपन्न लोगों का हिसाब लगाते समय बीस प्रतिशत भी नहीं छोड़ना चाहिए। यह एक तथ्य है कि शत-प्रतिशत लोग इस तरह की सिद्धियों और संभावनाओं से संपन्न हैं। यह बात अलग है कि किसी में ये निरंतर दीप्त होती रहती हैं और कई लोगों में बिजली की तरह कौंधती, जलते-बुझते प्रकाश की तरह विकीर्ण होतीं या जुगनू की तरह चमकती और फिर लुप्त हो जाती है।

अपने निजी जीवन में ही कुछ अवसरों को याद किया जा सकता है। पिछली स्मृतियों को उलटे-पुलटे तो प्रत्येक को ऐसी एक नहीं कितनी ही घटनाएँ याद आ जाएँगी, जिनमें उन्हें होने वाली घटनाओं का पहले ही आभास हो गया। इस तरह की अनुभूतियाँ स्वप्नों के रूप में ज्यादा होती है। रात सोते हुए स्वप्न दिखाई दिया कि बरसों या महीनों पहले बिछड़ा कोई मित्र अचानक कहीं दिखाई दिया। दिन में वह अचानक ही सामने आ गया। यह भी हो सकता है कि बहुत दिनों से आ-जा नहीं रहा कोई संबंधी आ जाए।

दुर्घटनाओं का पहले से ही अंदाज लग जाने और उस रास्ते पर नहीं निकलने की प्रेरणा अनायास उठती हुई कितने ही लोगों ने अनुभव की होगी। उस प्रेरणा का पालन किया तो बाद में पाया कि उस रास्ते पर सचमुच दुर्घटना हुई और किसी-न-किसी रूप में विनाश हुआ। किसी व्यक्ति से व्यवहार करते अथवा व्यावसायिक संबंध निश्चित करते हुए बहुतों को अचानक लगा होगा कि यह व्यक्ति धोखा दे सकता है। इस आभास का कोई तार्किक कारण नहीं ढूंढ़ा जा सकता, न ही वह समझ आता है, लेकिन बाद के अनुभव बताते हैं कि जो आभास हुआ था वह चेतावनी के तौर पर था। उसकी उपेक्षा कर कोई निर्णय लिया गया होता तो सचमुच ही हानि हो जाती या हानि हो चुकी है।

संपर्क में आने वाले किसी व्यक्ति के बारे में पहली ही नजर में लगता है कि यह व्यक्ति लाभ पहुँचा सकता है। बहुत बार ऐसे लोग औसत श्रेणी के या दुष्ट स्वभाव वाले भी हो सकते हैं। उनका अतीत और दूसरे लोगों से संबंधों को देखें तो उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता, लेकिन अपना अंतस् कहता है कि विश्वास किया जाना चाहिए। वह आँतरिक अनुभूति या प्रेरणा अक्सर सही निकलती है।

सामान्य जानकारी, व्यवहार, अनुभवों अथवा बुद्धि से विश्लेषण किए जाने पर जो निष्कर्ष आते हैं, उनसे सर्वथा अलग किस्म के अनुभव अतींद्रिय क्षमताओं की झलक है। उन अनुभूतियों या निष्कर्षों का श्रेय अपनी किसी भी लौकिक योग्यता को नहीं दिया जा सकता। श्रद्धा भरे अंतःकरण उन अनुभूतियों और आश्वासनों को ईश्वर का अनुग्रह मान लेते हैं। बुद्धिवादी मन उन्हें संयोग कह लेते हैं। संसार को अपनी समझ और पहुँच से परे मानने वाले विनम्र विद्वान उन्हें उपलब्ध ज्ञान और सीमाओं का अतिक्रमण समझते हैं। अस्तित्व में इस तरह के नियम भी काम करते हैं, जिन तक विज्ञान अभी नहीं पहुँच पाया है।

तंत्र चेतना के स्तर पर उन्हीं नियमों की खोज का विज्ञान है। तंत्र का सामान्य अर्थ है, विधि या उपाय। रामचंद्र योगी के शब्दों में, विधि या उपाय कोई सिद्धाँत नहीं है। सिद्धाँतों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। विग्रह और विवाद भी हो सकते हैं। विग्रह और विवाद भी हो सकते हैं, लेकिन विधि के संबंध में कोई मतभेद नहीं है। डूबने से बचना है तो तैरकर ही आना पड़ेगा, बिजली चाहिए तो पानी-कोयले का या अणु का रूपांतरण करना ही पड़ेगा, दौड़ने के लिए पाँव आगे बढ़ाने ही होंगे। पर्वत पर चढ़ना है तो ऊँचाई की तरफ कदम बढ़ाए बिना कोई चारा नहीं है। यह क्रियाएँ विधि कहलाती हैं।

