कृत्रिम सौंदर्य-प्रसाधन हमें क्रूर-निर्दयी बनाते हैं।

July 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रदर्शन और दिखावा आज के युग की संस्कृति बन गई है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ने-पनपने के कारण दिखावे पर पैसा खर्च करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने देश में बाजार का सर्वेक्षण करने के बाद भारतवासियों की कमजोरी को जाँच-परख लिया। उन्होंने यह समझ लिया कि यहाँ के लोग बहुधा साँवले होते हैं और वे पश्चिम की नकल करके किसी भी तरह गोरे होना चाहते हैं। सर्वेक्षण का निष्कर्ष यही निकला कि गोरा होना यहाँ के लोगों की मुख्य कमजोरी है और सुँदर बनना और दिखना तो शायद पूरी मानवजाति की कमजोरी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इन दिनों इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाया है और उन्होंने पूरे जोश के साथ अपने देश पर धावा बोल दिया है। इसी का परिणाम है कि नित्य -नई प्रसाधन-सामग्रियां बाजार में आ रही हैं। इनमें कई प्रकार की क्रीम, शैंपू, हेयर डाई, लोशन, काँपैक्ट, फेस पाउडर, आई लाइनर, क्लोजिंग मिल्क, आई शैडो, लिपिस्टिक, लिपगलास, नेल पॉलिश, पॉलिश रिमूवर, हेयर रिमूवर, हेयर स्प्रे, परफ्यूम आदि न जाने कितनी ही चीजें हैं।

ज्यादातर महिलाओं में इन सौंदर्य प्रसाधनों के लिए भारी आतुरता है। अपनी इस आतुर-व्याकुलता में वे अपनी त्वचा पर कितने अत्याचार कर रही है, इसकी उन्हें परवाह ही नहीं है। अगर यही स्थिति रही तो शायद वह दिन जल्दी ही आ जाए जब उनकी त्वचा और अधिक अत्याचार न सहन कर पाए एवं विद्रोह कर दे। सौंदर्य प्रसाधनों की दुनिया को करीब से जानने वाली आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. वीणा श्रीवास्तव के अनुसार, सभी सौंदर्य प्रसाधन माइक्रो आर्गनिज्म यानि बैक्टीरिया, वायरस, फफूँदी तथा अन्य छोटे-छोटे व दिख सकने वाले कीटाणुओं के बेहद अच्छे वाहक होते हैं। खासतौर पर क्रीम व माइश्चरइजर आदि। डॉ. वीणा के अनुसार, कोई पदार्थ या तत्व त्वचा के मौलिक रंग को बदल नहीं सकता। त्वचा का काला या गोरा रंग त्वचा में उपस्थित एक पिगमेंट मैलानिन के कारण होता है। यह मैलानिन जितनी भी मात्रा में त्वचा में होता है, त्वचा का रंग उतना ही गहरा होता है। किसी भी उपाय द्वारा मैलानिन को कम नहीं किया जा सकता।

यही हाल झुर्रियों का भी है। आज तक उम्र को कम करने की कोई वस्तु दुनिया में नहीं बनी है। मालिश आदि से भले ही झुर्रियाँ कम हो जाएँ, परंतु किसी क्रीम से इनका कम होना समझ में नहीं आता। चिकित्सक भी झुर्रियाँ कम करने के लिए हमेशा खुश रहने तथा व्यायाम करने की सलाह देते हैं। हाँ, कुछ क्रीम ऐसी भी बाजार में आ रही है। जो त्वचा की ऊपरी सतह की कोशिकाओं को मृत करके हटा देती हैं और उससे अंदर वाली सतह ऊपर आ जाती है। इससे भी कुछ समय के लिए रंग गोरा होने तथा झुर्रियों के कम होने का भ्रम पैदा होता है, लेकिन यह कोरा भ्रम ही है, क्योंकि अंदर वाली सतह में भी मैलानिन उतनी ही मात्रा में होता है।

