चले बर्बर समाज से शाँति करुणा के साम्राज्य की ओर

May 1998

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मानवीय अंतराल में मुख्यतः दो पक्ष होते है। एक ओर प्रेम, करुणा, दया, संवेदना आदि दिव्यगुण हैं, तो दूसरी ओर हिंसा व आक्रामकवृत्ति मौजूद हैं। महर्षि अरविंद ने मनुष्य के तीन-चौथाई भाग को पशुतुल्य प्रदर्शित किया है। अतः हिंसा मानवीय वृत्ति के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इसके अनेक स्वरूप हैं। समाज की कई प्रथा परंपराओं में भी हिंसा की झलक मिलती है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों को असह्य यंत्रणा का भार झेलना पड़ता है। वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक हिंसा के लिए मनुष्य के हारमोन एवं जीन को उत्तरदायी मानते है।

अनेकों मनोविज्ञानी, आचारशास्त्री हिंसा को अपने-अपने मत से व्यक्त करते हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एस. फ्रायड व्यवहार में हिंसा को वासनात्मक कुंठा से उत्पन्न अहंकार की परिणित मानते हैं। आचारशास्त्र के जनक कोनार्ड लारेज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऑन एग्रेजन में फ्रायड के विचारों की नये ढंग से व्याख्या की है। इनकी मान्यता है कि हिंसा मनुष्य की जन्मजात वृत्ति है, जो अनुकूल परिस्थिति पाकर फूट पड़ती है। आचाराँग के अनुसार हिंसा करने वाले लोग कई प्रकार के होते है। इसने मुझे मारा। यह मुझे मारता है। कुछ लोग इस डर से हिंसा के लिए उद्यत होते हैं तथा यह मुझे मारेगा-कुछ लोग इस निमित्त से बर्बर हो उठते हैं।

मानव समुदाय में कई जातियों के लोग अभी भी बर्बर व आक्रामक जीवन जी रहे है। इस तरह की कुछ घटनाओं का वर्णन जन्म इथोलाजिस्ट आइबल आइबेसफेल्ट के 'द बायोलॉजी ऑफ पीस एण्ड बार' में मिलता है। इनका कहना है कि मानव सदा से शत्रुता और मित्रता की सीमारेखा में झूलता और मित्रता की सीमारेखा में झूलता रहता है। जो भी तत्व अधिक प्रभावी होता है, उसमें वह हावी हो जाता है। इसने अस्मत के क्रिया–कलापों का चित्रण किया है। इण्डोनेशिया, न्यू गुएना इरीएन के डेल्टा क्षेत्र में अवस्थित है। यहाँ के केसुरीना तट पर 20 हजार अस्मत नामक लोग निवास करते हैं। अस्मत लोग बर्बर एवं हिंसक होते हैं। इनकी खास विशेषता है कि पे आपस में एक-दूसरे को जिंदा खा सकते हैं। बर्बरता और निर्दयता के पर्याय अस्मत सीधे सिर पर वार करते हैं। कालाहारी की झाड़ियों में रहने वाले व्यक्ति भी इसी प्रकार क्रूर होते हैं। इनमें एक विशेष प्रकार की आवाज प्रचलित है। कुँग कहने पर सब अपना भाला, बर्छा, कुल्हाड़ी लेकर दौड़ते हैं। कुँग का मतलब है-आदमी जिसे मारता है। अमेजन के मुण्डरुक लोगों के लिए हिंसा व हत्या सामान्य खेल के समान होता है। इनके यहाँ प्रवेश करने वाले किसी अन्य आदमी को हिंसक जानवर समझकर मार देने का प्राचीन रिवाज है।