कर्मकाँड और पूजा-प्रार्थना की विधियाँ सब धर्मों में अलग हैं, लेकिन तंत्र के संबंध में सभी एकमत है। सभी धर्म मानते हैं कि मनुष्य के भीतर अनंत ऊर्जा छुपी हुई है। उसका पांच−सात प्रतिशत हिस्सा ही काम आता है। भोजन, शयन, व्यवसाय, कामकाज, व्यवहार, अध्ययन-मनन और दिनचर्या की समस्त गतिविधियाँ उसी ऊर्जा के बूते पर संपन्न होती है। जो लोग औरों से ज्यादा सफल होते हैं , जीन के किन्हीं क्षेत्रों में ऊँचे शिखरों पर चढ़ते हैं, वे अपनी ऊर्जा का दस-बारह प्रतिशत भाग उपयोग कर पाते हैं। शेष नब्बे प्रतिशत भाग बिना उपयोग के ही पड़ा रहता है। सभी धर्म-संप्रदाय इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। अपने हिसाब से उस भाग को जगाने का मार्ग भी बताते हैं। उन धर्म-संप्रदायों के अनुयायी अपनी छिपी हुई शक्तियों को जगाने के लिए प्रायः एक समान विधियाँ ही काम में लाते हैं। उनमें जप, ध्यान, एकाग्रता का अभ्यास और शरीरगत ऊर्जा का सघन उपयोग शामिल है।

तंत्र मनुष्य की पहली आध्यात्मिक खोज है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने लिखा है, “यह किसी व्यवस्था-आयोजन या विधि-व्यवस्था के अनुसार आरंभ नहीं हुई, बल्कि मनुष्य की स्वाभाविक आवश्यकता के रूप में जन्मी। उदाहरण के लिए, भूख मनुष्य की निजी आवश्यकता है। उसे तृप्त करने के लिए वह कोई-कोई उपलब्ध साधन अपनाता है। किसी वृक्ष के नीचे उसे भूख लगी तो उसने फल तोड़कर खाया। जंगल में भूख लगी तो जानवर का शिकार किया और क्षुधापूर्ति की। इसी भाँति तंत्र का विकास व्यक्तिगत माँग और आवश्यकता के अनुसार हुआ।”

तंत्र विकास-यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा है, मनुष्य का विकास हुआ तो उसने विचित्र अनुभवों से आश्चर्यचकित होकर आगे सोचना शुरू किया। उदाहरण के लिए, स्वप्न में अगर कोई दृश्य दिखाई दिया और व्यवहार में वह सही उतरा तो उसे आश्चर्य के साथ उसने जानने की कोशिश की कि यह कैसे हुआ और जान लिया। उदाहरण के लिए, अगर स्वप्न में किसी आगामी घटना का संकेत पाया और बाद में वह चरितार्थ हो गई तो उसे आश्चर्य हुआ कि वह कैसे आगामी घटना को जान सका। उस समय के विचारशील लोगों ने अपनी अतींद्रिय क्षमा के संबंध में विचार शुरू कर दिया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उच्च और उच्चतर चेतना का निश्चित ही अस्तित्व हैं वह चेतना समय और सीमा से बाधित नहीं है। मानसिक सीमाओं का अतिक्रमण करने, अपने अंदर की उच्च आध्यात्मिक चेतना को अनुभव करने की उसकी जिज्ञासा बलवती होने लगी। इस कार्य की सफलता के लिए उसने कुछ अभ्यासों को विकसित किया, जिससे व्यक्तिगत चेतना का स्तर ऊँचा हुआ। अब वह अतींद्रिय ज्ञान से युक्त होने लगा और उसकी सजगता का विस्तार हुआ।”

अतींद्रिय क्षमताएँ अन्य उपायों से भी जाग्रत होती है। भक्ति ज्ञान, सत्संग, पूर्वजन्मों के अर्जित संस्कार और विविध उपाय इस जागरण में सहायक होते हैं। इन उपायों में लौकिक उपादानों की प्रायः अवहेलना की गई अथवा उन्हें पवित्र और शुद्ध बनाने पर ही जोर दिया। शक्ति के जागरण में शरीर का सीमित उपयोग किया गया। भक्ति और ज्ञानयोग आदि साधनों में शरीर एक निमित्त भर है। तंत्र की दृष्टि में शरीर प्रधान निमित्त है। उसे बिना चेतना के उच्च शिखरों तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। कुछ व्याख्याकारों ने ‘तंत्र’ शब्द का अर्थ ही ‘तन’ के मध्य से ‘आत्मा का त्राण’ या अपने आप का उद्धार माना है। यह अर्थ एक सीमा तक ही सही है। वस्तुतः तंत्र में शरीर-मन और काय-कलेवर के सूक्ष्मतम स्तरों का समन्वित उपयोग होता है। यह जरूर सही है कि तंत्र शरीर को भी उतना ही महत्व देता है, जितना कि मन, बुद्धि और चित्त को।

