महाराष्ट्र के पेशवा माधवराव के गुरु, मंत्री एवं न्यायाधीश जैसे उच्च पदों पर श्रीराम शास्त्री नामक एक कुलीन ब्राह्मण थे। विद्वता एवं उच्च पदों से संपन्न होकर भी शास्त्री जी का जीवन सादगी का मूर्त रूप था। एक दिन शास्त्री जी की धर्मपत्नी आवश्यक कार्यवश राजमहल में रानी के पास गई। रानी ने गुरुपत्नी को जनसाधारण से भी सादा वस्त्रों में देखा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। गुरुपत्नी की यह स्थिति उसे अपने और स्वयं महाराज माधवराव के सम्मान में एक कमी मालूम हुई। उसने सोचा, गुरुपत्नी को सुँदर-सुँदर बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण पहनाए और सम्मान के साथ कहारों द्वारा पालकी में बैठाकर घर भिजवाया।
कहारों ने द्वार पर जाकर किवाड़ खटखटाए। शास्त्री जी आए, किवाड़ खोले, किंतु यह कहकर बंद कर दिए, भाई यह बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत देवी कोई और है, आप लोग भूल से यहां आ गए। इन्हें तो किसी भव्य महल या राजप्रासादों में ले जाओ। शास्त्री जी की धर्मपत्नी उनके स्वभाव को भली प्रकार जानती थी। वह राजमहल में लौट गई और वहाँ उन वस्त्राभूषणों को छोड़कर अपने पूर्व वस्त्र धारण किए और पैदल ही राजमहल से अपने घर तक आई। घर पर आई, तो दरवाजा खटखटाना नहीं पड़ा दरवाजा खुला था। स्वागत करते हुए रामशास्त्री बोले, “भद्रे ब्राह्मण तो अन्यों को मर्यादा पालन सिखाता है। उसकी असली संपत्ति सादगी ही है।”