एक मनुष्य ने किसी महात्मा से पूछा, महात्मन् ! मेरी जीभ तो भगवान् का नाम जपती है, पर मन उस ओर नहीं लगता। महात्मा बोले, भाई ! कम-से-कम भगवान् की दी हुई एक विभूति तो तुम्हारे वश में हैं इसी पर प्रसन्नता मनाओ। जब एक अंग ने उत्तम मार्ग पकड़ा है, तो एक दिन मन भी निश्चित रूप से ठीक रास्ते पर आएगा। शुभारंभ छोटा भी हो तो धीरे-धीरे मन सत्पथ पर चलने को राजी हो जाता है।
एक वृक्ष पर उल्लू बैठा था, उसी पर आकर एक हंस भी बैठ गया और स्वाभाविक रूप से बोला, आज सूर्य प्रचंड रूप से चमक रहे हैं इससे गरमी तीव्र हो गई है। उल्लू ने कहा, सूर्य कहाँ है ? गरमी तो अंधकार बढ़ने से होती है, जो इस समय भी हो रही है। उल्लू की आवाज सुनकर एक बड़े वटवृक्ष पर बैठे अनेक उल्लू वहाँ आकर हंस को मूर्ख बताने लगे और सूर्य के अस्तित्व को स्वीकार न कर हंस पर झपटे। हंस अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ।
महर्षि पैंगल पक्षियों की भाषा जानते थे। वे त्रिकालदर्शी भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को यह घटना बताते हुए कहा, आज की परिस्थितियों में जो धार्मिक परंपराएँ डाली जा रही हैं, वे कलियुग तक पहुँचते-पहुंचते आडंबर बन जाएँगी और बहुसंख्यक समाज जीर्ण परंपराओं को गले लगाए रहेगा। विवेकवानों की स्थिति इस हंस जैसी ही होगी। शिष्यों ने पूछा, तात ! तब फिर धार्मिक परंपराओं का पुनर्जीवन कैसे होगा ? पैंगल बोले- इसे कोई महाप्रज्ञा शक्ति ही स्थापित करेगी। उस समय वह राजहंस अपने हंस समुदाय के साथ इन उल्लुओं को मार भगाएगा और विवेक को स्थापित करेगा।