व्युत्पत्ति शास्त्र के अनुसार तंत्र शब् ‘तन्’ धातु से बना है। तन् धातु का अर्थ है, विस्तार। शैव सिद्धाँत के ‘कायिक आगम’ में इसका अर्थ किया गया है, वह शास्त्र जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता है, --तन्यते विस्तार्यते नमनेन इति तंत्रम्।” तंत्र की निरुक्ति ‘तन्’ (विस्तार करना) और ‘त्रै’ (रक्षा करना), इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है। इसका अर्थ है, तंत्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वाले का त्राण भी करता है।

तंत्रशास्त्र का एक प्रख्यात नाम ‘आगम’ भी है। वाचस्पति मिर ने योगभाष्य की तत्व वैशारदी व्याख्या में ‘आगम’ शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और निःश्रेयस (मोक्ष) के उपाय बुद्धि में आते हैं। वह ‘आगम’ कहलाता है। शास्त्रों का एक स्वरूप और भी है ‘निगम’। इस श्रेणी में वेद-उपनिषद् आदि आते हैं। इनमें कर्म, उपासना और ज्ञान का स्वरूप बताया गया है। इसलिए वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। उस स्वरूप को व्यवहार, आचरण और जीवन में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बताता है वह है, ‘अगम’।

कहा जा चुका है कि तंत्र का सामान्य अर्थ है, उपाय। विभिन्न शास्त्रीय उद्धरणों और मनीषियों-आचार्यों के प्रतिपादन भी प्रकाराँतर से यही बात कहते हैं। तंत्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य रहता है। वह क्रिया और अनुष्ठान पर बल देता है। वाराही तंत्र ने इस शास्त्र के जो सात लक्षण गिनाए है, उनमें भी व्यवहार ही मुख्य है। वे सात लक्षण हैं, सृष्टि, प्रलय, देवार्चन, सर्वसाधन, (सिद्धियाँ प्राप्त करने के उपाय), पुरश्चरण, (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाएँ), षट्कर्म (शाँतिम, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण के साधन) तथा ध्यान (इष्ट के स्वरूप का एकाग्र तल्लीन मन से चिंतन)।

विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से तंत्रशास्त्र भले ही कहीं सिऋँत की बात करते हों, अन्यथा आगम का तीन-चौथाई भाग विधियों का ही उपदेश करता है। तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और पार्वती के संवाद के रूप में रचे गए या प्रकट हुए हैं। देवी पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उसका उत्तर देते हुए एक विधि का उपदेश करते हैं। प्रश्न ज्यादातर समस्या के रूप में ही हैं। सिद्धाँत के संबंध में भी कोई प्रश्न पूछा गया तो शिव उसका उत्तर कुछ शब्दों में देने के बाद विधि का ही वर्णन करते हैं।

शास्त्र उपाय के रूप में हैं। इस तथ्य के साथ देवी और शिव संवाद रूप में होने का आशय भी स्पष्ट करना चाहिए। देवी अर्थात् शक्ति, श्रद्धा, प्रज्ञा। शिव अर्थात् चैतन्य, ज्ञान, कल्याण। आगम शास्त्र का उद्घाटन करने वाली परब्रह्म चेतना को सामान्य धरातल पर लाकर समझें। वह चिंतन इस निष्कर्ष पर पहुँचाएगा कि शक्ति प्रकट होने के लिए आतुर है। देवी को चेतना के रूप में समझें तो वह प्रश्न पूछती है, “हे प्रभु आपका सत्य क्या है ?” शिव अर्थात् मार्गदर्शक सत्ता इस प्रश्न का सीधे उत्तर नहीं देती। वे एक विधि बता देते हैं। देवी अर्थात् चेना अर्थात् साधन उस विधि से यात्रा कर लें तो उत्तर मिल जाएगा। उत्तर परोक्ष है।