विश्व की अनेक सभ्यताओं में चेहरे, होंठ, आँख, केश, नाखून एवं त्वचा-सौंदर्य को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल होता रहा है। यहाँ तक तो गनीमत थी, पर जैसे ही आधुनिक वैज्ञानिक युग ने हमें चकाचौंध करना शुरू किया कि तमाम रसायनों, नए यौगिकों ने हमारे जीवन में प्रवेश किया। नतीजा कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों के सैलाब के रूप में सामने है। इनके दुष्प्रभाव एवं जहरीले असर अपने शुरुआती दौर से ही सामने आते रहे है। 17 वीं सदी में तो यूरोप में एक ऐसी महामारी फैली, जिसने डॉक्टरों और विशेषज्ञों को चकित कर दिया। यह महामारी आर्गेनिक युक्त सौंदर्य घोल के आम प्रयोग से फैली थी। उस समय विशेषज्ञों ने इन सौंदर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल के विरुद्ध चेतावनी दी थी। मगर ठोस उपायों की तरफ सोचा नहीं जा सकता।

तरह-तरह के शैंपू, खिजाब, कंडीशनर आदि के बढ़ते इस्तेमाल ने गंजेपन की रफ्तार को काफी बढ़ाया है। यदि बालों पर ऐसे हमले जारी रहे तो 21 वीं सदी के उतार पर अधिकाँश मानवजाति गंजी हो जाएगी। वंशानुगत गंजेपन के बदले रसायनजन्य गंजापन ज्यादा खतरनाक स्थिति है। सन् 1950 में जन्मी वर्तमान लिपिस्टिक दुनिया के पच्चीस प्रतिशत चर्म रोगों के लिए जिम्मेदार है। अब तो वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह भी सिद्ध हो गया है कि त्वचा पर लगाए गए रासायनिक प्रसाधनों का कुछ अंश मूत्र के जरिये बाहर निकलता है। अतः यह कहना कि त्वचा, होंठ, आँख और बालों पर प्रयोग किए जाने वाले रसायन शरीर में प्रवेश नहीं करते, एक धोखा है।

मलेशिया के कंज्यूमर एसोसिएशन ने तो गहन अध्ययन के बाद यह चेतावनी जारी की है कि हेयर डाई का अत्यधिक प्रयोग कैंसर को निमंत्रण देने जैसा है। अध्ययन में कहा गया है कि ऐसी महिलाएँ जो हेयर डाई इस्तेमाल करती हैं उनमें ‘हाजकिंस लिंफोमा’ का खतरा पचास प्रतिशत ज्यादा होता है। पी.जी. आई. चंडीगढ़ के आप्थेल्मोलाँजी विभाग के अध्ययन से पता चला है कि रासायनिक पदार्थयुक्त हेयर डाई से मोतियाबिंद होने के खतरे बढ़ गए है। प्रसिद्ध उपभोक्ता पत्रिका ‘दी उत्सान कंज्यूमर’ के अनुसार ‘प्रकृति’ के नाम पर बिक रही हेयर डाई में हानिकारक रसायन ‘पैराफेनाइलेनीडियामीन’ मिलाया जाता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि नेल पॉलिश और लिपिस्टिक ये दोनों सौंदर्य प्रसाधन इस कारण सर्वाधिक घातक सिद्ध होते हैं, क्योंकि इनके विषैले तत्व मुँध के द्वारा सीधे पेट में पहुँचते हैं। जिससे आँतरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