इरीयन तथा अमेजन के लोग भी बर्बर होते हैं। एक सर्वेक्षण से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर कहा जाता है कि इन लोगों को उच्च एवं पर्याप्त मात्रा में प्रोटीनयुक्त भोजन न मिलने के कारण इनकी मस्तिष्कीय संरचना हिंसक हो जाती है। हत्या इनकी मूलवृत्ति में समाहित है। बच्चों का शिक्षण भी इन्हीं की बर्बर पाठशाला में होता है। अंततः पूरी पीढ़ी इसी तरह क्रूरता का परिचायक होती है। आये दिन कबीलों के बीच खूनी लड़ाइयाँ होती रहती हैं। यहाँ बलिप्रथा प्रचलित है। शक्तिशाली बनने एवं देवता को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य की बलि दी जाती है। इनके बलिदान की प्रथा भी बड़ी अजीबोगरीब ढंग की होती है। चुना हुआ मनुष्य स्वस्थ, निरोग एवं सबल होना चाहिए। इसे कई दिन तक एक अदृश्य जगह पर छुपाकर रखा जाता है। बलि के दिन उस आदमी को योद्धा की तरह सजाया जाता है। हाथ में धनुष-बाण सिर पर विचित्र पंखों का मुकुट तथा शरीर में पशुओं का चर्म पहनाया जाता है। इस दिन सबके सामने घुमाने के पश्चात् देवता के सामने किया जाता है।

वेनेजुएला और ब्राजील की सीमारेखा में दस हजार लोगों का एक समूह है। इन्हें यानोमाओ के रूप में माना जाता है। अमेरिकन विज्ञानी नेपोलियन चगनन ने द फायर्स पीपुल नामक शोधग्रंथ में इनकी विस्तृत विवेचना की है। चगनन के अनुसार इनकी वृत्ति अतिशय हिंसक होती है। चोरी, डकैती, लूटपाट, अपहरण व बलात्कार आदि तो इनके लिए आम बात है। यानोमामो परले दर्जे के धोखेबाज एवं चालाक होते हैं। इसका प्रसार पूरे समाज उस संक्रामक राग से ग्रसित होता है। सन 1964 में इनका अध्ययन करने हेतु एक दल बड़ी मुश्किल से कुछ विवरण दे सका। दो कबीलों के बीच की लड़ाई अक्सर किसी महिला को लेकर होती है। बात बढ़कर खूनी संघर्ष का रूप ले लेती है। स्त्री को यहाँ सौदे के रूप में देखा जाता है। स्त्री को यहाँ सौदे के रूप में देखा जाता है। मुख्य रूप में झगड़े के केन्द्र में किसी स्त्री को माना जाता है। इसलिए इन वारदातों से बचने हेतु लड़की को जन्म के पश्चात् मार दिया जाता है। परिणाम यह हो रहा है कि समाज में बर्बर पुरुषों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। यहाँ रिश्ते की हर दीवार तोड़ दी गयी है। यानोमामो समुदाय प्रकार से हिंसा का पर्याय है।

द इवोलुशन ऑफ वार में कीथ ओटरबीन ने बर्बरता की छियालीस घटनाओं का उल्लेख किया है। इसमें हिंसक जीवारो से जापान की क्रूर जाति फ्यूडल तक का विस्तृत वर्णन है। इसके अनुसार भय और अविश्वास व्यक्ति को क्रूर निर्दयी एवं हिंसक बना देता है। हिंसा का एक अन्य कारण है सेक्स। कामान्ध व्यक्ति अपना विवेक खोकर अति जघन्य कृत्य को सहजता से कर बैठता है। अमेरिकन हेरी टर्नीहाई ने स्पष्ट किया है कि आदिमानव से लेकर आज तक हिंसा वही है, परंतु इसके स्वरूप में परिवर्तन हुआ है। यह यानोमामो और जुलू के बीच हो या अस्मत या आस्टेहैगेरियन सेना के मध्य हो, धरती को बड़ी कठिन स्थिति से गुजरना पड़ा है। वर्तमान दौर में हिंसा के साथ जुड़ी मानवीय दुर्बुद्धि और भी भीषण तथा भयावह हो गयी। कुछ जाति, सम्प्रदाय और धर्म में बलिप्रथा का प्रचलन मिलता है। मनुष्य-मनुष्य की ही बलि चढ़ाता है। यह भी हिंसा का एक रूप है। वाल्टर बुरकर्ट ने ऐसे मनुष्यों को होमो सेपीएनन्स कहने के बजाय होमोनिकेन्स अर्थात् मानव हत्यारा का नाम दिया है। ग्रीक के इतिहासकार पासेनियास जीयुस ने माउण्ट लेक्यान में एक विचित्र प्रथा का लोमहर्षक चित्रण किया है। इनका कहना है कि इस क्षेत्र के लोग बच्चों को बलि देने के पश्चात् उसके माँस को सामूहिक रूप से भक्षण करते हैं। इनकी मान्यता है कि बच्चों के शरीर में देवता निवास करते है। इसलिए इस देवता को उदरस्थ करने हेतु इसे खाया जाता है। डाइंग गाँड में जे.जी. फ्रेजर ने उल्लेख किया है कि पूरे यूरोप, एशिया, पैसीफिक क्षेत्र में किसी पुल, बिल्डिंग मंदिर या किला की नींव रखते समय मानव बलि की प्रथा थी। जूडीयो क्रिश्चियन परंपरा में भी बलि प्रथा का वर्णन मिलता है। केन ने अपने भाई अबेल को तथा ईशाक अपने पिता अब्राहम के हाथों बलि चढ़ा था।

