साधता का अपरिहार्य अंग (kahani)

July 2000

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वेद मानवजाति के आदि ज्ञान ग्रंथ है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चतुर्वर्ग या पुरुषार्थ-चतुष्टय के आदि शिक्षक वेदों की शिक्षाओं ने ही मनुष्य के सर्वतोमुखी कल्याण का पथ प्रशस्त किया। ये आज भी मानवजाति के मार्गदर्शक है। इस प्रकाशपुँज का आश्रय लेकर ही प्राचीन आर्यों ने ज्ञान की ज्योति विश्वभर में फैलाई थी।

भावावेश में कितने ही परिव्राजकों ने भिक्षुदीक्षा ली थी और उन्होंने अपरिग्रह का व्रत लिया था, पर समय गुजरते पुराने प्रलोभन फिर लौट आए। उनने चीवर संग्रह करने आरंभ कर दिए। सभी के पास परिधानों गट्ठर थे। तथागत इस शील-शैथिल्य पर बहुत दुःखी हुए। इतनी जल्दी व्रत भूल जाने पर ये लक्ष्य तक कैसे पहुँचेंगे ? उस दिन तथागत खुले में सोए। ठंड के दिन थे, सो एक चादर ओढ़ी, अर्द्धरात्रि को ठंड पड़ी, तो दूसरी चादर ओढ़ी, अंतिम प्रहर में शीत का प्रकोप अधिक हुआ, तो उसने तीसरा चीवर ओढ़कर नींद का आनंद लिया। समाचार सारे संघाराम में फैल गया। भिक्षुओं ने तीन चीवर गुजारे के लिए पर्याप्त समझे और शेष, सभी आश्रम के भंडार में जमा कर दिए। उनने अनुभव किया कि साधता का अपरिहार्य अंग अपरिग्रह है।


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