महिलाओं द्वारा रसोईघर में हाथ से किए जाने वाले कार्य, जैसे-आटा गूँथना आदि से भोजन-निर्माण की प्रक्रिया के दौरान ही नेल पॉलिश में प्रयुक्त रसायनों से खाद्यपदार्थ दूषित हो जाते हैं। खाद्यपदार्थों का विषाक्त होना स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक घातक होता है। नेल पॉलिश से होने वाले घातक प्रभावों के बारे में जो शोध-निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं, वे बेहद चौंकाने वाले हैं। नेल पॉलिश में प्रयुक्त होने वाले रसायन केवल त्वचा के लिए ही हानिकारक नहीं हैं, बल्कि नेल पॉलिश का प्रयोग करने वाली महिला एवं उसके शिशु की श्वसन क्रिया, यकृत आदि पर भी बुरा असर पड़ता है। सस्ती किस्म की नेल पॉलिश में मिलाया जाने वाले फिनायल रसायन तो इतना विषाक्त होता है कि कैंसर रोग की संभावना ही पैदा हो जाती है।

टाइटेनियम डाई ऑक्साइड तथा वैनजोइन नामक रसायनों से निर्मित लिपिस्टिक एक बार होठों को सजीला अवश्य बनाती है, लेकिन इसे अत्यधिक गाढ़ा करने के लिए भेड़ एवं खरगोश की चरबी मिलाई जाती है। कई बार तो यह चरबी इतनी बढ़ जाती है कि इससे होठ जलकर काले तक हो जाते हैं और रसायन युक्त होने की वजह से सूजन एवं खुजली भी होने लगती है। इसी तरह चेहरे पर लगाए जाने वाले ‘रुज’ में प्रयुक्त होने वाले वर्गामोट से रोमछिद्र ढक जाते हैं। फलतः त्वचा कुपोषण का शिकार हो जाती है। ऊपर से त्वचा को सुँदर एवं चिकना बनाने वाला ‘पाउडर’ भी अनेक त्वचा रोगों के लिए जिम्मेदार है। इसमें तारकोल जैसा खतरनाक पदार्थ होता है। आई ब्रो पेंसिल और मस्कारा जैसी सौंदर्य सामग्रियों में ग्रेफाइट एवं लेड जैसे घातक पदार्थ होते हैं। इनके प्रयोग से पलकों के बाल झड़ने लगते हैं। आँखों पर सूजन आ जाती है और कभी-कभी डरमाडिस नाम का रोग भी हो जाता है। चेहरे पर लगाई जाने वाली तरह-तरह की क्रीम में एमीनो एसिड व मरक्यूरिक क्लोराइड जैसे कुछ ऐसे खतरनाक रसायन होते हैं जो त्वचा के जरिए शरीर में पहुँचकर किडनी को प्रभावित करते हैं। इसके फलस्वरूप हमारा उत्सर्जन तंत्र गड़बड़ा जाता है।

एक ओर इन सौंदर्य-प्रसाधनों की कृत्रिमता स्वास्थ्य का नाश करती है, दूसरी ओर इनके निर्माण के लिए अगणित पशु-पक्षी एवं जीव-जंतु निर्ममता से मौत के घाट उतारे जाते हैं। इस संदर्भ में कतिपय शोध करने वालों ने आत्मग्लानि से भर देने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार लोशन में ‘गिनीपिग’ की खाल डाली जाती है। लिपिस्टिक में कई जानवरों का रक्त मिलाया जाता है। पाउडर में बंदर की आँख और दिल के कुछ तत्व मिलाए जाते हैं। सेंट में लोसले नाम तत्व के लिए बिच्छू के शरीर को बुरी तरह से पीसा-खरोंचा जाता है। अनेक सौंदर्य प्रसाधनों में चिकनाई लाने के लिए कछुए का तेल मिलाया जाता है। खरगोश की आँख के पास की चरबी शैंपू तैयार करने के काम में लाई जाती है। इस निर्मम हिंसा की चादर से लिपटी प्रसाधन-सामग्री को लगाकर क्या सचमुच हम मनुष्य कहलाने योग्य बने रह सकते हैं ?