मेयान में देवताओं को मानवरक्त अर्पित किया जाता है। यहाँ मानवरक्त को सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। एजटेक सभ्यता में भी कुछ इसी प्रकार की मान्यता है। एडियन शिखर में सुंदर बच्चों को जिंदा दफना देते हैं। एण्डीयन गाँव में जब कभी किसी बुजुर्ग का रोग जटिल हो जाता है है तो उसको बचाने के लिए पाँच से नौ साल के बच्चों को पानी में बहा देने का रिवाज है। देवताओं से बच्चों के जान के बदले रोगी की प्राण की भिक्षा माँगी जाती है। सन 1982 में यूनेस्को ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि कई प्रकार की जातियाँ आज भी किसी विशिष्ट परिस्थिति में बच्चों को जिंदा गाड़ देती हैं। एक खोजी दल ने तो 17716 फीट ऊँचे माउण्ट प्लोनो शिखर पर एक सभ्य परिवार के बच्चे को जीवित दफना देने की घटना का पर्दाफाश किया है।

आक्रमण वृत्ति कई प्रकार से व्यक्त होती है। डी. ईगान में होपी लोगों की वृत्ति को अच्छे ढंग से चित्रण किया है। होपी हिंसक, कुटिल एवं खतरनाक होते है। ये अपने शब्दों के तरकश से विष बुझा तीर छोड़ते है। इस क्षेत्र में इन्हें महारत हासिल है। ये अपने परंपरागत गीत, संगीत तथा उत्सव में भी ऐसे ही विस्फोटक शब्दों का प्रयोग करते है। ग्रीनलैण्ड, अलास्का तथा एल्यूशियन द्वीप के इनूइट लोगों में पोलरस्टेस पाया जाता है। पोलर स्टेस अति भयंकर हिंसक घटना होती है, जिसमें सैकड़ों लोग एक साथ समाप्त हो जाते हैं। होता यों है कि शीत के प्रकोप से बचने के लिए बहुत सारे लोग सामूहिक रूप से एक ही आवास में निवास करते है। ठण्ड की अधिकता के कारण ये एकदम सटकर रहते है। इस परिस्थिति में उत्पन्न तनाव पोलर स्टेस कहलाता है। ई.ए. होयबल ने इन लोगों को क्रूर और निर्दयी कहा है। इनके गीत आक्रामक होते हैं एवं लोग नृत्य को वीभत्स ढंग से पेश करते है। मध्य आस्ट्रेलिया की आदिवासी महिलाएँ अपने सिर को एक दूसरे से टकराती हैं। यह इनकी परंपरा में आता है। फिर यह दृश्य रक्तरंजित एवं भयावह होता है, क्योंकि सिर टकराते समय इनके अंदर की हिंसक प्रवृत्ति जाग उठती है और चारों ओर फटा सिर तथा खून के फव्वारे बहते दिखायी देते है।