आगम शास्त्र के अनुसार करना ही जानना है। और कोई जानना ज्ञान की परिभाषा में नहीं आता। जब तक कुछ किया नहीं जाता, साधना में प्रवेश नहीं होता तब तक कोई उत्तर या समाधान नहीं है। समाधान करने से आते हैं। संक्षेप में यह कि तंत्र समाधान नहीं देता, वह समाधान की विधि देता है। यह समाधान बौद्धिक नहीं, प्रायोगिक है। उदाहरण के लिए, अंधे व्यक्ति से प्रकाश के बारे में कुछ कहा जाए तो वह निरा बौद्धिक होगा। उसे दृष्टि प्राप्त करने का उपाय दिया जाए, उपचार किया जाए, ऐसी कोई व्यवस्था हो जिसमें वह देख सके तो प्रकाश के संबंध में कुछ कहना आवश्यक नहीं है। वह स्वयं ही प्रकाश को समझ लेगा और उससे अपना कल्याण कर सकेगा।

आगम शास्त्र का उपदेश शिव और पार्वती के संवाद के रूप में हुआ है। शिव पति हैं और पार्वती उनकी अर्द्धांगिनी। लौकिक दृष्टि से इन संबंधों के अर्थ दाँपत्य, गृहस्थ, संसार आदि होंगे। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह गहन आश्वासन अगाध श्रद्धा का संदेश है। पार्वती श्रद्धा हैं, समर्पण है। उनकी तर्क में कोई रुचि नहीं है। शिव चैतन्य हैं, ज्ञान हैं, विधि हैं, मार्ग है। वे उपदेश को तर्क या प्रतिपादन के आया से पहुँचाने की रत्ती भर चिंता नहीं करते। इन प्रसंगों का सार यह है कि चित्त ग्रहणशील हो तो ही बताए गए उपाय काम आते हैं।

पति-पत्नी के संबंधों से गुरु और शिष्य की सार्थकता बताते हुए योगी रामप्रसाद लिखते हैं, “शिष्य को पत्नी जैसे स्त्रैण मन वाला होना चाहिए तभी वह सीख पाएगा। स्त्रैण मन का अर्थ है, ग्रहणशीलता, समग्र ग्रहण करने वाला भाव, समर्पण। शिष्य को उसी स्त्रैण मन की आवश्यकता है। स्त्रैण ग्राहकता का अर्थ है, गर्भ जैसी ग्राहकता। स्त्री गर्भ धारण करती है और गर्भाधान के साथ ही बच्चा उसके शरीर का अंश बन जाता है। शिष्य को गर्भ जैसी ग्राहकता की जरूरत है। जो कुछ भी ग्रहण किया जाए, उसे मृत ज्ञान की तरह इकट्ठा नहीं कर लेना है। उसे भीतर क्रमशः बढ़ाना चाहिए। यह वृद्धि ही रूपांतरण लाएगी।

तंत्रसाधना में शिव को अर्द्धनारीश्वर कहा गया है। संसार के किन्हीं और साधना संप्रदायों या धर्म-धारणाओं में इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं मिलता। अर्द्धनारीश्वर भारतीय धर्मपरंपरा की अनूठी धारणा है। आधुनिक मनोविज्ञान ने इस धारणा की एक तरह से पुष्टि की है कि मनुष्य न तो अकेला पुरुष ही है और न ही स्त्री, बल्कि उसके कलेवर में स्त्री और पुरुष दोनें है। जो तल ऊपर होता है, वही दिखाई देता है, अन्यथा मन की दृष्टि से तो प्रत्येक व्यक्ति उभयलिंगी है। तंत्र ने हजारों साल पहले इस तथ्य को जानकर शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप को अनुभव किया, उसकी आराधना की।

देवी प्रिया ही नहीं है। वे शिव की अर्द्धांगिनी भी है। तंत्र के आचार्य कहते हैं कि जब तक शिष्य गुरु का दूसरा अर्द्धांग नहीं बन जाता, तब तक गुह्य विद्याओं की शिक्षा नहीं दी जा सकती। दी जाए तो भी शिष्य उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह उन विधाओं की तकनीकी, बारीकियों में उलझ जाएगा। करें या न करें, क्यों करें ? क्या करने से क्या लाभ होगा, आदि प्रश्नों में उलझकर अपनी विद्या को नष्ट कर लेगा। गुय की बताई विधियों को ऊहापोह में ही गंवा देगा।

मनुष्य ने जिस प्रथम अनुभव में अपने भीतर छिपी अतींद्रिय, अलौकिक क्षमता को जाना, उसे हजारों-लाखों वर्ष हो गए। तब से अब तक तंत्र के कितने ही गुह्य आयाम खोज लिए गए है। उनकी ऊँचाइयाँ छुई जा चुकी हैं और प्रत्येक ऊँचाई की एक ही शर्त है, कोई श्रद्धा या कोरा ज्ञान का संचय करने के लोभ में न पड़ा जाए, बल्कि उसे व्यवहार में उतारने की चेष्टा की जाए। यह चेष्टा जितनी सघन होगी, साधना उतनी ही सफल होगी।


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