वैसे भी यदि किसी चिकित्सक से पूछा जाए तो वह कभी भी किसी प्रसाधन के प्रयोग की सलाह नहीं देगा। त्वचा को स्वस्थ और काँतिमय बनाने के लिए चिकित्सक खानपान में सुधार लाने की बात सुझाते हैं। बेशक विटामिन हमारी त्वचा को फायदा पहुँचाते हैं, लेकिन विटामिन युक्त क्रीम हमें कभी भी फायदा नहीं पहुँचा सकती, क्योंकि विटामिन के परमाणु इतने छोटे नहीं होते की त्वचा में स्थित रंध्रों से होते हुए त्वचा के भीतरी भाग तक पहुँचकर अपना असर दिखा सकें। इस तरह विटामिनयुक्त क्रीम की बातें एक भ्रम और छलावा ही है। त्वचा को स्वस्थ बनाए रखने के लिए उत्तम यही है कि विटामिन युक्त भोजन किया जाए और पूरी नींद ली जाए।

यदि चेहरे पर कुछ लगाने की आवश्यकता पड़ती भी है, तो अपने रसोईघर में ही ऐसा बहुत कुछ मिल जाता है, जो त्वचा को अच्छी तरह निखार कर संवार देता है। इन सैंकड़ों सहज सुलभ प्राकृतिक व घरेलू उपयोग की चीजों से स्वास्थ्यप्रद सौंदर्य पाया जा सकता है। ये सारी चीजें अलग-अलग तरह के सौंदर्य-प्रसाधनों की कमी को पूरा करने में पूर्णतया सक्षम है। उदाहरण के लिए क्रीम की जगह मलाई या कच्चे दूध का प्रयोग किया जा सकता है। शहद भी एक शक्तिशाली प्राकृतिक माइश्चराइजर है। यह त्वचा की नहीं को नष्ट नहीं होने देता और उसे तरावट पहुँचाता है। हल्दी का उपयोग सौंदर्य में चार चाँद लगाने के लिए प्राचीन नुस्खों में से एक है। ‘गुलाब जल’ भी त्वचा को पुष्ट एवं कोमल बनाता है। इसका नियमित इस्तेमाल करने से त्वचा की झुर्रियाँ भी कम होती है।

प्राचीन युग में लोगों को ऐसे प्राकृतिक उपायों की जानकारी थी, जिससे वे स्थायी सौंदर्य प्राप्त करते थे। आज भी महाराष्ट्र के कई इलाकों में दीपावली पर अीयंगादि लगाने की प्रथा है। इसी तरह बेसन का उबटन भी प्राचीनकाल से महिलाओं के द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। प्रायद्वीप की महिलाएँ बेसन व गेहूँ का चोकर दूध में मिलाकर उबटन के रूप में त्वचा पर लगाना अधिक लाभप्रद समझती है। गेहूँ की भूसी त्वचा को बेकार के तत्वों से रहित करके साफ व चमकदार बनाती है। संसार भर के लोग एशियाई महिलाओं के घने-चमकीले बालों से ईर्ष्या करते हैं, परंतु उन्हें धोने का प्राकृतिक तरीका यानि कि शीकाकाई व रीठा ही उनका राज है।

आँवला एशियाई ‘गूस बैरी’ है। इसमें प्राकृतिक ढंग से बालों को काला करने की क्षमता है। इसीलिए आँवले से कई जड़ी-बूटी वाले हेयर ऑयल बनाए जाते हैं। इस संबंध में मेंहदी उतनी ही पुरानी हैं, जितना कि बालों का इतिहास। पाश्चात्य देशों में मेंहदी का कंडीशनर व शैंपू के रूप में भी प्रयोग होता है। तथ्य यही है कि स्वास्थ्य एवं सुँदरता को प्राकृतिक जड़ी-बूटियों की संपदा का अनोखा भंडार भी है। ऐसे में अच्छा यही है कि हमारे यहाँ के लोग इन प्राकृतिक वनौषधियों एवं घरेलू नुस्खों को ही अपनाएँ। ऐसा करने से सौंदर्य में तो निखार आएगा ही, साथ ही रासायनिक वस्तुओं की हानियों से भी बचा जा सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118