न्यूजीलैण्ड के माओरिस लोग यायावर तथा बर्बर होते है। इन लोगों ने न्यूजीलैण्ड के निरीह तथा निर्दोष पक्षियों की तरह 18 प्रजातियों को समाप्त कर डाला। इनका आक्रमण कठिन व चुनौतीपूर्ण होता है। सामान्य रूप से शरणार्थी जैसे ये किसी जंगल में पड़े रहते हैं। छापामार युद्ध में ये प्रवीण माने जाते हैं। इस क्षेत्र में ऐसे बर्बर लोगों की संख्या लगभग चार हजार के आस-पास बताई जाती है। बी.एस. एगलर्ट ने एक हजार वर्ष पूर्व इस्टर द्वीप के लोगों के बारे में जानकारी दी है। इनके मतानुसार यहाँ पर टाँगाटा रीमा टोटो नामक लोगों की संख्या सात हजार के आस-पास थी। अपने संस्कृति के नाम पर ये अति कट्टर होते हैं। किसी कारणवश इनके बीच मतान्तर हो गया। फिर क्या था, लड़ाई हुई इनके प्रमुख 1722 लोगों में से मात्रा 111 व्यक्ति ही शेष बच पाये, बाकी लोग हिंसा के शिकार हुए।

हिंसा सुलगते हुए धुएँ से कालांतर में युद्ध का रूप धारण कर लेती है। युद्ध हिंसा का विप्लवी व विस्फोट स्वरूप है। युद्ध में हिंसा का नग्न नृत्य होता है। हिंसा चिनगारी है तो युद्ध दावानल। आर.जी. सील्स ने वार स्पोर्टस एण्ड एग्रेजन में एक सर्वेक्षण का हवाला दिया है। इनके अनुसार 130 सामाजिक संरचनाओं का विराट अध्ययन करने पर मात्र छह समाजों में ही सर्वाधिक शाँति पाई गई। ये छह समाज भी उनमें से जो किसी सामूहिक हत्या आदि में संलग्न नहीं थे। ग्यारह यूरोपीय देशों के 1055 वर्षों के इतिहास को पलटने पर पता चलता है कि इनका 47 प्रतिशत समय सैन्य कार्यवाही में गुजरा है अर्थात् प्रतिवर्ष औसत दो युद्ध हुए हैं। जर्मनी ने सबसे कम 28 युद्ध लड़े, जबकि स्पेन ने अपने समय और श्रम का 67 प्रतिशत भाग युद्ध में झोंक दिया। स्पेन प्रति तीन साल में दो लड़ाई लड़ता रहा है। वार एजह्यूमेन इनडेवर में ए. रेस्टिंग ने लिखा है कि सन 1900 से लेकर अब तक विश्व सभ्यता को तीन बड़े विध्वंसक युद्धों को झेलना पड़ा है। युद्ध में अशाँति फैलती है। इसके आतंक की परिणति इतनी गहरी होती है कि व्यक्ति तड़प-तड़प कर जीता है और इसी परिस्थिति में पुनः हिंसा के भड़कने का खतरा होता है।

लार्ड बायरन ने स्पष्ट किया हे कि हिक्सोस, हुरियन, केसीटेस, एशिरियन हूण, तुर्क तथा तार-तार जाति हिंसा के पर्याय थे। इन्होंने हिंसा की नई-नई तरकीबें खोज निकाली। अलेक्जेन्डर हिंसा का जीता-जागता उदाहरण था। इसने तो युद्ध और हिंसा का नक्शा ही बदल दिया था। जे.एम. विंटर ने द काजेज ऑफ वार में हिंसा और युद्ध को रेखांकित किया है। विंटर के मतानुसार हिंसा तो हर आदमी के अंदर होता है। यह उसकी लाचारी है और युद्ध मानव समाज की विवशता। इनसे व्यक्ति और समाज तबाही के कगार पर पहुँच जाती है। शेष रहता है-सर्वनाश जिसके मूल में होती है-हिंसा व आक्रामकता।

आखिर यह हिंसा होती क्यों है। इसका स्नायविक केन्द्र कहाँ है? इसका विश्लेषण भी बड़ा विवादास्पद है। ए.जे. हर्बर्ट के द फिजियोलॉजी ऑफ एग्रेसन में मध्य मस्तिष्क या लिम्बिक ब्रेन को हिंसक केन्द्र के रूप में वर्णित किया गया है। इस क्षेत्र में तीन प्रकार की कोशिकाएँ होती है। जो आक्रामकता को प्रदर्शित करती है। कोशिकाओं को हटाकर या दबाकर हिंसा-भय व अनुवांशिक दुर्गुणों में भी कमी लायी जा सकती हैं एक बार एक बार एक व्यक्ति की एक दुर्घटना में इस क्षेत्र की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो गयी थीं। परिणामतः उसके व्यवहार में आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तन हो गया था।

अनेकों वैज्ञानिकों ने हिंसा को अनुवांशिक गुणों के वाहन जीन से संबंधित होने का दावा किया है। इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए अनुसंधान कार्य जारी है। एच.जी. बर्नर ने अपने ग्रंथ एबनार्मल बिहेवियर में कुछ इस तरह के उदाहरण देकर समझाया है। बर्नर के अनुसार 1979 में एक डच परिवार के पुरुषों के जीन में कुछ असामान्यता पाई गई। ये सारे सदस्य अत्यंत हिंसक थे। डकैती, हत्या, अपराध की तमाम घटनाओं में इनको लिप्त पाया गया। एक अन्य प्रयोग में चौदह कुख्यात अपराधियों के मूत्र का परीक्षण किया गया। इससे मालूम हुआ कि इन गतिविधियों के पीछे सिरोटोनीन नामक हारमोन क्रियाशील होता है। वैज्ञानिक एक ऐसी जीन की खोज में है जो वास्तविक रूप में इसका जिम्मेदार है। सदर्न कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के साइकोलाजिस्ट एडीयन रेन ने चवालिस कुख्यात अपराधियों का गहन अध्ययन किया। ये लम्बे समय तक जेल की सजा काट रहे थे। उसमें एक पेशेवर खूनी था, जो पाँच सालों में पैंतालीस खून कर चुका था। पेशेवर हत्यारे का जब अध्ययन किया गया तो रेन को कई नये तथ्यों का समाधान प्राप्त हुआ। इसके थैलेमस के एक विशिष्ट क्रियाशील क्षेत्र में छोटी-छोटी गांठें पड़ गयी थी। संभवतः यही उसके आततायी होने का कारण हो।

तो क्या इसका कोई समाधान नहीं है? इस वृत्ति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है हिंसा का प्रेम में बदला जा सकता है। अपने साँस्कृतिक इतिहास के पृष्ठों को पलटने पर मालूम होता है कि कई डाकू संत बन गये। अनेक आततायियों ने अपना बर्बर और क्रूर रास्ता छोड़कर समाज सेवा का कार्य किया। आश्चर्य की बात है कि सीमेई उन्नत कृषि कार्य के लिए जाने जाते है। जंगली हाथी, शेर तथा अन्य हिंसक जानवरों के बीच रहते हुए भी इन्होंने शांतिपूर्ण स्वभाव को डिगने नहीं दिया। प्रकृति ही इनका सर्वस्व है। डेण्टन के अनुसार सीमेई अपनी बर्बरता को सृजनात्मकता दिशा में मोड़कर सफल हुए। सन 1950 में ब्रिटिश थल सेनाध्यक्ष ने इनके बारे में कहा कि ये लोग अति निर्दयी तथा मनुष्य का खून पीने वाले है।

न्यू गुएना के सेपीक नदी पर बसने वाले अवेंटीप लोगों का इतिहास भी कुछ इस प्रकार का है। अवेटीप देखने में डरावने व भयंकर थे। लगता था कि इनका जन्म हिंसा के गर्भ से हुआ है। हत्या को एक सामान्य कर्म के रूप में अपनाने वाले अवेटीप प्रकृति की गोद में आकर संवेदनशील एवं शाँत हो गये। प्रकृति की पाठशाला में जीवन के नूतन अध्याय का श्रीगणेश किया।

वस्तुतः स्वभावतः मनुष्य हिंसक है नहीं। प्रेम करुणा, संवेदना, सहानुभूति जैसे दिव्य गुण ही उसे शोभा देते है। अंगुलिमाल, रत्नाकर, चण्ड अशोक का हृदय परिवर्तन साक्षी है कि हिंसक वृत्ति को सद्भावना में बदला जा सकता है। हिंसक व्यक्ति को एक सामाजिक रोगी माना जाय व उसकी करुणा प्रेम के द्वारा चिकित्सा की जाय। हिंसा को एक अभिशाप मानकर समस्त विश्व को शाँति के एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया जाए। यही .ऋषियों की प्रेरणा है-उनका बताया मार्ग है।


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